
प्रचण्ड बहुमत के प्रत्युत्तर में धर्म और राष्ट्र
प्रचण्ड बहुमत के साथ एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी आ गयी है, बल्कि कहना चाहिए – ‘नरेन्द्र मोदी आ गए हैं’, क्योंकि न सिर्फ जनता ने अपने अपने संसदीय क्षेत्र के उम्मीदवारों के गुण दोषों की बिना विवेचना किए नरेन्द्र मोदी के नाम पर वोट दिया, भाजपा की तरफ से वोट इसी तर्ज पर मांगा भी गया था| ‘आपका एक एक वोट नरेन्द्र मोदी को मिलेगा’ भाजपा की चुनाव सभाओं में यह बार बार याद दिलाया गया था|
पिछले पाँच वर्षों में शुरू की गईं विभिन्न योजनाएँ (उज्ज्वला योजना, प्रधान मन्त्री आवास योजना, आयुष्मान योजना, मुद्रा योजना आदि) और प्रश्न चिन्ह के बाद भी उनसे मिलते लाभ, नरेन्द्र मोदी की नीयत पर जनता का विश्वास और आतंकवाद को करारा जवाब के आधार पर जनता ने उन्हें फिर चुना और ऐसा चुना कि स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए एक आवश्यक तत्व – मजबूत विपक्ष से भारतीय संसद के इतिहास का एक दशक रीता रह गया| 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद जहाँ काँग्रेस को महज़ 44 सीटें मिली थीं, इस बार सिर्फ 52 सीटें मिलीं (इनमें भी 4 वे सीटें हैं जो इस बीच अलग अलग उपचुनावों से प्राप्त हुई हैं)| संसद में विपक्षी दल का दर्जा पाने के लिए ही कुल संसदीय सीटों का 10% सीट पाना अनिवार्य है| निर्धारित लक्ष्यों की ओर देश को ले जाने के लिए एक पार्टी के बहुमत वाली सरकार की आवश्यकता है, पर लक्ष्यों में भटकाव या विसंगति के समय लगाम लगाए रखने के लिए मजबूत विपक्ष भी उतना ही आवश्यक है|
विपक्ष की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है यह इस बात से समझा जा सकता है कि 2014 में सत्ता संभालने के लगभग तुरत बाद नरेन्द्र मोदी सरकार संशोधित भूमि अधिग्रहण बिल पारित करवाने में लग गयी थी| यह राज्य सभा में विपक्ष की ताकत की ही देन थी कि कोरपोरेटों की लूट वाला यह बिल अटका रह गया और हजारों किसानों, आदिवासियों की जमीन हड़प लिए जाने से बची रही (इन संशोधनों द्वारा अधिग्रहित भूमि के संभावित गलत इस्तेमाल को रोकने और मुजावजे में राहत के प्रावधानों को हटा दिया गया था)| इसलिए संसद का लगातार वैधानिक विपक्ष से वंचित होना जहाँ एक ओर स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए चिन्ता का विषय है, वहीं विपक्षी पार्टियों के लिए आत्मचिंतन, जनता के मनोभाव का सही विश्लेषण और स्थितियों की गहराई में जाकर पड़ताल की मांग करता है|
ऐसा क्या है भाजपा के साथ कि विपक्ष चारो खाने चित्त हो जा रहा है? विकास जन-जन की आवश्यकता है और विकास के विश्वास की आँधी ने 2014 के आम चुनाव में विपक्ष को धराशायी कर दिया था| फिर इस बार भी वैसा ही परिणाम, जबकि इस बार विकास की आँधी जैसी बात नहीं थी| इसका कारण है, कुछ ऐसी मूलभूत बातों का भाजपा के साथ जुड़ा होना, जो आम भारतीय, विशेष कर बहुजन भारतीयों के साथ मेल खाती हैं और उनका निराकरण भाजपा के पास उन्हें दिखता है| वे हैं धार्मिकता, राष्ट्रीयता और कुछ कुछ संस्कृति की सुरक्षा| विपक्षी पार्टियाँ और प्रगतिशील विचारधाराएँ प्रगतिशीलता की रौ में राष्ट्र और धर्म को अछूत बनाती रहीं, कम से कम हाशिये पर तो अवश्य रखा| ऐसी विचारधाराओं के प्रति जनता में बनते, पलते विरोध को जानने, समझने की जगह आ रहे परिवर्तनों को नकारात्मक परिवर्तन का नाम देकर, जातियों के बदलते समीकरण का नाम देकर इन्होंने वास्तविकता से अपने को दूर रखा| इन्होंने समझा कि साम्प्रदायिकता का हौआ काफी कारगर हथियार है, जबकि वह भोथा होता जा रहा था, यह वे नहीं देख पा रहे थे| बेरोजगारी, नोटबंदी और राफेल के नाम पर मोदी को गाली इन्हें चुनाव युद्ध का रामबाण महसूस हुआ| आत्ममुग्ध वे, यह लगभग भूल सा गए कि इन सब के अतिरिक्त भी कोई ‘सेंटिमेंट’ है जो काम कर रहा है |
कुछ होश भी आया तो जनता का मन बदल देने के लिए मंदिर-मंदिर उपस्थिति दे देना इन्होंने काफी समझा| विपक्षी पार्टियों की मंदिर यात्राएँ, रामलला से प्रेम, दुर्गा पूजा पंडालों को आर्थिक सहयोग (प. बंगाल) – इन सब में असल कितना और नकल कितना था, जनता समझ रही थी| भाजपा राम का नाम ले, धर्म का नाम ले, ॐ का नाम ले तो साम्प्रदायिकता, राष्ट्र का नाम, वन्देमातरम की चर्चा करे तो अन्ध राष्ट्रवाद, भारतीय जनता के आतंकवाद का शिकार होने, शहीद होने पर चुप्पी और प्रतिकार के कदमों पर तरह तरह के प्रश्न चिन्ह – ये सब कुछ ऐसी बातें हैं जो एकतरफा सोच को दर्शाती हैं और जिन्हें भारतीय जनमानस पचा नहीं पाता, वो चुप भले रहे पर समय आने पर अपना विरोध मतों के माध्यम से प्रकट कर देता है| विरोध अतिवाद का हो, घोर विरोध मौब लिंचिंग जैसे मानवता विरोधी कार्यों का हो, स्वतंत्र विचार रखने वाले लेखकों, पत्रकारों की हत्या जैसे लोकतन्त्र की मूल चेतना पर आघातों का हो (इन सबका घोर विरोध अत्यंत आवश्यक है), न कि देश के जनमानस की मूल भावना का| बेहतर होता कि राम के नाम के एकबारगी विरोध की जगह राम के नाम पर, पूजा और उससे जुड़े हंगामों, दक़ियानूसी कर्मकांडों का विरोध किया जाता और फिर यही दृष्टि हर धर्म, हर धमावलम्बियों के साथ लागू की जाती| एकतरफा दृष्टिकोण और उससे जुड़ी बड़ी बड़ी बौद्धिक बातें सिर्फ अपने कैंप में प्रशंसा दिला सकती हैं,पर दरअसल जिन दूसरे लोगों तक बातों का पहुँचना आवश्यक है, वहाँ तक नहीं पहुँच पातीं, नहीं ठहर पातीं| संतुलित वैचारिक वातावरण के अभाव में, ऐसे दृष्टिकोण का न सिर्फ विरोध पल रहा होता है बल्कि ‘कंजरवेटिव’ विचारधाराओं वाली शक्तियों की पकड़ मजबूत होती जाती है|
आमजन की भावनाएँ राष्ट्र से जुड़ी हैं, अपने धर्म से जुड़ी हैं, इन भावनाओं को खारिज करने से ये गायब नहीं हो जाएँगीं, बल्कि इन भावनाओं को भंजाने वालों की चाँदी रहेगी और हर बार विपक्ष दरकिनार किया जाता रहेगा| इस संदर्भ में प्रसिद्ध कवि एवं गद्यकार प्रभात त्रिपाठी के विचारों को उद्धृत करना उपयुक्त होगा| ‘हिन्दुत्व : निजी सोच का एक बेचैन सिलसिला’ शीर्षक लेख में वे लिखते हैं, ‘…..पर मुझे लगता है कि भाजपा को मिलने वाले इस नकारात्मक …..प्रचार के बावजूद, थोड़ी प्रगतिशील सोच के साथ पूरी मानव जाति के आस्तित्विक संघर्ष में विन्यस्त धार्मिकता की भाषा का, एक सर्जनात्म्क और प्रतिरोधात्मक इस्तेमाल भी जरूरी है| करोड़ों लोगों के जीवन के सुख दुख की, संघर्ष की भाषा है धर्म |…… मेरा सोचना है, कि जनसमुदाय के संबंध और संवाद की सार्थक शुरुआत करने के लिए, भारतीय समाज, विशेषकर बहुसंख्यक हिन्दू समाज की धार्मिक, पौराणिक मनोरचना की एक गहरी समझ जरूरी है|’ वे यह भी लिखते हैं, ‘….. पर मुझे यह ज़रूर लगता है कि हिन्दुत्व शब्द से ही बिदकने वाले फासिस्ट विरोधी कई लोग, इसका इस्तेमाल भाजपा के संदर्भ में करते हुए, यह भूल जाते हैं, कि करोड़ों की संख्या में वंचित, शोषित, दलित लोग भी ‘हिन्दू’ शब्द को स्वयं के अस्मिताबोध से जोड़ते हैं| ऐसे लोग आज की तारीख में यों भी, काँग्रेसी शासन के सुदीर्घ पूँजीवादी चरित्र के कारण, एक बड़ी संख्या में संघ परिवार के आदर्शों, मूल्यों और अस्मिताबोध को अज्ञानवश या सतही ज्ञान के दंभ में स्वीकार कर चुके हैं|……….अंत में यह कि सत्ता की संरचना और जनता की संवेदना से, धार्मिकता का सम्पूर्ण बिलगाव या धर्म मात्र का मूलोच्छेद फिलहाल तो असंभव ही लगता है’ (पहल 111, अप्रैल 2018)| जनता में ‘देश’ की महत्ता को स्वीकारते हुए योगेंद्र यादव लिखते हैं, ‘…. तीसरा सबक यह है कि जनादेश का निर्माण करने के लिए जनता को देश से जोड़ना जरूरी है’ (प्रभात खबर, 24.05.19)|
समय बदल रहा है, बहुजन के अंदर ठगे जाने, धोखे दिये जाने जैसी भावनाएँ हैं, इनको लेकर घुटन है, तुष्टिकरण की नीति की इनके अंदर प्रतिक्रिया है, जिसका विस्फोट इस तरह होता है| सम्पूर्ण भारतीय मानस, भिन्न भिन्न धार्मिक समुदायों, विश्वासों, आस्थाओं से जुड़ी बड़ी आबादी की समुचित चिन्ता तथा भारत की ‘विविधता में एकता’ के पोषण के साथ इन तथ्यों पर भी नज़र देनी होगी | सदियों से जुड़ी धार्मिक आस्थाओं, खून में बसी राष्ट्रीयता की भावनाओं और मानस में घुली परम्पराओं और संस्कृतियों में भी सकारात्मक तत्व हैं| यदि इन बातों ने विनाशक या प्रतिगामी रास्ता पकड़ लिया है तो उसके उपचार की आवश्यकता है| आज विपक्ष को इन बातों पर चिंतन की आवश्यकता है, न कि ऊंचे ऊंचे सिद्धांतों और दर्शनों की दुहाई देकर इन्हें खारिज कर देने की|अन्य बातों के साथ धर्म, राष्ट्र तथा परंपरा और संस्कृति की सकारात्मकता को साथ लेकर सामने आना ही ऐसी आँधी से छुटकारा दिला सकता है|
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