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गहरे अर्थों वाली थोड़ी हल्की ‘शॉर्टकट’
निर्देशक – रोहित कुमार, बिक्रम सिंह
कलाकार – आकाश डे, बिक्रम सिंह, विशा पराशर, राजा अंसारी आदि
कहानी, स्क्रीनप्ले, डायलॉग – बिक्रम सिंह
रिलीजिंग प्लेटफॉर्म – एमएक्स प्लेयर एवं हंगामा
महामारी के चलते ओटीटी प्लेटफॉर्म पर कई छोटी-बड़ी फिल्में लगातार रिलीज़ हो रही हैं। जिनमें कई अच्छी हैं तो कई थोड़ा हल्की तो कई बिल्कुल नजरअंदाज करने वाली। हालांकि जो नजरअंदाज करने योग्य फिल्में हैं वे भले ही फ़िल्म समीक्षकों द्वारा सराही न जा रही हों लेकिन भद्दे, अश्लील और कामुक दृश्यों के चलते खूब देखी गई हैं। इधर शॉर्टकट नाम से एक शॉर्ट फिल्म भी आई है। जिसके अर्थ तो गहरे हैं लेकिन कुछ मामलों में यह हल्की भी नजर आती है।
कहानी है ऐसे युवाओं की जो सरकारी नौकरी का फॉर्म तो भर देते हैं लेकिन इसी बीच उन्हें एक आदमी मिलता है जो कुछ रुपए लेकर उन्हें नौकरी दिलाने का वादा करता है। अपनी बात का भरोसा दिलाने के लिए वह किसी मंत्री से बात भी करवाता है। हालांकि हम सिर्फ फोन को स्पीकर पर करके मंत्री के रूप में सुनाई गई आवाज से तो अंदाज़ा लगा ही सकते हैं कि यह भी कोई न कोई झूठ ही रचा जा रहा है। अब क्या वाकई में वह मंत्री नहीं था जिससे बात करवाई गई? क्या डोमन नाम का आदमी जिसने उन युवाओं से पैसे लिए हैं नौकरी दिलाने के नाम पर, क्या वह किसी तरह का धोखा तो नहीं दे जाएगा? या क्या उनके रुपए वापस उन्हें मिल पाएंगे? इन सभी सवालों के जवाब के लिए आपको एमएक्स प्लयेर तथा हंगामा के ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आई इस 15 मिनट की फ़िल्म को देखना होगा।
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फ़िल्म में जिन गहरे अर्थों की बात हुई है वो यह कि एक तो हमारे भारतीय समाज में सरकारी नौकरी करने वालों की पूछ कुछ ज्यादा ही होती है फिर भले वो कैसे भी उस स्थान पर पहुंचें हो। दूसरा यह कि सरकारी नौकरी पाने का कोई भी शॉर्टकट नहीं होता है। उसके लिए अथक मेहनत, लगन तथा प्रयासों की जरूरत होती हैं। फ़िल्म के अंत में एक डायलॉग है। कैरियर समुद्र में पार होने के बजाए डूब गए थे। …. उन्हें लग रहा था उनके सपनों की राख पूरे बदन से चिपक गई है। जिसमें जगह-जगह खुजली हो रही है। कुछ इसी तरह की सिनेमाई राख को भी यह फ़िल्म हमारे जेहन में चस्पा करती है कि हल्की खुजली होने लगती है।
अभिनय के मामले में लेखक स्वयं भी हैं इसमें वे इस बार अपने अभिनय में काफी हद तक सुधार कर पाने में सफल रहे हैं। इसके अलावा विनय बने आकाश डे और राजेश बने राजा अंसारी अच्छे लगे। वहीं दर्शनी के किरदार में विशा पराशर जितनी बार पर्दे पर नजर आई ठीक ठाक लगीं। बाकी साथी कलाकारों ने निराश किया। खास करके विनय के पिता के रोल में नईम अहमद ने। फ़िल्म का बैकग्राउंड फ़िल्म के अनुकूल रहा। डबिंग के नजरिए से भी फ़िल्म कहीं-कहीं हल्की नजर आती है। बावजूद इसके शॉर्टकट फ़िल्म कई जगह सराही भी गई है। जिनमें टैगोर इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल, 11वें दादा साहब फाल्के फेस्टिवल भी एक नाम है।
लेखक के तौर पर बिक्रम सिंह को जब मैंने पढ़ा कई बार तो उनकी कहानियां पसंद आईं ज्यादातर लेकिन जब कभी उन में से कुछ को फ़िल्म में ढाला गया तो उनमें से एक फ़िल्म ‘वजह’ मुझे बेवजह लगी थी। वहीं ‘पसंद ना पसंद’ एक अच्छी फिल्म थी। जब आपको कभी किसी का काम पसन्द आये उसके बाद वह निराश करे और आप आलोचना कर दें तो उस आलोचना को जो सही मायने में समझकर अगली बार सुधार करता है और कुछ हद तक उन सुधारों को कर पाने में सफल होता है या सुधार करते हुए बेहतर फ़िल्म अगर बनकर आती है। तो आपके आलोचना कर्म का क्षेत्र भी सफल होता है।
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‘अपना खून’, ‘गणित का पंडित, ‘यारबाज’ जैसी रचनाएं लिखने वाले लेखक की एक कहानी ‘चक्रव्यूह’ प्रतिष्ठित पत्रिका ‘परिकथा’ में प्रकाशित हुई थी जिस पर इसी नाम से अगली आने वाली फिल्म ‘चक्रव्यूह’ से काफ़ी उम्मीदें नजर आती हैं कि उसमें वे दर्शकों का ध्यान एक बार पुनः अपनी और आकृष्ट करने में सफल होंगे।
विशेष नोट – फ़िल्म में डोमन नाम का पात्र असली है। मतलब वह बंगाल के हरिपुर में रहता है और लोगों से नौकरी के नाम पर कई बार रुपए खा चुका है। उन्हें ठग चुका है। फिल्म को एमएक्स प्लयेर पर यहाँ क्लिक कर देख सकते हैं।