बिहार को नयी पहचान दिलाता टेरिकोटा शिल्प
बिहार में वैशाली की ऐतिहासिक भूमि को पवित्र माना जाता है। इसे पहला लोकतंत्र की जननी होने का गौरव भी प्राप्त है। जो अपने में कई इतिहास को समेटे हुए है। यह भगवान महावीर की भूमि भी है। जिसे टेराकोटा शिल्प मिलने का सौभाग्य प्राप्त है। इतिहासकारों ने टेराकोटा की वस्तुएं मिलने को लेकर कोई विशेष तिथि का उल्लेख तो नहीं किया लेकिन वैदिक काल में वैशाली के अलग-अलग जगहों पर जब उत्खनन का काम हुआ, तो टेराकोटा की बनी हुए वस्तुएं मिलने का प्रमाण सामने आया। जैसे घोड़ा, रथ, पशु, मिट्टी के सिक्के, खिलौने, टूटे-फूटे बर्तन इत्यादि।
वैशाली के काल क्रम में इस राज्य के ध्वंस होने का इतिहास मिलता है। जिसके ध्वंसावशेष की तरफ सन् 1834 के आसपास विद्वान जे स्टीफेंसन का ध्यान गया और इसके पश्चात इसकी खुदाई का सिलसिला शुरू हुआ। जिसमें टेराकोटा शिल्प की विभिन्न कलाकृतियाँ मिलनी शुरू हुई। उन्हीं के द्वारा इस बात का अनुमान लगाया जाता है कि बिहार प्रागैतिहासिक काल में टेरीकोटा नमूना के साथ-साथ मौर्य, गुप्त, पाल और शुंगकाल में भी टेरीकोटा की कलाकृतियों का इस्तेमाल होता रहा है। जिसके बाद से खुदाई के दौरान विभिन्न मूर्तियाँ, टूटे-फूटे बर्तन विभिन्न आकृतियों एवं प्रकारों वाली कड़ाही उस खुदाई के समय मिलीं। इससे पता चलता है कि उस काल में भी लोग मिट्टी के बर्तन में ही भोजन पकाया तथा उन्हीं में खाया-पिया करते होंगे। यहाँ से प्राप्त मिट्टी की छोटी-छोटी प्यालियाँ जो सम्भवतः पेय पदार्थों में काम आती रही होंगी।
टेराकोटा या टेरिकोटा एक इतावली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है – “आग में पकाई गयी किसी भी प्रकार की वस्तुओं से लगाया जाता है।” जिन्हें पकाने के बाद इनका रंग हल्का गेरुआ या लाल हो जाता है। तथा इसमें चमक बाकी नहीं रहती। हालांकि यह सस्ता, उपयोगी तथा टिकाऊ होने के कारण आमलोगों में लोकप्रिय भी है। जहाँ पूरी दुनिया में कंप्यूटरीकृत चित्र व छायाचित्र की ओर आकर्षण बढ़ रहा है तो वहीं टेराकोटा एक ऐसी हस्तशिल्प कलाकृति है। जिसे बनाने के लिए किसी आधुनिक मशीन की आवश्यकता नहीं होती है। बल्कि इसे हाथों के द्वारा मिट्टी को गुंथकर चाक के माध्यम से नया रूप दिया जाता है।
बिहार के मिथिलांचल से लेकर मगध, भोजपुर, पटना, दरभंगा, औरंगाबाद आदि स्थानों पर इसे कलाकारों द्वारा तैयार किया जाता है। जिसे विवाह के अवसर पर अथवा शुभ माँगलिक कार्यक्रम के दौरान मंडप में मिट्टी से बना कलश स्थापित किया जाता है। पूजा-पाठ में हाथी चित्र बनाकर इस्तेमाल किया जाता है। इसके साथ ही विभिन्न प्रकार की मूर्तियाँ गणेश, विष्णु, दुर्गा देवी-देवताओं आदि की भी बनाई जाती है। जिसे मंदिर में रख कर पूजा-पाठ किया जाता है।
हाल ही में ‘बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ’ विषय पर माँ की ममता से भरी मूर्ति बनाई गयी थी, जिसे आमजन द्वारा खूब सराहा गया था। बिहार राज्य के ‘उपेंद्र महारथी कला अनुसंधान केंद्र’ पटना ने टेरीकोटा पर काम कर रहे कलाकारों में कलाकृतियों की ओर विशेष आकर्षण उत्पन्न किया है। बिहार के ईश्वर चंद्र गुप्ता जो लोक कलाओं पर आधारित मूर्तियाँ बनाते थे। जिनमें विशेष करके राम-सीता श्रृंखला की मूर्ति होती थी इनसे उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली। उन्होंने लंदन में भी मूर्ति बनाई। जिन्हें काफी सराहा गया था।
इसी तरह औरंगाबाद के गुलाबचंद को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने ब्रिटेन में बुलाकर सम्मानित भी किया। इसके साथ ही महारानी ने कलाकारों को भोज पर भी आमंत्रित किया था। फिर उनके हाथों बनाई गयी कलाकृतियों को ब्रिटेन की म्यूजियम में संरक्षित करके रखा गया।
नवादा जिले के ब्रह्मदेव पंडित ने मुंबई में टेरीकोटा से बनी वस्तुओं के लिए दो स्टूडियो भी बनवाए। जहाँ से अमिताभ बच्चन और सचिन तेंदुलकर जैसे नामी हस्तियाँ भी टेरीकोटा शिल्प की कलाकृतियों की खरीददारी कर चुके हैं।
बिहार के नवादा जिला में रहने वाले धीमन और विटपाल भी मूर्तिकार हुए। जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाई। 15-16 वीं शताब्दी में इनका बड़ा नाम था। मधुबनी और दरभंगा में मिट्टी की मूर्ति ज्यादा बनती थी। वहीं मधुबनी के कलाकार गोदावरी दत्त जापान में जाकर त्रिशूल बनाई। फिर वहीं से वह विख्यात हो गयी।
वर्तमान समय में भी प्रत्येक वर्ष किसी खास अवसर पर पटना में उपेंद्र महारथी कला अनुसंधान केंद्र पटना के संयुक्त तत्वाधान में टेराकोटा/टेरिकोटा से बनी हुई कलाकृतियों पर मेले का आयोजन किया जाता है। जिसमें विभिन्न प्रकार की वस्तुएं बेची व खरीदी जाती हैं। टेरीकोटा की विशेषता ने आज भी लोगों के बीच अपनी खास पहचान बनाई हुई है। जिसे आम लोगों द्वारा खूब पसंद किया जा रहा है।
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