सांस्कृतिक सौंदर्य का आख्यान: लौंडा नाच
बिहार देश के उन राज्यों में से एक है जहां पर लोक कला, नाट्य कला व विभिन्न संस्कृतियों की उपज होती रही है। राज्य का पूर्वांचल व मिथिलांचल क्षेत्र खासकर सांस्कृतिक विविधताओं के लिए ही जाना जाता है। इन क्षेत्रों में गीत-संगीत की समृद्ध परंपरा ने एक ऐसा लोक नृत्य ‘लौंडा नाच’ को सिंचित किया है जो ग्रामीण परिवेश सांस्कृतिक परंपरा का सौंदर्य आख्या प्रस्तुत करता है।
लौंडा नाच की शुरुआत
19 वीं सदी के आठवें दशक में राज्य का ऐसा व्यक्ति भिखारी ठाकुर (1887-1991) जो पलायन के दर्द को गहराई तक समझ चुके थे और उन्होंने कलकत्ता (कोलकाता) रहते हुए विभिन्न गीत व नाटक आदि लिखा। जिसमें समाजिक यथार्थ का चित्रण, मजदूरों का पलायन, बेटी बेचवा, भाई विरोध, कलयुग प्रेम, विधवा विलाप, बाल विवाह, बेमेल विवाह (जिसमें बूढ़ा पुरुष को कम उम्र की लड़की से शादी करा दी जाती थी), प्राकृतिक मौसम आदि पर भी खूब गीत लिखा।
इसके साथ ही भिखारी ठाकुर ने अपने मजदूर दोस्तों की एक टोली बनाई जिसमें परंपरिक देसी ढोल, नगारा, जाल तथा हारमोनियम आदि से धुन पर गीत संगीत के साथ हास्य व्यंग को शामिल करते हुए लोकधुन बनाया। जिसके केंद्र में गाने नाचने की कला उत्पन्न की, जिसे ‘लौंडा नाच’ का नाम दिया गया। हालांकि यह समाज में जितना प्रसिद्ध हुआ उतना ही ‘नचनिया’ नाम से लांछन का आरोप भी लगता रहा है। लेकिन इसके गहराई में झांकने की का प्रयास करें तो भिखारी ठाकुर का ‘विदेशिया’ नाटक में जो गरीब, मध्यम वर्ग के मजदूरों का पलायन का दर्द दर्शाया गया है, वह जमीन से जुड़े होने का प्रमाण है तथा बिछड़ने की पीड़ा को भी स्पष्ट रूप से व्यक्त करता है।
हालांकि लौंडा नाच के इतिहास को जानने का प्रयास करें तो यह भोजपुरी समाज के अभिजात वर्ग द्वारा उनके मुख से ठेठ गंवई भाषा में गीत गाकर नृत्य करने की प्रथा रही है। जिसमें किसी भी प्रकार की अश्लीलता और फूहड़ता का कोई नामोनिशान नहीं मिलता है बल्कि इसमें तो रोजी-रोजगार के लिए पलायन कर बंगाल और आसाम विस्थापित होने वाले मजदूरों की पीड़ा व संघर्षों को स्वर दिया है। इसके अलावा स्त्री, दलितों की सामाजिक स्थिति के चित्र को खिंच और उनके संघर्ष को अभिव्यक्ति देने का काम किया है। इसलिए इसे समाज का स्त्री व पुरुष दोनों वर्ग एक साथ बैठकर भी लौंडा नाच का आनंद लेते रहे हैं।
वैसे भोजपुरी नाट्य शैली में ‘लौंडा नाच’ का काफी महत्व रहा है क्योंकि इसमें अभिनय करने वाला पुरुष कलाकार महिलाओं के वस्त्र पहनकर उन्हीं के हाव-भाव में नृत्य करते हैं और संवाद भी बोलते हैं। इसलिए यह पुरुष प्रधान विशेष नाच शैली भी है। इसमें नृत्य करने वाला कलाकार स्त्री वेशभूषा पहनकर मंच पर आता है तो वह पैरों में घुंघरू, हाथ में चूड़ियां, कानों में बाली, कृत्रिम लंबे बाल व चेहरा पर पाउडर के साथ होठों पर लिपस्टिक लगाया हुआ होता है। इस शैली की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें नाच करने वाला पुरुष मंच पर लंबी-लंबी छलांग लगाकर नाच प्रस्तुत करता है।
लेकिन सिनेमा की बढ़ती मांग, टेलीविजन, मोबाइल के आने से पुराने देशी संस्कृति परंपरा की नाट्य शैली ओझल होता हुआ दिखाई पड़ रहा है। लेकिन कमोबेश अभी भी उत्तर बिहार के चंपारण, समस्तीपुर, दरभंगा तथा मुजफ्फरपुर आदि जिलों में नाच की पुरानी परंपरा अभी भी जीवित है। जिसमें जो नाच पहले सामूहिक तौर पर टोली बनाकर करता था वह अब यह एकल नाच शैली के रूप में प्रचलन बढ़ा है। जिसमें वही पुरानी भोजपुरी लोक भाषा में गीत-संगीत का स्वर सुनाई पड़ता है।
ऐसे में सरकार के कला संस्कृति मंत्रालय ने इन कलाकारों को सकारात्मक दिशा देने तथा परंपराओं को संरक्षित बनाएं रखने पर जोर दे रही है। इसके साथ इस नाट्य शैली को पाठ्यक्रम से जोड़ने की भी जरूरत है। इसके अलावा भिखारी ठाकुर और लोकगायक रसूल मियां के गीतों पर शोध की पहल की जाय तो भविष्य में लोक कला संस्कृति के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित होगा।
लौंडा नाच से उपजे कलाकार
भोजीवुड में भोजपुरी फिल्म अभिनेता खेसारी लाल यादव ने अपने कला अभिनय की शुरुआत ‘लौंडा नाच’ से ही किया था जो बाद के दिनों में गायक फिर सफल अभिनेता बनकर उभरे हैं।
पिछले दिनों कपिल शर्मा शो का एक शॉर्ट वीडियो वायरल हो रहा था जिसमें हिंदी फिल्म अभिनेता पंकज त्रिपाठी को दुपट्टा डालें ठुमका लगाते हुए देखा गया। जिसमें उन्होंने बताया कि वह अपने संघर्ष के दिनों में थियेटर में ‘लैंडा नाच’ भी किया करते थे।
सरकार द्वारा सकारात्मक कदम
भिखारी ठाकुर के नाच मंडली के कलाकार रहे बिहार के चर्चित रामचंद्र माझी ने पिछले साल राष्ट्रीय नाटक विद्यालय के भारत रंग महोत्सव में भिखारी नामा को मंच पर करते देखा गया था। उसके बाद इस वर्ष उन्हें सरकार ने कला में नाच परंपरा को जीवित बनाए रखने व आगे बढ़ाने के लिए रामचंद्र जी को पद्मश्री पुरस्कार से पुरस्कृत किया है।
संदर्भ: – पुस्तक ‘हाशिए पर रौशनी’, ध्रुव गुप्त पृष्ठ-74,75,76 का अध्ययन