तीसरी घंटी

एकल यानि एक और एक ग्यारह

 

नाटक की दुनिया में एकल कई नामों से जाना जाता है। बोलचाल की भाषा में कोई एकल को ‘एकांत’ कहता है तो कोई ‘मोनोलॉग’, । कोई इसके लिए ‘एकल अभिनय’ शब्द का प्रयोग करता हो कोई ‘मोनो एक्टिंग’। संस्कृत, अंग्रेज़ी और आधुनिक नाटकों में ऐसे दृश्य, संवाद के लिए ‘आत्म कथन’, ‘कथोपकथन’, ‘स्वगत’, ‘स्वयं’, ‘ अपने आप से’ जैसे शब्द उपयोग में देखने को मिल जाता है। जब अभिनेता को अपने अंदर के द्वंद्व को व्यक्त करना होता है तो ख़ुद से संवाद स्थापित करने लगता है। सिनेमा जैसे दूसरे माध्यम में इस तरह के भाव व्यक्त करने के लिए दूसरे कई तकनीक व्यवहृत है।

नाटक में या तो बैकग्राउंड से संवाद बोलने से लाया जा सकता है या मंच पर उपस्थित कलाकार ख़ुद अभिव्यक्त कर। नाटक में इस तरह का दृश्य छोटा होता है, इसलिए यह पूरे नाटक का एक हिस्सा के रूप में होता है। वही जब इस तरह की अभिव्यक्ति विस्तृत रूप में एक अभिनेता के द्वारा होता है तो यह अलग नाम से संबोधित होकर ‘एकल’ कहलाने लगता है। अर्थात् एक अभिनेता के द्वारा पूरी कहानी को कहना या कहने के साथ कर के दिखाना।

  बहुत सारे कलाकार हैं जो कई वर्षों से केवल एकल करते हैं। लकी गुप्ता उन्हीं में से एक हैं जो सालों से देश भर में घूम-घूम कर एकल ‘माँ मुझे टैगोर बना दो’ का मंचन करते हैं। स्कूल, कॉलेज, स्टूडियो थिएटर, किसी की छत पर, बरामदा, खेत-खलिहान में करते रहते हैं। महाराष्ट्र की सुषमा देशपांडे भी सावित्री बाई फुले पर स्वयं की लिखी व निर्देशित एकल ‘मैं हूँ सावित्री बाई’ ज़िंदगी भर एक मिशन के तहत करती रही। वो अकेली इस एकल के साथ देश भर में घूमती रहती थी। कोई उनके साथ नहीं रहता था। लकी गुप्ता भी जहां जाते हैं, अकेले चले जाते हैं। एक बैग कंधे से टंगा होता है। उसी में उनका सारा बोरिया बिस्तर बंधा रहता है। नाटक की प्रॉपर्टी भी उसी में होती है। किसी स्कूल से बुलावा आता है, वे चल देते हैं, अकेले। उनके साथ केवल उनका नाटक होता है, और कोई नहीं। वैसे ही विभा रानी हैं। वो अपना एकल कहीं भी करने को तैयार रहती है। जगह उनके लिए कोई प्रॉब्लम नहीं है। न उन्हें अपने एकल के लिए रंगमंच के अन्य तामझाम। मिल गया तो ठीक, नहीं तो उसके बिना भी वो एकल का मंचन कर लेती है। उन्हें केवल जगह चाहिए और देखने वाले दर्शक। संख्या में दर्शक कितनों हो, उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता। ज़रूरत पड़ने पर विभा रानी अपने ड्राइंग रूम में चंद दर्शकों के बीच कर लेती है। इनका यह प्रयोग आज से नहीं, कई सालों से चल रहा है। ऐसा नहीं है कि लोग इससे नावाक़िफ़ हैं। सब जानते हैं कि विभा रानी छोटे से छोटे और बड़े से बड़े स्पेस में नाटक कर लेती हैं। उनके लिए स्पेस उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि एकल में क्या है, एकल क्या कहना चाहता है, प्रमुख है।

विभा रानी करने के लिए एकल नहीं करती है। उनका एक उद्देश्य है। उनके एकल का एक सामाजिक सरोकार है। इसलिए जब वो अपने एकल के साथ चलती हैं तो एक नहीं होती हैं। एक और एक उनका नाटक मिल कर ग्यारह हो जाते हैं। एक बड़ी संख्या बन जाती है। जमात का रूप अख़्तियार कर लेती है।

     फिर भी लोग अड़ंगा लगाने से बाज नहीं आते। कहते हैं कि एकल कोई विधा है? इसे नाटक नहीं कहा जा सकता है। ऐसे लोगों की कमी नहीं जो यह करते हुए मिल जायेंगे कि नाटक एकल की नहीं, समूह की विधा है। और ये एकल यहाँ का थोड़े है? आयातित अवधारणा है, पाश्चात्य देशों से आया है। हम इसे क्यों करें, क्यों इसे मान्यता दे। हमारे रंगमंच की परंपरा में तो है नहीं, फिर इसे क्यों ढोते चले?

     ढाई हज़ार वर्ष पहले का वह दृश्य भला कोई कैसे भूल सकता है जब प्रथम ग्रीक अभिनेता थेसपिस एक टेबल पर पड़ा है। उसके सामने है कोरस दल। कोरस दल का नेता थेसपिस की ओर मुड़ता है। उसकी थेसपिस से कुछ बातें होती हैं और उसी मुहूर्त नाटक का जन्म होता है।

    आज हमारे बीच थेसपिस तो नहीं हैं, लेकिन उस ग्रीक अभिनेता का संदर्भ लेकर एकल के बारे में कुछ कहना चाहें तो कोई न कोई सिरा तो हमारे पास है। अगर इसी सिरा को पकड़ कर चले तो किसी न किसी परिणाम पर आ ही सकते हैं। जैसा कि सुनने में आता है, थेसपिस पहले एक बैलगाड़ी लेकर चलता था। बैलगाड़ी में उसके नाटक की सामग्रियों भरी रहती थी। उसके पास ढेर सारे मुखौटे होते थे जिसका वह विभिन्न चरित्रों के लिए किया करता था। जब भी एक चरित्र से दूसरे चरित्र में ख़ुद को रूपांतरित करता होता था, संवादों के साथ मुखौटों का भी समुचित इस्तेमाल करता था। वह अपनी बैलगाड़ी को ख़ुद ही एक जगह से दूसरी जगह ख़ुद खींच कर ले जाता था। बाज़ार में जहां भीड़ होती थी, कोई जगह मिल जाती थी तो किनारे बैलगाड़ी खड़ी कर देता था। उस पर चढ़ कर कुछ बोलने लगता था। बोलने के साथ-साथ कोई कहानी सुनाने लगता था या किसी घटना को हाव-भाव के साथ, हाथों के संचालन से, आवाज़ के उतर-चढ़ाव के साथ नाटकीय ढंग से प्रस्तुत करने लगता था। लोग आवाज़ सुन कर, हाव -भाव देख कर उसकी तरफ़ खींचे चले आते थे। जिस तरह से किसी कहानी को अकेले नाटकीय ढंग से प्रस्तुत करता था, लोगों को रोचक लगता था। जब एक जगह पूरा हो जाता था तो बैलगाड़ी को लेकर दूसरी जगह के लिए प्रस्थान हो जाता था। अन्यत्र जगह में किसी और प्रदर्शन की तैयारी के लिये।

एकल यानि एक और एक ग्यारह

       जिन्होंने एकल नहीं देखा है या जो उसकी परंपरा से भलीभाँति परिचित नहीं हैं, उनके दिमाग में एकल को लेकर कई तरह की अवधारणाएँ बैठी होती है। कोई एकल का अर्थ 4-5 मिनट का कोई संवाद बोल देने को समझता है या कोई लोकप्रिय नेता-अभिनेता की नकल उतारने को। वे मिमिक्री को भी एकल मानने की भूल कर बैठते हैं। एकल की अवधि को लेकर संशय में रहते हैं कि 5-10 मिनट से अधिक होने पर दर्शक देख नहीं पायेंगे, अधीर होकर चले जाएँगे। दर्शकों को सामने लाकर शायद अपनी निर्बलता को छुपाना चाहते हैं। इसलिए एकल को समय के एक निर्धारित खाँचे में बांध कर सीमित करना चाहते हैं। दूसरी तरफ़ ऐसे भी एकल देखने को मिलते है जो पूर्णकालिक नाटकों की तरह घंटे-डेढ़ घंटे की अवधि वाले होते हैं। आशीष विद्यार्थी का ‘दयाशंकर की डायरी’, सरिता जोशी का ‘सकूबाई’, राजेश कुमार का ‘मूकनायक’ जैसे कई एकल हैं जो मंच पर सफलता पूर्वक हो रहे हैं। ये 5-10 मिनट की अवधि वाले एकल नहीं है, अपितु घंटे-डेढ़ घंटे के हैं।

   भारतीय नाट्य परंपरा में कथावाचन का एक उत्कृष्ट उदाहरण बाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड के चौरानबेवाँ सर्ग में मिलता है। उसमें लव और कुश राम के दरबार में बाल्मीकि मुनि की उपस्थिति में रामायण को गाकर-बजा कर प्रस्तुत कर रहे हैं। पूरी कथा या कथा अंश को वाचन और गायन शैली में इस तरह प्रस्तुत कर रहे हैं कि वहाँ राम दरबार में उपस्थित लोगों के आँखों के सामने सारा दृश्य जीवंत हो गया हो। संस्कृत के नाटककार भवभूति की कालजयी और समसामयिक नाटक ‘उत्तररामचरित’ में भी इस प्रसंग को सशक्त ढंग से चित्रित किया गया है। उसमें लिखा गया है कि राम अपने सम्मुख अपनी ही कथा का जीवंत अभिनय देख कर इतने भाव विह्वल हो जाते हैं कि देखते-देखते मूर्छित हो जाते हैं। तात्पर्य कि एकल हो या कथावाचन, अपने आप में एक महत्वपूर्ण और संपूर्ण विधा है। इस पर किसी तरह की दया दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं है। न इस विधा को किसी पूर्वाग्रह से ख़ारिज किया जा सकता है। इस बिंदु पर केंद्रित करना चाहिए कि यह अपना उद्देश्य पूर्ण करने में सफल है कि नहीं?

    लोक कलाकारों में तो यह क्षमता बरसों से है। शास्त्रीय व अभिजात्य रंगमंच में भले कम हो, लोक में यह शुरुआत से ही व्याप्त है।  लोक में कई शैलियाँ हैं जिसमें कलाकार मंच पर अकेला होता है और पूरा प्रदर्शन कर देता है। बिहार, उत्तर प्रदेश के अलावा अन्य हिन्दी प्रदेशों में ‘बहरूपिया’ जो लोक प्रदर्शन शैली है, आज भी किसी न कई रूप में समाज के निम्न वर्ग में ज़िंदा है। उपेक्षित समाज के श्रमशील कलाकार गाँवों में तरह-तरह के वेष धरकर किसी सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों को घूम-घूम कर लोगों के बीच मनोरंजक-लोकप्रिय ढंग से रखने की कोशिश करते हैं। ये भी एक प्रकार का एकल है, या एकल के समदृश्य है, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है। इसी तरह का एक उदाहरण मध्य प्रदेश में की लोक शैली पंडवानी में देखने को मिलती है। पंडवानी एक लोक गायन शैली है। तीजन बाईं इस शैली की एक बहुत बड़ी कलाकार है।

तीजन बाई

तीजन बाई के एक हाथ में एक लोक वाद्य होता है और दूसरे हाथ से महाभारत के पाण्डवों की जो कहानी सुनाती है , हाव-भाव प्रकट करती है। वाद्य यंत्र को कभी भीम का गदा बना लेती है तो कभी हाथ की उँगली को नचा कर कृष्ण का चक्र। मंच पर वह अकेले होती है। उनके पीछे पार्श्व में चार-पाँच गायन-वादन का कोरस होता है। वे पार्श्व से तीजन बाई की कथा में समय-समय पर हुंकार भरते रहते हैं। कभी तीजन बाई की पंक्ति को दुहराते रहते है तो कभी कथा की निरंतरता को तोड़ कर दर्शकों से सीधे संवाद करने लगते हैं। जैसे एकल में कलाकार अभिनय करते-करते अक्सर अपने चरित्र से बाहर आ जाता है और सामने बैठे दर्शकों से उस पर प्रतिक्रिया लेने लगता है। उन्हें कथा के सम्मोहन से बाहर लाकर कुछ सोचने की दिशा में एक्टिवेट करने का प्रयास करता है। अगर ढूँढने का प्रयास करे तो इस तरह की शैली देश भर के कई राज्यों में देखने को मिल जाएगा। राजस्थान में ‘ बातपोश’, ‘ पाबू जी का पड़’ गुजरात में ‘ आख्यान शैली’ और बुंदेलखंड में ‘आल्हा-उदल’ , ये कुछ ऐसी लोक शैलियाँ हैं जिसमें एकल के सारे तत्व सालों से विद्यमान हैं। जो लोग एकल को पाश्चात्य अवधारणा का रूप मानते हैं, वे अगर यहाँ की मिट्टी में फलने-फूलने वाली लोक शैलियों में जड़ ढूँढने की कोशिश करें तो शायद उन्हें निराशा हाथ नहीं आएगी।

    इन दिनों पूर्णकालिक नाटकों में से किसी अंश को मंच पर एकल के रूप में करने का भी खूब प्रचलन है। शेक्सपियर के नाटकों में से किसी एक किरदार को चुन कर उसके मंचन की चर्चा होती रहती है। पिछले दिनों शायलॉक, लेडी मैकबेथ, हैमलेट जैसे शेक्सपियर के नाटकों के पात्रों पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एकल रूप में प्रस्तुत किए गए। उसी तरह हिन्दी में धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधा युग’ के मुख्य पात्र ‘ अश्वत्थामा’ को भी कई अभिनेताओं ने एकल के रूप में किया। इसके विपरीत कई पूर्णकालिक नाटक हैं जिसमें कई जगहों पर एकल का प्रभाव देखने को मिलता है। कई संस्कृत नाटक हैं जिसमें किसी पात्र का संवाद या अंगिक अभिनय में एकल का आभास नज़र आता है। कालिदास के नाटक ‘विक्रमोर्वशीयम’ के चौथे अंक में नायक पुरुरवा का पंद्रह-बीस पृष्ठों का एक लंबा एकालाप है। उसी तरह शूद्रक लिखित ‘मृच्छकटिकम’ नाटक में भी एक ऐसा ही प्रसंग है जब विदूषक चारुदत का संदेश लेकर बसन्तसेना के घर जाता है। वहाँ जाने के बाद विदूषक वहाँ के विभिन्न कक्षों, उसकी साज-सज्जा का शब्दों से वर्णन करता है कि दर्शकों के सामने कोई मंच सज्जा न होने के बावजूद आभास हो जाता है। उन्हें विदूषक के संवाद और हाव भाव से वहाँ का दृश्य उनके सामने उपस्थित हो जाता है। विशाख दत्त के नाटक ‘मुद्रराक्षस’ में कई दृश्यों में चाणक्य के लंबे-लंबे एकालाप हैं जो व्यावहारिक रूप में एकल का आभास दिलाते हैं। पाश्चात्य नाटकों में तो लंबे-लंबे सोलोलॉकी की वैसे भी परंपरा रही है। शेक्सपियर के नाटक ‘मेकबेथ’ में जगह-जगह लेडी मैक़बेथ के जो सोलोलॉकी हैं, उनके अन्तर्द्वन्द्व को उत्कृष्ट ढंग से उभार पाने में सफल सिद्ध होते हैं। इसी तरह के अंश धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’, और मोहन राकेश के ‘ आषाढ़ का एक दिन’ में भी देखने को मिलता है। स्वदेश दीपक का बहुचर्चित नाटक का प्रारंभ ही कर्नल सूरत सिंह के सोलोलॉकी से होता है। और यह एकलनुमा संवाद नाटक के लिए ज़बरदस्त आधार तैयार कर देता है।

    पहले की परंपरा आज भी किसी न किसी रूप में चलती चली आ रही है। छठे-सातवें दशक में मराठी के प्रसिद्ध नाटककार पु० ल० देशपांडे ने अपनी एकल प्रस्तुतियों से महाराष्ट्र तथा अगल-बग़ल के राज्यों में इस विधा को बहुत लोकप्रिय बनाया था और इस नाट्य परंपरा को समृद्ध किया था। सातवें दशक में तृप्ति मित्रा द्वारा किया गया एकल ‘अपराजिता’ आज भी लोगों की स्मृति में जीवित है। पिछले कई वर्षों से रोहिणी हट्टंगड़ी कस्तूरबा की जीवनी को एकल रूप में जगह-जगह कर रही है। कई राष्ट्रीय स्तर के नाट्य महोत्सवों में इनकी प्रस्तुतियाँ हुई हैं। नादिर बब्बर द्वारा लिखित और निर्देशित एकल ‘दयाराम की डायरी’ और ‘सकूबाई’ का मंचन आज भी आशीष विद्यार्थी और सरिता जोशी कहीं न कहीं करते रहे हैं।

नसीरुद्दीन शाह रत्ना पाठक

नसीरुद्दीन शाह और रत्ना पाठक शाह तो सालों से मंटो, प्रेमचंद और इस्मत चुगताई की कहानियों का एकल मंचन करते आ रहे हैं। पिछले दिनों बजरंग बली सिंह ने राजेश कुमार का अंबेडकर पर लिखा गया एकल ‘मूकनायक’ का अरविंद गौड़ के निर्देशन में किया था। यह अंबेडकर के जीवन संघर्ष और उनके द्वारा अंतिम दिनों में धर्मांतरण लेने के निर्णय को लेकर था। बजरंग बली सिंह के सशक्त अभिनय के कारण रंग जगत में या एकल काफ़ी दिनों तक चर्चा में रहा। उसी तरह पटना के वरिष्ठ रंगकर्मी जावेद अख़्तर खाँ द्वारा अभिनीत नंदकिशोर आचार्य लिखित एकल ‘बापू’ का मंचन कई जगहों पर हुआ और दर्शकों द्वारा काफ़ी पसंद किया गया। ऐसा नहीं कि एकल के मंचन केवल महानगरों तक सीमित हैं, इसकी अनुगूँज अब छोटे शहरों तक पहुँच गई है। देहरादून के अखिलेश नारायण, शाहजहांपुर के मनीष मुनि, शमीम आज़ाद और कृष्ण कुमार श्रीवास्तव जैसे अभिनेता सालों से एकल अभिनय कर के इस रंग आंदोलन में कुछ न कुछ जोड़ ही रहे हैं।

    अब तो इसमें कोई संदेह ही नहीं रहा कि एकल को पश्चिमी ज़मीन से उपजी नाट्य विधा मान कर पल्ला झाड़ दिया जाए। ज़रूरत है इसे अपनी परंपरा का एक हिस्सा मान कर सींचे। इसे विकसित करें ताकि एकल जन-जन से जुड़ कर अपना एक नया सौंदर्य शास्त्र खड़ा कर सके

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राजेश कुमार

लेखक भारतीय रंगमंच को संघर्ष के मोर्चे पर लाने वाले अभिनेता, निर्देशक और नाटककार हैं। सम्पर्क +919453737307, rajeshkr1101@gmail.com
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