बिहारमुद्दा

सेनारी नरसंहार, अदालती फैसला व बिहार का बदलता ग्रामीण यथार्थ

 

बिहार के चर्चित सेनारी नरंसहार के अभियुक्तों को उच्च न्यायलय द्वारा साक्ष्य के अभाव में दोषमुक्त कर दिया गया है। बिहार के नरसंहारों सम्बन्धी अदालती फैसले में, यह पहली बार है, कि सवर्ण जाति के लोगों के नरसंहार के विरूद्ध अभियुक्त बने आरोपियों को न्यायालय से बरी कर दिया गया। वैसे बिहार के कई नरसंहारों के आरोपी कोर्ट द्वारा बाइज्जत बरी कर दिये जाते रहे हैं। आरोपियों के दोषमुक्त होने का कारण हर बार की तरह, वही, साक्ष्य का अभाव रहा है।

बिहार के नरसंहारों में सबसे बड़ा नरसंहार माने जाने वाले लक्षण्मणपुर बाथे (जिसमें 58 दलितों को मार डाला गया था) के सभी सवर्ण अभियुक्तों को भी दोषमुक्त कर दिया गया था। नरसंहार के अभियुक्तों का छूट जाना कोई नयी बात नहीं है। परन्तु सेनारी नरसंहार के आरोपियों का छूट जाना इस मायने में अलहदा है कि पहली बार सवर्ण लोगों के कत्लेआम के आरोपी छूट पाने में सफल हो गये हैं। इसके पहले उच्च जाति के खिलाफ हुए नरसंहार के आरोपियों को सजा मिल जाती रही है।

अब तक उच्च जातियों के विरुद्ध दो बड़े नरसंहार माने जाते हैं, ‘दललेचक बघौरा’ और ‘बारा’। औरंगाबाद जिले में दलेलचक बघौरा गांव में नरसंहार 1987 में हुआ जिसमें राजपुत जाति के 52 लोगों की निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गयी थी। उसी प्रकार गया जिले के ‘बारा’ गांव में 1992 में भूमिहार जाति के 35 लोगों की हत्या कर दी गयी थी। लेकिन इन दोनों नरसंहार के आरोपियों को सजा हुई थी। कुछ को तो मृत्युदण्ड भी दिया गया था। मृत्युदण्ड पाने वाले अभियुक्त पिछड़े व दलित समुदाय से आते थे।

सबूतों के अभाव में दोषमुक्त हो जाना 

जब भी पिछड़े-दलितों के नरसंहार हुए है उनके अधिकांश सवर्ण आरोपी साक्ष्य के अभाव में अदालत से छूट पाने में सफल रहे हैं। लेकिन सेनारी नरसंहार में पहली दफे पिछड़े व दलित आरोपी भी मुक्त हो गये हैं। यह हल्के आश्चर्य का विषय है।

इसके पूर्व लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के सभी अभियुक्तों को सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया। 9 अक्टुबर 2013 को पटना हाईकोर्ट ने लक्ष्मणपुर बाथे के सभी आरोपियों को यह कहते हुए छोड दिया था कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है। 58 लोगों की हत्या का कोई भी जिम्मेवार नहीं है।

सेनारी नरसंहार 

18 मार्च 1999 को वर्तमान अरवल जिले (उस वक्त जहानाबाद) के करपी थाना के सेनारी गांव के 34 लोगों की निर्मम हत्या कर दी गयी थी। सेनारी नरसंहार के वक्त केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली भाजपा गठबन्धन की सरकार थी। वाजपेयी सरकार अपने कार्यकाल का एक वर्ष पूरा करने के उपलक्ष्य में उत्सव मना रही थी। 18 मार्च को 500-600 हथियारबन्द लोगों ने सेनारी गांव को घेर लिया और दूसरे रास्तों की भी मोर्चाबन्दी कर दी। सेनारी से एक किमी दूर पुलिस चौकी को भी घेरकर गोलाबारी की गयी थी।

घरों से खींच-खींच कर पुरूषों को बाहर किया गया। कुल 40 लोगों को चुना गया। उन सबों को तीन समूहों में बांट दिया गया। फिर उन्हें गांव की ठाकुरबाड़ी के पास ले जाया गया। 7.30 बजे से रात 11 बजे तक चौंतीस लोगों को तेजधार वाली हथियार से नृशंसतापूर्वक तरीके से मार डाला गया था। मरने वालों की संख्या 40 में 34 थी जबकि शेष 6 घायल हो गये। पुलिस घटना के 45 मिनट बाद ही पहुंच गयी थी। पुलिस के अनुसार यदि वे लोग सही समय पर नहीं पहुंचते और और अधिक लोगों के मारे जाने की संभावना थी।

इस नरसंहार में मारे गये अवधकिशोर शर्मा की पत्नी चिंतामणि देवी के बयान पर पुलिस ने 19 मार्च 1999 को करपी थाने में काण्ड संख्या 22-1999 दर्ज किया था। नरसंहार की सूचना उसी दिन रात्रि 11.40 बजे रात में पुलिस को मिल गयी थी। 16 जून 1999 को पुलिस द्वारा चार्जशीट दायर किया गया था। इसके बाद 38 लोगों के खिलाफ ट्रायल चला था। इस घटना के अगले दिन पटना के हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार पद्यनारायण सिंह यहाँ पहुंचे। वे खुद सेनारी के ही रहने वाले थे। उनके परिवार के भी लोग मारे गये थे। उनके शवों को देखकर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे वहीं गुजर गये थे।

प्रतिबंधित संगठन एम.सी.सी (माओवादी कम्युनिस्ट केंद्र) ने बाकायदा एक पर्चा निकाल सेनारी नरसंहार की जिम्मेवारी ली थी। उस पर्चे में शंकरबिगहा व नारायापुर नरसंहार के बदला लेने सम्बन्धी बात की गयी थी। सेनारी नरसंहार के कुछ ही महीनों बाद रणवीर सेना ने मियांपुर गांव में पिछड़ी जाति (मुख्यतः यादव) के 35 लोगों की हत्या कर दी गयी थी। इस हत्याकाण्ड को सेनारी के बदले की बदले की कार्रवाई के रूप में करने का दावा किया गया। मियांपुर के साथ ही बिहार में नरसंहारों का सिलसिला थम सा गया था।

सेनारी नरसंहार में जहानाबाद सिविल कोर्ट के अपर जिला व सत्र न्यायाधीश रंजीत कुमार सिंह ने इस नरसंहार के 15 आरोपियों को 15 नवम्बर 2016 को सजा सुनाई थी। जबकि 23 रिहा कर दिये गये थे। जिनमें दो की मौत हो गयी थी। जबकि पाँच फरार चल रहे थे। 11 को निचली अदालत ने मृत्युदण्ड जबकि तीन लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई गयी थी। दूसरी तिथि में एक अन्य को सजा सुनाई गयी थी। बाद में उक्त अभियुक्त की मौत हो गयी थी। कुल 45 आरोपित बनाये गये थे।

निचली अदालत ने बचेस कुमार सिंह, बुधन यादव, गोपाल साव, सत्येंद्र दास, करीमन पासवान, गोरई पासवान, दुखन कहार उर्फ दुखन राम को मौत की सजा सुनाई थी। मुगेश्वर यादव, विनय पासवान और अरविंद पासवान को सश्रम कारावास की सजा दी गयी थी। इन्हीं लोगों ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। निचली अदालत ने जिन आरोपियों को मौत की सजा दी थी उनकी सजा को सही ठहराने सजा के फैसले और साक्ष्य समेत सभी रिकॉर्ड को पटना हाईकोर्ट भेजा गया। पटना हाईकोर्ट ने मौत की सजा वाले और आजीवन कारावास के फैसले पर एक साथ सुनवाई करने के बाद फैसला सुनाया।

पटना हाईकोर्ट ने निचली अदालत से दोषी ठहराए गये 15 आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। साथ ही निचली अदालत द्वारा दी गयी सजा को रद्द कर दिया। सभी को जेल से रिहा करने का आदेश दे दिया गया। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सरकारी पक्ष यानी अभियोजन पक्ष इस काण्ड के आरोपियों पर लगे आरोप को साबित करने में असफल रही है। पटना हाईकोर्ट के अनुसार अभियोजन पक्ष के साक्ष्य एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं, आरोपियों की पहचान की प्रक्रिया सही नहीं है। गवाहों ने आरोपियों की पहचान कोर्ट में की है जो पुख्ता साक्ष्य की गिनती में नहीं है। इसलिए संदेह का लाभ आरोपियों के मिलता है। इस काण्ड के विचारण के दौरान भी सरकार यानी अभियोजन और पुलिस प्रशासन भी आरोपियों के खिलाफ ठोस साक्ष्य पेश करने में असफल रहा।

अभियुक्तों को सबूत के अभाव में छूट जाने को लेकर सेनारी नरसंहार पीड़ित के परिजनों में निराशा फैली। मृतक के परिजनों ने कहा कि सरकार जिस प्रकार से अन्य नरसंहार के लिए सुप्रीम कोर्ट गयी है। हमलोगों को भी न्याय देने के लिए सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर करे।

लक्ष्मणपुरपुर बाथे और उसके बाद 

लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार 1 दिसम्बर 1997 को रणवीर सेना द्वारा अंजाम दिया गया जिसमें 58 गरीबों-मजलूमों की हत्या कर दी गयी। मरने वालों में सभी दलित थे। 19 फरवरी 1998 को नारायणुर गांव में 12 लोगों को मार डाला गया। इस नरसंहार को भी रणवीर सेना ने अंजाम दिया था। इस घटना के पश्चात बिहार में राष्ट्पति शासन लगा दिया गया था। पर विपक्षी दलों के विरोध के कारण सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा और राबड़ी देवी की सरकार पुनः स्थापित हुई।

 नरसंहारों की शुरुआत 

वैसे बिहार में जनसंहारों की शुरुआत 1971 में पूर्णिया जिले में रूपसपुर चंदवा नरसंहार से मानी जाती है। इसके शिकार गरीब आदिवासी थे। इसके अभियुक्तों में साहित्यिक रुझानों वाले विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष लक्ष्मी नारायण सुधांशु का भी नाम था। इस कारण उन्हें अध्यक्ष की कुर्सी गंवानी भी पड़ी थी।

बेलछी नरसंहार

लेकिन बिहार में नरसंहारों में सबसे अधिक ध्यान खींचा 1977 में नालंदा जिले में हुए बेलछी नरसंहार ने। बेलछी पटना से यह 40 किमी की दूरी पर अवस्थित था। 1977 में इंदिरा गाँधी केंद्र की सत्ता से बेदखल हो चुकी थीं। देश में जनता पार्टी की सरकार थी और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे। मोरारजी की सरकार तकरीबन 9 महीने चल चुकी थी। बिहार विधानसभा के चुनाव होने वाले थे। इससे कुछ दिन पहले ही हथियारों से लैस कुर्मी जाति के सशस्त्र गिरोह ने बेलछी गांव पर हमला बोल दिया। घंटों गोलियां चलीं। 11 लोगों को जिंदा जला दिया गया।

यह एक लोमहर्षक घटना थी। लगभग 400 लोगों के सामने दलितों को हाथ बाँधकर लाया गया। इन्हें पहले गोली मारी गयी और फिर आग के हवाले कर दिया गया। एक 14 साल के लड़के, राजाराम, ने आग से निकलने की कोशिश की तो उसे उठाकर फिर आग में झोंक दिया गया। उसकी चीखें आग की लपटों में दफन हो गईं। मरने वालों में 8 पासवान और 3 सुनार थे। थोड़ी मजदूरी बढाने तथा ताड़ के पत्तों को लेकर बढ़े विवाद ने बढ़कर बेलछी जैसे निर्मम हत्याकाण्ड को जन्म दिया था।

बेलछी गांव में तब बरसात के कारण आवागमन ठप्प था। इंदिरागाँधी तब हाथी पर चढ़कर बेलछी गांव पहुंची थीं। उसके बाद बेलछी ने दुनिया का ध्यान आकृष्ट कर राष्ट्रीय मानस व मीडिया को झकझोर दिया था। इंदिरा गाँधी की खोई हुई प्रतिष्ठा को बेलछी ने वापस पाने में सहायता दी। ऐसा माना जाता है कि इंदिरा गाँधी की, 1980 में, जो दुबारा वापसी हुई उसमें बेलछी का उनका दौरा भी एक प्रमुख बेहद कारण था। इस नरसंहार ने हिंदुस्तान में हर हिस्से को प्रभावित किया। देश के अलग-अलग हिस्सों में दर्जनों कविताएं, नाटक रचे गये गये। हिन्दी के प्रख्यात कवि बाबा नागार्जुन की चर्चित कविता ‘हरिजन गाथा’ बेलछी को आधार बनाकर ही लिखी गयी थी।

जहानाबाद में नरसंहार का प्रारम्भ

1980 के फरवरी महीने में जहानाबाद के पिछड़े तथा दलित बहुत पारसबिगहा गांव को चारों ओर से घेरकर आग लगाने और उसके बाद बाहर लोगों को गोलियों से भूनने के बाद जहानाबाद में जातीय हिंसा की जो आग भड़की उसने उगले दो दशकों तक न सिर्फ जिले बल्कि पूरे राज्य को जला कर रख दिया। इस दौरान तकरीबन चार दर्जन नरसंहार की वारदातें हुई जिसमें करीब साढ़े तीन सौ बेगुनाह लोग मारे गये।

नरसंहारों की राजनीतिक पृष्ठभूमि

इन नरसंहारों की जड़ में बिहार के ग्रामीण जीवन की भूमि व्यवस्था के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक जीवन में आ रही प्रमुख तब्दीलियां थीं। 1967 में देश के सात राज्यों में गैर कांग्रेसी संविद सरकारों का गठन हुआ। उन सात राज्यो में बिहार भी था। महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में गठित मन्त्रीमण्डल में दो कम्युनिस्ट मंत्री थे। चंद्रशेखर सिंह (सिंचाई मंत्री) और इन्द्रदीप सिन्हा (भू व राजस्व मंत्री)। दोनों कम्युनिस्ट मंत्रियों ने बिहार में भूमि सम्बन्धों में गरीबों के लिए कानूनी सुरक्षा कवच प्रदान करने का प्रयास किया। भूमहीनों को बासगीत का पर्चा दिया गया। टाटा की जमींदारी समाप्त की गयी। इतने ताकतवर लोगों से टकराने की कीमत इस गैरकांग्रेसी सरकार को चुकानी पड़ी। आगे चलकर मंडल आयोग के लिए प्रसिद्ध हुए बी.पी. मंडल के नेतृत्व में इस सरकार को गिरा दिया गया। लगभग इसी वक्त बंगाल के बाद नक्सल आन्दोलन की सुगबुगाहट बिहार में भी शुरू हो गयी थी। भूमि समस्या राजनीति का प्रधान एजेन्डा बनती जा रही थी।

1930 व 40 के दशक में स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में चले जमींदार विरोधी किसान आन्दोलन के क्रान्तिकारी आवेग के बरक्स भूमि समस्या के अहिंसक समाधान के लिए बिहार में बिनोबा भावे द्वारा चलाई गयी भूदान आन्दोलन की ऊर्जा भी अब समाप्त होने के कगार पर थी। इन सबके परिणामस्वरूप पिछड़े-दलितों, गरीब किसानों व खेत मज़दूरों को बल प्रदान किया। फलतः वे अब अपने अधिकारों की मांग और मुखरता से करने लगे। इसी की प्रतिक्रिया में सामन्तों -जिसमें सवर्ण व गैर सवर्ण सभी शामिल हैं- द्वारा निजी सेनाओं के गठन का सिलसिला शुरु हुआ।

रूपसपुर चंदवा, बेलछी के बाद निजी सेनाओं द्वारा नरसंहारों की बाढ़ आ गयी। कुर्मी जाति की भूमि सेना, यादव जाति द्वारा लोरिक सेना, राजपुत जाति द्वारा कुंवर सेना, सवर्ण लिबरेशन फ्रन्ट होते हुए मुख्यतः भूमिहार जाति द्वारा स्थापित समझी जाने वाली रणवीर सेना अस्तित्व में आती है। रणवीर सेना शेष निजी सेनाओं के तुलना में ज्यादा संगठित व खूंखार थी। जिसने लगभग दर्जन भर नरसंहारों को अंजाम दिया।

नरसंहारों का चुनाव से रिश्ता 

रणवीर सेना बिहार विधान सभा के पूर्व 1994 के सितम्बर माह में गठित हुई। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि बेलछी से लेकर मियांपुर तक जितने भी नरसंहार हुए उसमें से अधिकांश का चुनावों से रिश्ता है। ये सभी नरसंहार विधानसभा या लोकसभा चुनावों के आसपास आयोजित किये गये। बेलछी नरसंहार बिहार विधान सभा चुनाव के ठीक पहले आयोजित किये गये। बथानी टोला 1996 के लोकसभा चुनाव के आसपास, लक्षणमनपुर बाथे नरसंहार दिसम्बर 1997 में जबकि फरवरी 1998 में देश में लोकसभा का चुनाव होना था। ठीक इकाई प्रकार ज्यादातर नरसंहारों की टाइमिंग चुनावी राजनीति से जुड़ी हुई थी। सबसे अधिक नरसंहार 1995 से सन 2000 के बीच किये गये। इन पाँच वर्षों के दौरान बिहार ने पाँच चुनाव समपन्न हुए। 1995 में विधानसभा चुनाव, 1996 के मई में लोकसभा चुनाव, 1998 के फरवरी में लोकसभा चुनाव, 1999 के अक्टूबर में लोकसभा चुनाव, 2000 के मार्च में विधानसभा चुनाव।

नरसंहारों के माध्यम से जातीय ध्रुवीकरण

दरअसल चुनावों के पूर्व नरसंहारों के माध्यम से समाज मे जातीय ध्रुवीकरण होता था। जिसका फायदा राजनीतिक दल उठाते थे। पिछड़े-दलितों की गोलबन्दी लालू प्रसाद तो सवर्णों का ध्रुवीकरण भाजपा को फायदा पहुंचाता था। लेकिन सन 2000 आते-आते इन नरसंहारों की राजनीति भी अब अपनी चमक खोने लगी थी। सन 2000 में लालू-राबड़ी की सत्ता, सात दिनों के लिए ही सही, चली गयी। रणवीर सेना के राजनीतिक सम्बन्धों की जाँच के लिए बनी अमीरदास आयोग की रपटों पर आज तक धूल जमी है। जिसे भी सत्ताधारी दल ने उसे आजतक उजागर नहीं किया है।

रणवीर सेना खुद को किसानों का संगठन होने का दावा करती थी। उसके संगठन का नाम था ‘राष्ट्रवादी किसान महासंघ’ लेकिन उसने निशाने पर किसानों के ही खेत मे काम करने वाले खेत मज़दूरों के परिवार रहा करते थे। यदि वे किसानों के संगठन होते तो अपने ही खेत में काम करने वाले मज़दूरों के साथ वैसा बर्बर सलूक करते जैसा उसने अपने द्वारा अंजाम दिये गये विभिन्न नरसंहारों में दिया था जब बच्चों ब गर्भवती महिलाओं तक को नहीं बख्शा गया था?

पंचायत चुनाव की अनुपस्थिति व नरसंहारों की राजनीति

नरसंहारों के सिलसिले की शुरुआत सत्तर के दशक के उत्तरार्ध से लेकर सदी के अंत तक यानी लगभग ढाई दशकों तक चली। यह भी बेहद दिलचस्प है कि यही वह काल है जब बिहार में पंचायतों के चुनाव भी बंद थे। 1978 से बंद हुआ पंचायत चुनाव सन 2001 में न्यायालय के हस्तक्षेप से हुआ। 23 वर्षों पश्चात हुए पंचायत चुनाव के साथ ही बिहार में नरसंहारों का सिलसिला भी थम गया। दरअसल चुनी हुई पंचायतें ग्रासरूट स्तर पर निजी सेनाओं की आतंकी कार्रवाइयों पर एक हद तक नियंत्रित करने का काम करती रही है। यह अकारण नहीं है कि जब जम्मू-कश्मीर में पंचायतों के चुनाव संपन्न हुए तो आतंकी हत्याओं का सबसे ज्यादा निशाना पंचायतों के चुने हुए प्रतिनिधियों को बनाया गया।

जाति नहीं मजदूरी है कारण 

बिहार से बाहर के प्रमुख विश्लेषकों द्वारा राज्य में नरसंहारों का मुख्य कारण के रूप में बिहार की जातीय सरंचना व तथा अंतर्विरोध में देखने की प्रवृत्ति रही है। इनलोगों के अनुसार जाति के नाम और होने वाले सामाजिक उत्पीड़न के इन नरसंहारों की जड़ में रहे हैं। जबकि सच्चाई कुछ और बयां करती है। ‘पीपुल्स यूनियन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म’ (पी.यू.डी.आर) द्वारा बिहार के नरसंहारों पर केंद्रित अपनी रपट में अधिकांश नरसंहारों के पीछे भूमि व मजदूरी सम्बन्धी विवाद को प्रमुख कारण के रूप में चिन्हित किया है। मजदूरी में बढ़ोतरी की मांग की प्रतिक्रिया लगभग सभी नरसंहारों के केंद्र में रहा है।

नरसंहारों को उच्च जाति बनाम पिछड़ी जाति के चश्मे से देखने की एक सीमा रही है। ग्रामीण जीवन के बदलते जटिल यथार्थ को इससे नहीं समझा जा सकता था। बात दरअसल अधिक गहरी थी। दरअसल 1991 में भारत की अर्थव्यस्था खोली जाती है। कृषि पर से सब्सिडी को समाप्त करने की प्रक्रिया शुरू होती है। वैसे आई.एम.एफ से इंदिरा गाँधी ने इसके 10 साल पूर्व 1981 से ही 5 बिलियन डॉलर कर्ज लेकर इसकी भूमिका तैयार कर दी थी। खेती पर से सब्सिडी कम करने का परिणामस्वरूप खेती मंहगी होने की शुरुआत हो गयी। इसी दौरान सामंतवाद विरोधी संघर्ष के लहरों पर सवार होकर लालूप्रसाद बिहार में सत्तासीन हो गये। 1990 में बनी उसी सरकार कम्युनिस्ट पार्टियों के समर्थन पर टिकी थी। बिहार भर में वामपंथी दलों द्वारा भूमि संघर्ष और उत्साह आए चलाया जाने लगा।

खेती, एक ओर, महंगी होने लगी, उधर खेत मज़दूर, अपनी मजदूरी बढाने की मांग करने लगे। वैसे भी 1975-76 के दौरान खेत मजदूरी सम्बन्धी कानून में परिवर्तन कर उन्हें सशक्त बनाने का प्रयास किया गया था। उधर अर्थव्यस्था खोले जाने के कारण विदेशों से खाद्यान्न के आयात होने लगे फलतः किसानों के फसल के मूल्य कम होते चले गये। बाजार समितियों को कमजोर किया जाने लगा। अब उन्हें अब अपनी फसल औने-पौने दामों ओर बेचने पर मजबूर होना पड़ने लगा। कृषि के संकट को बोझ को किसानों ने खेत मज़दूरों पर डालने की कोशिश की। देश की अर्थव्यस्था में आ रहे परिवर्तनों के कारण मुश्किलों का सामना कर रहे किसानों ने कृषि के उत्पादन लागत को मजदूरी कम करने के रूप में इस संकट का समाधान करना चाहा।

कृषि का यह संकट अब हिंसक रूप धारण करने लगा। और पंचायती ढाँचे के अभाव के कारण भी खेती के वैश्विक संकट से उपजे इस संघर्ष ने विस्फोटक रूप धारण कर लिया। ग्रामीण जीवन व खेती में मशीनी तौर-तरीकों के बढ़ते प्रभाव के परिणामस्वरूप गैकृषि मज़दूरों की तादाद बढ़ रही है। खेत मज़दूरों की कम मजदूरी उन्हें गैर कृषि क्षेत्रों या शहरों की ओर धकेल रही है। इससे गांवों में एक ऐसे ग्रामीण सर्वहारा तबके का उदय हो रहा है। ग्रामीण जीवन मे विभिन्न जातियों के नवधनाढ्य तबकों के उदय का एक मुख्य लक्ष्य ग्रामीण सर्वहारा की मजदूरी को एक सीमा से न बढ़ने देना रहा है। जिसने एक तनाव की स्थिति पैदा की है जो हिंसक स्वरूप अख्तियार कर लेती रही है। निजी सेनाओं के लगातार उदय को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।


यह भी पढ़ें – साम्प्रदायिकता को उत्प्रेरक के रूप में इस्तेमाल करते हैं राजनीतिक दल


क्या बिहार के नरसंहारों की पृष्ठभूमि में किसानों व खेतमज़दूरों की जो परस्पर निर्भरता थी वह भंग हो जाने का परिणाम था? जिसकी ओर 40 के दशक के प्रारम्भ में अपनी चर्चित पुस्तक ‘खेत मज़दूर’ में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने चेतावनी दी थी ”वर्तमान दशा में किसानों के साथ खेत-मजदूरों द्वारा की गयी लड़ाई सिर्फ कफन खसोटी होगी। यही होगा कि दोनों दल भुक्खड़ों की तरह आपस में कफन के लिए, टुकड़ों के लिए लड़ेगा सही, मगर नतीजा कुछ न होगा।’

इसके लिए उन्होंने उपाय भी सुझाते हुए कहा था ‘जिस प्रकार ग्राह ने गज को करीब-करीब ग्रस ही लिया था ठीक उसी तरह गरीब किसान जो कुछ पैदा करते हैं उसे जमींदार, साहूकार वगैरह ग्रस लेते हैं। उनके पास बचने पाता है कहाँ? और जो बचता भी है वह तो कथमपि गुजर लायक होता ही नहीं। दूसरे उस पर ग्राहों की दृष्टि लगी ही रहती है कि कब कैसे उसे भी हड़पें। यही कारण है कि गरीब किसान अपने मजदूरों को भरपेट खिला सकता नहीं। कारण, खुद भी तो भूखा ही रहता है। इसलिए पहला काम तो यही है कि दोनों ही मिलके इन ग्राहों के पेट से उस पैदावार को बचाएँ। तभी पेट भरने की आशा है। मगर जब तक दोनों बराबर लड़ेंगे और एकमत हो के ग्राहों से न भिड़ेंगे कुछ होने-जाने का नहीं। इसीलिए पारस्परिक समझौता होना जरूरी है। इसीलिए उसी दृष्टि से हमें उनकी मजदूरी का प्रश्न लेना होगा।”

स्वामी सहजानन्द सरस्वती जिन खतरों को भांपने में सफल रहे थे वहीं आगे चलकर नक्सल समूहों ने ‘जाति’ को आधार बनाकर संघर्ष करने की प्रवृत्ति रही। इसने जातीय उभारों व ध्रुवीकरणों को हवा दिया और त्रासद परिणति लक्ष्मणपुर बाथे व सेनारी जैसे नरसंहारों में हुई।

नरसंहारों की तरह नरसंहार के आरोपियों के दोषमुक्त हो जाने का कारण समाज व न्यायपालिका के जातीय चरित्र से अधिक वैश्वीकरण -उदारीकरण-निजीकरण के प्रभाव में नवधनाढ्य तबके के उदय के रूप में देखना चाहिए। इस तबके में पिछड़ी जाति से भी आने वाले लोग बड़ी संख्या में हैं। बल्कि ओबीसी जातियों अनुपात नवधनाढ्यों में सर्वाधिक है। पैसे पर पकड़ में न्यायालय के निर्णयों को भी प्रभावित करने की क्षमता होती है। यदि जातीय चरित्र में इसका कारण होता तो गरीबों-दलितों के नायक माने जाने वाले कम्युनिस्ट विधायक अजीत सरकार में पिछड़ी जाति के आरोपी पप्पू यादव भी साक्ष्य के अभाव में छूट नहीं जाते।

सवर्ण जाति से आने वाले आरोपियों के छूट जाने व पिछड़े-दलित को सजा मिल जाने की व्याख्या को न्यायालय के जातिवादी चरित्र में ढूंढ़ा जाता था। जहाँ सवर्ण आरोपी छूट जाते रहे हैं जबकि अवर्ण अभियुक्त को सज़ा प्राप्त हो जाती रही है। लेकिन इस दफे उल्टा हो गया है। पिछड़ी-दलित जाति के आरोपियों को ठीक उसी प्रकार सन्देह का लाभ मिला जैसा अब तक सवर्ण आरोपियों को मिलता रहा है। जातीय ढाँचे में समस्याओं का समाधान खोजने के बजाए अर्थव्यवस्था में आ रहे परिवर्तनों की रौशनी में ही कई परिघटनाओं को समझा जा सकता है।

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अनीश अंकुर

लेखक संस्कृतिकर्मी व स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क- +919835430548, anish.ankur@gmail.com
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