सामयिक

सुशांत सिंह राजपूत और अमिताभ बच्चन

 

आज राखी है। सुशांत नहीं हैं। बहनें मायूस हैं। अब वे कभी राखी नहीं बाँध पाएंगी। अब वे नहीं इतरा पाएंगी कभी अपने राजकुमार जैसे भाई की मुस्कान पर। सुशांत के घर का नाम गुलशन था। गुलशन से घर – आंगन कितना महकता आज। जो सुशांत की कलाइयों पर राखी का कलावा दमकता। घर खिल उठता।

सुशांत हम सभी को छोड़ कर चला गया। खुद गया या किसी ने भेज दिया? मुंबइया सिनेमा की भाषा में टपका दिया। खलास कर दिया। सच तो यह है कि वह हमें खाली कर गया। अपने चाहने वालों को उदास कर गया। हिन्दी सिनेमा का यह पहला बउआ था, मुंबइया अंदाज में कहें तो छोकरा था, जिसके मरने पर दुनिया जार जार रो रही है। रोए जा रही है। हिचकी बंध गयी है, मगर रुलाई है कि रुक नहीं रही है। अमिताभ बच्चन को कुली के सेट पर जब चोट लगी थी तब लोग ऐसे ही हिल गये थे। सुशांत की मौत से भी लोगों के पाँव तले की जमीन खिसक गयी है। दर्द का ऐसा सैलाब पहले कभी नहीं देखा गया। मौतें तो पहले भी हुई हैं। स्वाभाविक भी और संदिग्ध भी।

सुशांत चीज क्या था? कहते हैं कि बड़ा मस्त था। बिंदास था। जहाँ रहता था गुलजार किए रहता था। अंकिता ने बताया वह राजकुमार था। अपने घर का राजकुमार था। चार बहनों में एक भाई था। बहनें जान छिड़कती थीं। सारा अली खान और श्रद्धा कपूर भी इसकी गवाही देते हुए अपना दर्द नहीं छुपा सकी थीं। सुशांत कुछ ऐसा ही था कि दिल में जगह बना ही लेता था। दिल उसके लिए मानो चांद था। अपने टेलिस्कोप से दिल में झांक लेता था। उतर जाता था। ऐसा कलाकार था वह।

कलाकार मन था उसका। अपने इसी मन की सुनकर वह मुंबई आया था, पढ़ाई अधूरी छोड़ कर। वह ऐसा भी नहीं था, जिसका पढ़ने में मन न लगता हो। बताया गया है वह
पढ़ाई में भी अव्वल था। अव्वल होने की उसमें लगन थी।धुन का इतना पक्का था कि धूनी रमा कर ही बैठ जाता था किसी चरित्र को साधने के लिए। अपने किरदार को जीवन्त बनाने के लिए। धोनी को उसने जैसा चरितार्थ किया, वह बेमिसाल है।

यही अपराध था सुशांत का कि वह अमिताभ बच्चन की खींची लाइन को पार करना चाहता था कदाचित। बोला तो कभी नहीं, लेकिन पालने में ही पूत के पाँव दिख जाने का मुहावरा भी हमने सुना है। वह बिहारी था, मगर बड़बोलापन नहीं था उसमें। वह अपने को साबित करता चलता था। अगर वह अपनी पूरी जवानी और जिंदगी हिन्दी सिनेमा में खपा देता तो वह अमिताभ के बाद एक नया बेंच मार्क बनता। क्या अमिताभ इसे भांप सके थे? राजेश खन्ना को भी लगता था, उनके बाद और कोई नहीं।

सुशांत ने शाहरुख का नाम अवश्य लिया था। कहा था शाहरुख उसकी प्रेरणा हैं। हिन्दी सिनेमा कबड्डी का खेल है। छू कर सही सलामत अपनी सीमा रेखा में लौट आए अगर कबड्डी का कोई खिलाड़ी तो जिसे उसने छुआ होता है, वह मरा हुआ माना जाता है, खेल से बाहर हो जाता है। शाहरुख की खींची लाइन को सुशांत छूता हुआ दिख रहा था, बल्कि छू ही दिया था। उसकी दो हिरोइनें सुशांत के पाले में आ ही गयीं थीं। फिल्मों को दर्शकों ने पसन्द किया था। पैसा खर्च करके प्यार उड़ेला था। शाहरुख जिसके प्रेरणा स्रोत रहे हों, वह कबड्डी के खेल में उन्हें छूकर अपने पाले में सही सलामत वापस आ जाए, यह किसे गंवारा होगा ! शाहरुख और शाहिद ने जिस तरह सुशांत को अवार्ड शो के मंच पर खड़ा करके ह्यूमिलेट किया था, उसकी जरूरत समझ में आती है। आखिर अब अंगूठे से कौन संतोष करता है, गरदन नापने की ख्वाहिश ही स्वाभाविक है।

सुशांत सिंह राजपूत की गर्दन की शोभा ही ऐसी थी कि सबकी नजरें सहज ही वहीं टिक जाती थीं। उसकी सफलता की सारी मणियां उसकी गर्दन पर जड़ी हुईं थीं। ऐसी सफलता तो अमिताभ बच्चन तक को नसीब नहीं हुई थी। आज मसीहा बने अमिताभ बच्चन ने अपने आरंभिक सालों में बारह असफल फिल्में दी थीं। न केवल असफल दी थीं, बल्कि दर्शकों में अपनी कोई ईमेज भी नहीं बना पाए थे। अमिताभ बच्चन का यह दर्द सुशांत की मौत की तुलना में सम्भवतः इतना ज्यादा सघन है कि उनके गले से सुशांत के लिए दो बोल नहीं फूटे! वे नि:शब्द हैं। सौ चुप्पा पर एक चुप्पा अमिताभ बच्चन।

 

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मृत्युंजय श्रीवास्तव

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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