बिहारराजनीति

दलित राजनीति का ‘चिराग’ संकट में

 

स्वर्गीय रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी पर कब्जे को लेकर उनके पुत्र चिराग पासवान और भाई पशुपति पारस के बीच जंग छिड़ा हुआ है। यदि रामविलास पासवान जीवित होते तो निश्चित तौर पर यह संघर्ष नहीं होता और यदि ऐसा कुछ होता तो वे अपने पुत्र का साथ देते। वैसे भी रामविलास पासवान ने अपने जीवन में ही अपने पुत्र को पार्टी के सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर बिठाकर अपनी विरासत सौंप दी थी। पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने एकला चलो की नीति अपनाकर अपनी पार्टी और नीतीश को जिस तरह से नुकसान पहुँचाया था उसके कारण पार्टी के कई नेता और मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार उनसे नाराज चल रहे थे। लोक जनशक्ति पार्टी में यह टूट उसी ‘एकला चलो’ की नीति का ‘बाय प्रोडक्ट’ है।

लोक जनशक्ति पार्टी में इस टूट को लोग अलग-अलग ढंग से विश्लेषित कर रहे हैं। कुछ लोगों का यह कहना है कि लोजपा में टूट के साथ ही बिहार में दलित राजनीति का स्वतन्त्र अस्तित्व भी समाप्त हो गया है। कुछ लोगों का यह मानना है कि इसके साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर भी दलित राजनीति का स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो गया है। 

स्वतन्त्रता से पहले बिहार में जगजीवन राम ने दलित वर्ग संघ के बैनर तले दलित समुदाय की राजनीति शुरू करने का प्रयास किया था। यह संघ कुछ ही दिनों तक अलग रास्ते पर चल पाया और शीघ्र ही 29 अक्टूबर 1936 को काँग्रेस के साथ गठबन्धन कर लिया। 1937 के चुनाव में काँग्रेस और दलित वर्ग संघ ने मिलकर लड़ा था और इसके 9 प्रत्याशी जीत कर आये थे। जगजीवन राम ने भी इसी समय चुनाव जीता था। बाद में दलित वर्ग संघ का काँग्रेस में विलय हो गया। कुछ समय तक जनता पार्टी के शासन के दौरान जगजीवन राम काँग्रेस से अलग रहे। शेष जीवन वे काँग्रेस में ही रहे।

स्वतन्त्रता के बाद दलित राजनीति पर बात करें तो हम देखते हैं कि बाबू जगजीवन राम और बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर दलित समुदाय के दो नेताओं की राष्ट्रीय छवि बनती हुई दिखाई देती है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के कहने पर डॉ. अम्बेडकर को उन्होंने स्वतन्त्र भारत के सबसे पहले मन्त्रिमण्डल में शामिल किया था। जगजीवन राम को को भी उन्होंने दलित प्रतिनिधि के रूप में मन्त्रिमण्डल में शामिल किया था। इस तरह नेहरू मन्त्रिमण्डल में शामिल होने के कारण दो दलित नेताओं की राष्ट्रीय छवि बननी शुरू होती है। शीघ्र ही स्वतन्त्र रूप से दलित राजनीति को धार देने के उद्देश्य से अम्बेडकर नेहरू मन्त्रिमण्डल से अलग होकर अपनी पार्टी बनाते हैं।

स्वतन्त्रता के बाद डॉ. अम्बेडकर दलित समुदाय की स्वतन्त्र राजनीति को खड़ा करने की तमाम कोशिशें करते हैं। 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में डॉ. अम्बेडकर ने शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन’ के बैनर तले 35 प्रत्याशी खड़े किये। इनमें से केवल दो प्रत्याशी जीते थे। खुद डॉ. अम्बेडकर महाराष्ट्र की बम्बई उत्तरी सीट से बुरी तरह चुनाव हार गये थे। उस समय की व्यवस्था के अनुसार इस सीट से दो सांसद चुने जाने थे और दोनों काँग्रेस के चुन लिए गये थे। मई 1952 के उपचुनाव के लिए डॉ. अम्बेडकर ने एक बार फिर किस्मत आजमाई और फिर उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा। इस तरह दलित समुदाय की स्वतन्त्र राजनीति की सम्भावनाओं को जबरदस्त धक्का लगा और दलितों के वोट काँग्रेस को मिलते रहे।

डॉ. अम्बेडकर के बरक्स जगजीवन राम का राजनीतिक कद लगातार बढ़ता जाता है। वे एक समय में दलितों के सबसे बड़े नेता बन जाते हैं। यही कारण है कि जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ही प्रधानमन्त्री बनाने का प्रस्ताव रखा था। दलितों के बीच उनकी लोकप्रियता के कारण ही इंदिरा गाँधी की सरकार में वे रक्षा मन्त्री और उपप्रधानमन्त्री तक के पद की शोभा बढाते हैं। 1980 के दशक तक जगजीवन राम एकमात्र दलित नेता के रूप में राष्ट्रीय फलक पर दिखाई देते हैं और काँग्रेस को दलित समाज के वोट मिलते रहे।

1980 के बाद काँग्रेस के प्रति दलित समुदाय में मोहभंग की शुरुआत होती है। इसी समय जगजीवन राम की भी मृत्यु हो जाती है। दलितों के बीच इस शून्य को भरने के लिए पंजाब के कांशीराम उत्तर प्रदेश में दलित समुदाय की राजनीति शुरू करने का प्रयास करते हैं। कांशीराम बहुजन समाज पार्टी के बैनर तले उत्तर प्रदेश के दलितों को एकजुट करते हैं और अन्य पिछड़े वर्गों को साथ लेकर बहुत कम समय में मायावती को मुख्यमन्त्री की कुर्सी तक पहुँचाते हैं। उधर बिहार में इसी समय दलित समुदाय कम्युनिस्टों और समाजवादियों के साथ जुड़ता है। कम्युनिस्टों ने तो किसी दलित नेता को आगे नहीं बढ़ाया लेकिन समाजवादियों में रामविलास पासवान का कद धीरे-धीरे बढ़ता गया।

सन 2000 में समाजवादियों से अलग होकर श्री पासवान लोक जनशक्ति पार्टी बनाकर खुद को दलित नेता के रूप में खड़ा करते हैं। इस समय तक उत्तर प्रदेश में मायावती, बिहार में रामविलास पासवान, महाराष्ट्र में रामदास अठावले दलितों के नेता होने का दावा करते रहे। ये सभी नेता डॉ.अम्बेडकर का वारिस होने का भी दावा करते हैं। काँग्रेस भी जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष जैसे बड़े राजनीतिक पद देकर साबित करती रही कि वही दलितों की पार्टी है। धीरे-धीरे दलित राजनीति या कहें कि दलित नेताओं के अंतर्विरोध, उनकी खामियां उभरकर सामने आने लगती हैं। यह एक बड़ा कारण है जिससे दलित मतदाता बड़ी संख्या में भाजपा की ओर आकर्षित होते हैं।

2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के उदय के साथ-साथ दलित राजनीति उसी के अन्दर समाहित होती हुई दिखाई देती है। रामविलास पासवान और रामदास अठावले मोदी सरकार में मन्त्री बनते हैं तो मायावती भी कमोबेश भाजपा के साथ दिखाई देती हैं। भाजपा में दलित राजनीति के समाहित होते जाने के कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण यह है कि दलित नेताओं ने राष्ट्रीय स्तर पर न तो दलितों को एकजुट करने का और न ही अन्य पिछड़े वर्गों को साथ लाने का प्रयास किया। डॉ. अम्बेडकर ने पिछड़ों के नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ गठबन्धन बनाने की थोड़ी सी कोशिश की भी थी ताकि दलितों और पिछड़ों को साथ लाया जाए लेकिन हो नहीं पाया। यूपी में मुलायम सिंह और कांसीराम मिले भी लेकिन अवसरवादिता के कारण जल्दी अलग हो गये। ये दोनों अलग भी इस तरह से हुए कि बाद में भी साथ आने की सम्भावना खत्म सी हो गयी। हम देखते हैं कि समय के साथ इन दलित नेताओं के आधार वोट कम होते गये हैं।

दूसरा बड़ा कारण यह है कि दलित नेताओं ने राजनीतिक शुचिता का ख्याल नहीं रखा। ब्राह्मणवाद, जातिवाद, वंशवाद, भ्रष्टाचार आदि जिन राजनीतिक बुराइयों का विरोध करते हुए वे राजनीति में आये थे उसी में आकंठ डूबते चले गये। इन नेताओं ने अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए तरह-तरह के कुतर्क गढ़े। कांशीराम ने तो राजनीतिक अवसरवाद’ को दलित राजनीति के लिए जरूरी साबित कर दिया। दलित नेता धीरे-धीरे पहले अपनी जाति के नेता बने फिर अपने परिवार के नेता होकर रह गये। आज मायावती को जाटवों, रामविलास पासवान को पासवानों का ही नेता कहा जा सकता है। बल्कि कहें कि ये नेता अपने परिवार तक केन्द्रित हो गये हैं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।


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प्रतिनिधित्वमूलक राजनीति के इस दौर में दलितों की कुछ जातियों ने खुद को राजनीति में उपेक्षित पाया। यही कारण है कि बिहार में गैर पासवान और यूपी में गैर जाटव दलित भाजपा के साथ हो लिए। भाजपा ने दलितों की इन जातियों को राजनीतिक हिस्सेदारी भी दी और कुछ ऐसे कार्यक्रम भी शुरू किये जिनसे दलितों को लाभ हुआ। काँग्रेस के प्रति भारत की अधिकांश जनता का जब मोहभंग हुआ तो दलित समुदाय उससे अछूते कैसे रह सकते हैं। यह भी एक बड़ा कारण है जिससे दलित बड़ी संख्या में भाजपा की ओर आकर्षित हुए हैं। चिराग, मायावती आदि सभी दलित नेताओं को राजनीति की इसी प्रक्रिया के सन्दर्भ में सोचना चाहिए।

आज दलित समुदाय के अधिकांश वोट भारतीय जनता पार्टी को मिल रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दलितों का भरोसा लगातार बढ़ा है। नरेन्द्र मोदी ने भी उस भरोसे को कायम रखने की तमाम कोशिशें की हैं। रोस्टर और एससी/एसटी एक्ट के मुद्दे पर जिस तरह से मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के खिलाफ जाकर दलित हितों के समर्थन में काम किया उससे दलितों का भारतीय जनता पार्टी की ओर आकर्षण बढ़ा है। 

सीएसडीएस के एक अध्ययन के मुताबिक 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा को दलितों के 12 प्रतिशत वोट मिले थे और 2014 में ये दोगुने होकर 24 प्रतिशत हो गये। 2019 में स्थिति कुछ इसी तरह थी। अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित 131 लोकसभा सीटों में से 77 सांसद भाजपा के हैं, 2014 में यह संख्या 67 थी। यूपी विधानसभा में 87 प्रतिशत दलित विधायक भाजपा के हैं। 

भाजपा को गैर जाटव दलितों के अधिकांश वोट मिले। भारतीय जनता पार्टी ने अब जाटव वोटों को आकर्षित करने के लिए कांता कर्दम को राज्यसभा भेजा है और बेबी रानी मौर्य को उत्तराखंड का राज्यपाल बनाया है। दलितों को भाजपा से जोड़ने में आरएसएस की बड़ी भूमिका है। सामाजिक समरसता मंच के ज़रिए उन्होंने दलितों को व्यापक हिन्दू समाज के साथ ला दिया है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि दलित मतदाता और दलित नेता एक राष्ट्रीय पार्टी की ओर तेजी से आकर्षित हो रहे हैं।

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अरुण कुमार

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई महाविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +918178055172, arunlbc26@gmail.com
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