दलित रंगमंच पर गुस्सा क्यों
पिछले कुछ दिनों या वर्षों से जब भी कोई सोशल मीडिया पर ‘दलित रंगमंच’ की चर्चा छेड़ देता है तो पता नहीं रंगकर्मियों की एक बड़ी सी भीड़ न जाने कहाँ-कहाँ से अचानक भरभराकर निकलती है और उस पर सामूहिक रूप से टूट पड़ती है। चर्चा करने वाले कि हालत बिल्कुल उस आदमी की तरह हो जाती है जिसे आजकल आये दिन चारों तरफ से घेरकर लात-जूते-चप्पल से मारने लगते हैं। तकनीकी व राजनीतिक शब्दावली में कहें तो उसकी मॉब लिंचिंग होने लगती है।
बिहार में पटना के बाद बेगूसराय रंगमंच और राजनीति के क्षेत्र में सबसे सक्रिय शहर है। यहाँ विजय कुमार एक रंगकर्मी हैं जो पहले वंशी कौल के रिपर्टरी ‘रंग विदूषक’ में काम करते थे। वहाँ से लौटने के बाद इनदिनों अपने शहर में सक्रिय हैं। अभी कुछ माह पूर्व, 29 मई 20 को फेसबुक पर एक छोटा सा पोस्ट डाला, ‘ बहुत जल्द बहुजन समाज का भी होगा रंगमंच-कुछ अलग …थियेटर ऑफ शुद्रा.’
उपरोक्त कथन के सन्दर्भ में उसी शहर के एमपीएसडी से प्रशिक्षण प्राप्त हरि किशोर ठाकुर का 5 अगस्त को एक दिन भूले-भटके, कहीं से फेसबुक पर पोस्ट आ गया, ‘आप रंगकर्मी बताइए एक … पत्रकार बोलते हैं कि दलितों का रंगमंच होना चाहिए, क्या ये सही है?’ उस पोस्ट को लगे हाथ दीपक सिन्हा ने शेयर कर दिया। और उनके शेयर किए गए पोस्ट पर जिस तरह के कमेंट्स आने लगे, मेरे नोटिफिकेशन में आ-आकर दस्तक देने लगे … मुझे पढ़ने के लिए विवश कर दिया। दीपक सिन्हा के वॉल पर जो 8 कमेंट्स आये थे, बात वहीं से शुरू करता हूँ, फिर अंदर जाकर हरि किशोर ठाकुर के वॉल पर लाइक्स (39) से ज्यादा आये कमेंट्स (63) के सार तत्वों पर चर्चा करूंगा।
पहले मुझे भी लगा था कि इस छोटे से पोस्ट पर आए ढेर सारे कमेंट्स को तवज्जो देने की जरूरत नहीं है। लेकिन कमेंट्स के पीछे जो मंशा थी, उसने मुझे तह में जाने के लिए विवश किया। दलित रंगमंच के विरोध में सामूहिक रूप से अगर एक ही स्वर निकल रहा है तो आखिर उसका उत्स क्या है? दक्षिणपंथियों के विरोध का तो लॉजिक समझ में आता है, मगर वामपंथी धारा के रंगकर्मी भी अगर विरोध की आक्रमक मुद्रा में हैं तो उसके पीछे कौन सा तर्क है? कौन सा दर्शन है जिसपर दोनों ध्रुव एक हैं।
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हरि किशोर ठाकुर ने विजय कुमार के पोस्ट को आधार बनाकर जब दलित रंगमंच पर सवाल किया और दीपक सिन्हा ने जब उसे शेयर किया तो प्रतिक्रिया में पहला कमेंट रवींद्र भारती का आया। रवींद्र भारती आरा में रंगकर्म करते हैं। वे लिखते हैं कि ‘ अब रंगमंच में जाति वर्ग की बात कौन कर रहा है? सरेआम सजा मिलनी चाहिए। एक वही स्थान बचा है, क्या उसे भी रक्तरंजित करना चाहते हैं?’ उसका जवाब दीपक सिन्हा देते हैं कि ‘बेगूसराय में एक महानुभाव लाइव में आकर बोल रहे हैं।’ उचित ये होता कि रवींद्र भारती के सवाल का जवाब दीपक सिन्हा तार्किक ढंग से दे कर बताते कि विजय कुमार ने दलित रंगमंच की जो बात की है, जाति की नहीं की है लेकिन उन्होंने उसे व्यक्तिगत बना दिया।
इतना सुनना था कि रवींद्र भारती का गुस्सा जैसे आसमान छू गया हो। विजय कुमार पर बिफर पड़ते हैं। अपना गुस्सा इन शब्दों में इजहार करते हैं, ‘ जिंदा रहने की लालसा खत्म हो गयी है उनकी? एक नाटक करेंगे। एक खून माफ। बस काफी है उनके लिए।’ रंगकर्मी दीपक सिन्हा फिर रवींद्र भारती को इनके हल्के और डरावने वाले शब्दों का काउंटर नहीं करते हैं, बल्कि इस रूप में जवाब देते हैं, ‘हा हा’। इतना इशारा बाकी रंगकर्मियों के लिए काफी था। सब भरभरा कर मॉब लिंचिंग के लिए टूट पड़े। सारे तो नहीं कुछ बानगियाँ आपके सम्मुख रख रहा हूँ। गजेंद्र यादव जिनका फेसबुक प्रोफाइल देखने से पता चलता है कि बेगूसराय के सक्रिय रंगकर्मी हैं, लिख मारते हैं, ‘जो कलाकारों में जाति भेद करने की कोशिश कर रहे हैं, उसे जूता से पीटना चाहिए।’ नहले पर दहला आरा की एक महिला रंगकर्मी ने मारा। उसने दलित रंगमंच की बात करने वाले को बेहूदा कहा और लिखा कि ‘ऐसे लोगो को तो अच्छे से समझना चाहिए।’
अन्य साठ-सत्तर रंगकर्मियों के जो कमेंट्स थे, उनके लब्बेलुआब लगभग एक ही जैसे थे। जैसे कि चैतन्य निर्भय का कहना है कि ‘रंगमंच में कलाकार होते हैं एवं कलाकार की कोई जाति नहीं होती।’ इसी तरह की बात सुशील कुमार करते हैं, ‘रंगमंच ऐसी कला है जहाँ कोई जातिवाद नहीं होती। यहाँ सिर्फ कला दिखता है। तो किसी जाति और समुदाय के बारे में सोचना ही गलत है।’ रंगकर्मी गीता गुहा ने कहा , ‘रंगमंच अगर जात-पात करने लगे तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। भरतमुनि का नाट्यशास्त्र पढ़िए।’ रंगकर्मी-नाटककार अवधेश कुमार ने तो गहरी चिन्ता प्रकट की, ‘जातिवादी लोग हर चीज में जातिवाद करके समाज को दूषित करते रहते हैं। उनका सोच गिरा हुआ है।’
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इन्हीं में बेगूसराय के एक रंगकर्मी अमरेश कुमार अमन भी हैं जिन्होंने ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय से नाटक में एमए किया है, नाराज होकर कई तीखे कमेंट्स लिखे हैं। जैसे कि ,’रंगमंच किसी खास समुदाय का होना असंभव है। और इसे खण्डित करने को, सोचने वाले नीच प्राणी चाहे जो हो उन्हें डूब मरना चाहिए। हद है यार, ऐसी नीच सोच रखने वाले प्राणी सच में किसी घटिया राजनीतिक पार्टी से जुड़ा लोग है जो रंगमंच को तोड़ने की साज़िश कर रहा है। पता नहीं यार, रंगकर्मी से ही ईर्ष्या क्यों है इनको? खटे बैल हपसे कुत्ता।’ सन्नी शिकारपुरी भट्ट ने तो भाषा की सब सीमा ही तोड़ दी है। लिखा है, ‘उनसे बोलिये की सब जाति के लोग मुँह से खाते हैं, वो कुछ और से खा के दिखाए।’
संविधान में सबको अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मिली हुई है। हर को अपनी बात कहने का अधिकार है। अगर संवैधानिक आधार पर कोई अपनी बात किसी प्लेटफार्म पर रखता है, चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक या सांस्कृतिक ही क्यों न हो … उसको रोकना, मुँह बन्द कर देना या गाली-गलौज कर चुप करा देना, किसी भी लोकतन्त्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। उससे असहमति हो तो उसका भी रास्ता है। वैचारिक स्तर पर विरोध करिए, कौन मना कर रहा है? अगर स्थापना में कोई दोष दिख रहा है तो तर्क का सहारा लेकर खण्डित करिए। दूध का दूध, पानी का पानी अलग हो जाएगा। फतवे से तो कोई समाधान नहीं निकलनेवाला। और यहाँ तो ऊंची-नीची कई अदालतें हैं। लोअर नहीं तो हाई कोर्ट, कहीं न कहीं तो सुनवाई होगी ही। फैसला आ ही जायेगा। यह राम राज्य नहीं है कि ब्राह्मणों ने कहा कि ब्राह्मण बालक की मृत्यु का कारण शम्बूक की तपस्या है तो चल पड़े राम शम्बूक की हत्या करने। न लोकतन्त्र मनुस्मृति के गाइड लाइन से चलता है कि दलित अगर श्लोक का उच्चारण कर ले तो जीभ काटने के लिए दौड़ पड़े।
दलित रंगमंच की बात करनेवाले रंगकर्मी पर जो लोग रंगमंच को खण्डित करने का आरोप लगा रहे हैं, उससे सवाल कर रहे हैं कि थिएटर केवल थिएटर होता है, उन्होंने कभी उसी शहर के ‘लेफ्ट थिएटर’ वालों से पूछा है कि जब थिएटर थिएटर होता है ये लेफ्ट थिएटर क्या है और राइट थिएटर क्या है?
गाली देनेवाला जमाना गया। वोट से जब लोग सरकार बदल दे रहे हैं तो नाटक कौन सी चीज है? और नाटक पर तो वैसे भी सदियों से दलितों का कॉपीराइट है। आप कहेंगे, कैसे? तो उनका कहना है, ब्रह्मा ने पांचवां वेद जिसे आप नाट्यशास्त्र कहते हैं, लिखा ही है शूद्रों के लिए। उन शूद्रों के लिए जिनके लिए शास्त्र पढ़ना-लिखना निषिद्ध था। देवताओं के आग्रह पर नाट्यशास्त्र लिखा तो गया, लेकिन ऋषियों-ब्राह्मणों को पच थोड़े रहा था। उन्हें कैसे बर्दाश्त होता कि शूद्रों को लिखने-पढ़ने-रचने की स्वतन्त्रता मिले? इसलिए उन्होंने पहला काम तो ये किया कि इंद्र को मोहरा बना कर इन्द्रध्वज महोत्सव के अवसर पर होनेवाली नाट्य प्रस्तुति के समय असुरों द्वारा आपत्ति जताने पर मंच पर ही उनका वध कर दिया गया और उनके प्रवेश पर रोक लगाने के लिए नाटक को खुले मैदान से बन्द-घिरे नाट्यशाला में सीमित कर दिया। यानी कि नाटक को दो भागों में बांट दिया। एक भाग अभिजन के लिए और दूसरा लोक के लिए। पूरी आबादी का 15 और 85 प्रतिशत में विभाजन।
आज जो सवाल उठा रहे हैं कि दलित रंगमंच का राग अलापने वाले रंगमंच में जातिवाद लाकर रंगमंच को तोड़ रहे हैं, उनको ये हवाला देकर पूछा जाना चाहिए कि पहले किसने रंगमंच को तोड़ा? किसने सुर और असुर के बीच दीवार खड़ी की? असुरों ने तो अपने लिए कोई नाट्यशाला का निर्माण नहीं किया? रंगमंच को विभाजित करने का सिलसिला अगर यहीं पर थम जाता तो कोई गनीमत थी। उन्होंने जो नाट्यशाला बनवाई, उसको भी वर्णों में बांट दिया। आगे की पंक्तियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, उसके पीछे वैश्य और सबसे पीछे शूद्र वर्ण के लोगों का स्थान निर्धारित कर दिया। वर्ण की श्रेष्ठता के आधार पर दर्शकों के स्थान का निर्धारण किसने किया? शूद्रों ने तो किया नही होगा? फिर व्यर्थ का दोषारोपण दलितों पर क्यों ?
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अब आपका ध्यान नाट्यशास्त्र के छत्तीसवां अध्याय के नाटयावतरण की तरफ ले जाना चाहता हूं जो यह स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है कि रंगमंच में जातिवाद का प्रसार-प्रचार कौन कर रहा है? भरतमुनि लिखते हैं कि उनके सौ पुत्र ( शिष्य भी हो सकते हैं ) नाट्यवेद सीखकर अपने प्रहसनों के प्रयोग से लोक को व्यथित करने लगे। ( प्रहसन से भला कोई व्यथित कैसे हो सकता है? ) कुछ समय बाद उन्होंने ग्राम्य धर्म से युक्त शिल्पक का प्रयोग किया जिसमें ऋषियों पर सामूहिक रूप से व्यंग्य था। उन्होंने वह आश्रव्य, दुराचार से युक्त, ग्रामयधर्म से प्रवर्तित, निष्ठुर और अप्रासंगिक काव्य समाज के आगे प्रस्तुत कर दिया। ( प्रहसन और लोक कला के बारे में भरतमुनि की धारणा गौरतलब है )उसे सुनकर रोष से कांपते हुए, आग की भांति जलते हुए मुनियों ने क्रुद्ध होकर उन भरतपुत्रों से कहा-‘हे द्विजों, तुम लोगों ने हमारी यह हास्यास्पद नकल करके ठीक नहीं किया। यह अपमान हमें स्वीकार नहीं है। चूंकि तुमलोग ज्ञान के मद से मतवाले होकर ढीठ हो गए हो अतः तुमलोगो का यह कुज्ञान नष्ट हो जाएगा। ऋषियों और ब्राह्मणों के समवाय में तुमलोगों के लिये आहुति नहीं दी जाएगी तथा तुमलोग शूद्रों के समान आचार वाले हो जाओगे।’
उग्र तेज वाले मुनियों के ये वचन सुनकर शिष्य दुखी होकर भरतमुनि के पास आये और नाट्यदोष के कारण शूद्र होने की व्यथा सुनाई।
अर्थात नाटक करना शूद्र कर्म है। देखा जाय तो कोई गलत भी नहीं है। ऋषियों ने कलाकारों को यूँहि शूद्र नहीं कहा है। उनदिनों कर्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता था। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिये श्रम निम्न कोटि का कार्य समझा जाता था। जो श्रम करता था, मसलन खेती करना, जानवर चराना, सफाई का कार्य करना, उसे शूद्र की श्रेणी में रखा जाता था। नाटक का तो सीधा संबंध श्रम से है। शारीरिक व्यायाम करना, नृत्य करना, मंच सज्जा … सबमें श्रम जुड़ा है। यहाँ तक कि कलाकारों का वस्त्र निर्माण करना, आंगिक अभिनय की तैयारी करना … सबमें श्रम प्रमुख है।
इसलिए जो लोग दलित रंगमंच का सवाल उठाने वालों को जाति फैलाने का दोष मढ़ रहे हैं, उन्हें पहले अपने परम आदरणीय उच्च वर्ण में जन्मे ऋषियों, ब्राह्मणों पर उंगली उठानी होगी। कठघरे में खड़ा करके उनसे पूछना होगा कि जिस रंगमंच को ब्रह्मा ने जन्मा, उस कर्म को शूद्रकर्म बताने वाले वे होते कौन हैं?
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बहुजन जो पूरी आबादी का 85 प्रतिशत हैं, अपने लिए अगर ‘शूद्र का रंगमंच’ मांगता है तो इसमें गलत क्या है? अगर शोषित-पीड़ित, हाशिये का समाज अपने लिए ‘दलित रंगमंच’ का प्लेटफार्म खड़ा करना चाहता है तो किसी दूसरे को परेशानी क्यों हो रही है? एक से ज्यादा तरह के रंगमंच के आने में क्या परेशानी है? माओ ने तो कहा था, ‘सौ फूलों को खिलने दो, सौ विचारों को आने दो।’ केवल एक फूल के खिलने की इजाजत देने वाला उसी मानसिकता का होता है जो इन दिनों एक राष्ट्र की बात करता है। एक धर्म, एक भाषा, एक जाति पर जोर देता है। ऐसे लोगों के विचार का उत्स वह दर्शन है जो असमानता, गैरबराबरी के धरातल पर टिका है जिसे रूढ़ धर्म न जाने कितनी सदियों से से पालती-पोसती रही है।
और जो रंगकर्मी व्यावहारिक जीवन में जाति संस्कार में विश्वास करते हैं, वर्णाश्रम के कर्मकांड में आकंठ तक लिप्त होते हैं, वही इसे यथावत रखना चाहते हैं। जब कहते हैं कि रंगमंच में कोई जात-पात नहीं है, तो उनके दोहरे चरित्र पर न हंसी आती है अपितु वैचारिक दारिद्र्य पर तरस भी आता है।
दलित तो समाज में आज भी जाति के स्तर पर रोज अस्पृश्यता का शिकार होता है। इससे इतर पिछड़ा वर्ग का जो समाज है, उसकी भी कोई विशेष सामाजिक हैसियत नहीं बन सकी है। किसी न स्तर पर, इनका भी जातिगत स्तर पर उच्च जाति द्वारा निरंतर शोषण होता रहा है। लेकिन ब्राह्मणवादी मानसिकता के मकड़जाल में फंस जाने के कारण एक भ्रमजाल का शिकार है। जब कि यथार्थ यह है कि चाहे वे अपने को निम्न जाति से ऊपर क्यों न मान ले, सवर्ण की नजर में उनका स्थान शूद्र समान ही होता है।
और जो लोग कह रहे है कि रंगमंच में जात-पात नहीं है, क्या सच है? समाज में तो जात-पात है। क्या रंगमंच समाज से अलग है? क्या रंगमंच का अपना अलग समाज होता है? अगर है तो वैदिक धर्म जिसकी नींव ही वर्ण व्यवस्था पर टिकी है, उसकी रीति-रिवाज, विधि-विधान से रंगमंच अलग हो पाया है? जो कलाकार इस गफलत में जी रहे हैं कि रंगमंच में कोई जाति नही होती, क्या इस धारणा को व्यवहारिक जीवन में लागू करने की सहमति देते हैं? अगर इस विचार पर दृढ़ हैं फिर तो दलित रंगमंच का तो मकसद है वो तो पूर्ण हो गया। दलित रंगमंच किसी व्यक्ति की परिकल्पना नहीं है। बुद्ध-कबीर-रैदास-फुले और अम्बेडकर के दर्शन और विचार से निकला हुआ है। और ‘दलित रंगमंच’ का उद्देश्य रंगमंच में जात-पात फैलाना कदापि नहीं है। बल्कि जात-पात मिटा कर वर्ण विहीन समाज की स्थापना करना है। ऐसे समाज का निर्माण करना है, जहां समाज के सब लोग बराबर हो, वर्ण-जाति के आधार पर उच्च-नीच का कोई भेद-भाव न हो।
रंगमंच पर जाति का जो संक्रमण है, उसे खाद-पानी देने के बजाय खत्म करना ही दलित रंगमंच का उद्देश्य है।
रंगमंच के प्रतिरोध की धारा को रोकनेवाले को दलित रंगमंच पर लेशमात्र भी डाउट है कि यह रंगमंच की दुनिया को मलीन कर देगा तो अपने इलाके के उस मिरदंगिया के दिल को टटोलने की जरूरत है जिसने परमानपुर के एक ब्राह्मण के लड़के को प्यार से ‘बेटा’ कह दिया था तो गांव के लड़के उसे घेरकर मारने-पीटने को तैयार हो गए थे। जोधन गुरुजी से जात छिपाकर मृदंग बजाने का गुर तो सीख लिया लेकिन उनकी बेटी रमपतिया के प्रेम में अपनी जात को छिपा न सका। कमलपुर के नंदू बाबू जैसे लोग आज भी तो बेगूसराय, बरौनी, समस्तीपुर, पूर्णिया में हैं जो मिरदंगिया जैसे निम्न तबके के कलाकारों का न केवल प्रेम छीन रहे हैं, बल्कि उसके गायन पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहे हैं। उनकी पूरी परंपरा पर अनर्गल आरोप लगाकर सरेआम जलील करने के फेरे में है।
लेकिन ऐसा संभव नहीं है क्योंकि मिरदंगिया के साथ लोक है। उस पर किसी के गुस्सा का कोई फर्क नहीं पडनेवाला। जो उसका सपना है, एक दिन पूरा होकर रहेगा।
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