‘रक्स-ए-बिस्मिल’ के बहाने से
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निर्देशक – वज़ाहत रउफ
लेखक – हाशिम नदीम
स्टार कास्ट – इमरान अशरफ़, सारा खान, अनौशै अब्बासी महमूद असलम, मोमिन साकिब, गुल-ए-राना, राशिद फ़ारूक़ी आदि
आई एम डी बी रैंकिंग – 8.7
भारत में कुछ हलचल हो तो पड़ोसी देश के धारावाहिकों, वहां के कलाक़ारों के भारत आने पर पाबंदियां लगाई जाती रही हैं। ऐसा ही पड़ोसी देश पाकिस्तान भी करता रहा है। न जाने इस नफ़रत की आग में कब तक ये दोनों देश अपनी ऊर्जा यूं ही बर्बाद करते रहेंगे। लेकिन इन सबके बीच कुछ तो ऐसा है जो रक्स-ए-बिस्मिल जैसा है या होगा कभी। वैसे पाकिस्तानी धारावाहिकों में आज तक सबसे ज्यादा आई एम डी बी रेटिंग पाने वाला ड्रामा ‘वारिस’ था जो 1979 में आया था। जिसे ग़ज़नफेर अली तथा नुसरत ठाकुर ने डायरेक्ट किया था।
रक्स-ए-बिस्मिल भी एक पाकिस्तानी धारावाहिक है जिसका प्रसारण ‘हम टीवी’ के यूटयूब चैनल पर 25 दिसम्बर 2020 से शुरू हुआ था, जो कल थमा है। इस तकरीबन 7-8 महीने चले इस ड्रामा सीरियल जिसे टीवी सीरीज या आधुनिक भाषा में वेब सीरीज कहें तो इसे अब तक 27 करोड़ से ज्यादा लोग देख चुके हैं। कुल आंकड़ा अब तक 274274809 दर्शकों का है।
पाकिस्तानी इंडस्ट्री से आने वाले धारावाहिक वहां की फिल्मों के मुकाबले ज्यादा धूम मचाते हैं। यूं तो बरसों पहले बोल नाम से फ़िल्म भी ऑस्कर तक जा चुकी है। रक्स-ए-बिस्मिल का रेख़्ता डॉट ओ आर जी वेबसाइट के मुताबिक हिंदी में लाक्षणिक अर्थ होता है – ‘मिलन की ललक में होने वाली पीड़ा।’ इस धारावाहिक की कहानी भी यही है।
मूसा नाम का एक लड़का जो जोहरा नाम की लड़की के इश्क में मुब्तिला है। वह लड़की कोठेवाली है। जहां देह व्यापार नहीं होता बल्कि वहां की लड़कियों को बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घराने के लोग अपनी व्यावसायिक पार्टियों में नुमाइश के तौर पर बुलाते हैं। उन्हें उसकी कीमत देते हैं और ये लड़कियां पार्टी की रौनक बढ़ाती है अपने हुस्न से। अब मूसा की बहन किसी से प्रेम करती है लेकिन उनके बीच कई अड़चने आती हैं और मिलन सम्भव नहीं हो पाता। मूसा अपनी बहन को कई बार संकटों से बचाकर लाता है। रो पीटने के बाद एक दिन उसकी बहन को अपने सौतेले भाई / कज़िन से शादी करनी पड़ती है। एक दिन वह अपने भाई को ही बद्दुआ देती है कि मूसा भी किसी के लिए ऐसे ही तड़प उठेगा जैसे वो तड़पी है। उसकी बद्दुआ कितनी कबूल हुई। बहन की आह ने किस कदर भाई की दुनिया को उजाड़ डाला या बसाया यह सब आप इस धारावाहिक के 28 एपिसोड की कहानी में देखते हैं।
प्रेम को लेकर कई धारावाहिकों के लिए कहानी लिख चुके इस धारावाहिक के लेखक हाशिम नदीम तालियों तथा पीठ थपथपाने के हकदार हैं। पाकिस्तान के लोग चाहें तो उनसे कभी मिलें तो हम सिने प्रेमियों की ओर से उन्हें बधाई दे दीजिएगा। ‘खुदा और मोहब्बत’ के पहले सीजन की शानदार कहानी लिखकर दर्शकों को रुलाने वाले हाशिम ने इस धारावाहिक की कहानी से भी दर्शकों को रुलाया है इसके अलावा खुदा और मोहब्बत सीजन 3 तथा इश्क जहे नसीब जैसे लीक से हटकर धारावाहिक की कहानी भी इन्होंने ही लिखी है।
निर्देशक वज़ाहत रउफ ने निर्देशन बेहतरीन किया है। हालांकि कुछ एपिसोड में निर्देशन की छोटी लेकिन भारी गलती भी पकड़ में आती हैं। मसलन एक एपिसोड में जहां जोहरा चोटिल दिखाई गई उसमें उनके माथे पर मरहम पट्टी बाद में जोड़ी गई। खैर एनाय, कराची से लाहौर, छलावा , लाहौर से आगे जैसी हिट तथा फ्लॉप फ़िल्म के लिए भी वज़ाहत ने निर्देशन तथा निर्माता की कमान संभाली है।
अभिनय के मामले में मूसा के रूप में इमरान अशरफ़, जोहरा के रूप में सारा खान, पीर कुदरतुल्ला शाह के रूप में महमूद असलम पर्दे पर अपने अभिनय से कहर ढाते हैं। साथी कलाकारों में मोमिन, गुल-ए-राना, राशिद फ़ारूक़ी, अनोशाय अब्बासी भी बेहतरीन लगे हैं। इमरान अशरफ़ इससे पहले कई धारावाहिकों में अपने आप को साबित कर चुके हैं। हाल ही में ‘रांझा रांझा करदी’ ड्रामे में एक मंदबुद्धि बेटे, पति के रूप में भोला नाम का किरदार भी खूब तारीफ़ें बटोर चुका है।
जिस तरह भारतीय सिनेमा की तरह भारतीय धावाहिकों की पहुंच भी लोगों तक अच्छी खासी है। उसी तरह पाकिस्तानी धारावाहिक भी खूब पसंद किए जाते हैं। ‘ज़िंदगी गुलज़ार है’ जैसे प्रसिद्ध धारावाहिकों के बाद यह धारावाहिक सबसे ज्यादा पसंद किया जा रहा है। अंदाज़ में बेहतर, कहानी में कसे हुए, निर्देशन की कसौटी में तपे-खरे ये धारावाहिक 20-25 एपिसोड से ज्यादा लंबे नहीं खींचे जाते इसी वजह से ये खासे चर्चित होते हैं।
भारतीय सीरियलों की कहानी असल जिंदगी और सच्चाई से आजकल जितनी परे होती है उतनी ही पाकिस्तानी धारावाहिक की जिंदगी से जुड़ी हुई होती हैं। दोनों की तुलना करने पर साफ और बड़ा अंतर देखा जा सकता है।
हमारे यहाँ असल जिंदगी में कभी कोई चुड़ैल, इच्छाधारी नागिन या डायन आपको मिलती है क्या? या मरने के बाद भी कोई इंसान सालों बाद जिंदा हो कर उठता है? नहीं न लेकिन हमारे यहां के निर्माता निर्देशकों ने इन कहानियों को मरने नहीं दिया है। वहीं पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान ने समाज, स्त्री, प्रेम इन सब मुद्दों को बारीकी से तथा नजदीक से देखा, छुआ है।
भारतीय धारावाहिक रबड़ की तरह खींचे जाते हैं जबकि पाकिस्तानी सीरियल बेहद सीमित एपिसोड में खत्म हो जाते हैं। उतने में ही वे 10-15 सालों की कहानी दिखा देते हैं जैसे कि ‘दास्तान’, ‘फिराक’, ‘शक’ आदि में देख चुके हैं हम। खास बात ये भी है कि पाकिस्तानी सीरियल जो आज कर रहे हैं, वो हम पहले कर चुके हैं लेकिन अब ये सब कहीं गायब हो चुका है इसलिए पड़ोसी मुल्क उसे फिर से जिंदा करने की कोशिशों में सार्थक प्रयास करता रहा है।
हमारे यहां एक वक्त था जब 1988 में दूरदर्शन पर ‘प्रेमचंद’, ‘मिर्जा गालिब’ जैसे धारावाहिक आते थे। महान लेखक गुलजार ने 13 एपिसोड के ये धारावाहिक बनाए थे और बखूबी उनकी कहानियों को दर्शाया था। दर्शकों को कम वक्त के ये धारावाहिक भी पसंद भी आए और सितारों की एक्टिंग भी।
फिर एक वक्त आया जब ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’ जैसे सीरियलों ने कम एपिसोड में ज्यादा प्रसारित किए गए लेकिन इनकी कहानी दमदार रही। फिर समय आया ‘रामायण’, ‘महाभारत’ जैसे पौराणिक धारावाहिकों का। इनमें एपिसोड भले ही ज्यादा होते थे लेकिन पहली बार दर्शकों को कुछ नया परोसा गया था इसलिए उनकी दिलचस्पी बनी रही।
अब जो वक्त चल रहा है वहां इस बात की होड़ लगी रहती है कि कौन सा सीरियल ज्यादा लंबा चलता है। यहां 1000 एपिसोड तक सीरियल चलते हैं। पाकिस्तान में उपन्यासों पर आधारित सीरियल भी बनते हैं जैसे कि ‘जिंदगी गुलजार है’, ‘हमसफर’, ‘दास्तान’।
हमारे यहां प्रचलन है 2 मिनट की बात को 20 मिनट तक लम्बा खींचने का जबकि पाकिस्तानी सीरियलों में जबरन कहानी को नहीं खींचा जाता। सिर्फ एपिसोड की संख्या ही नहीं, सीरियल की कहानी और उसे दर्शाने के तरीके में भी बहुत बदलाव भी हमारे यहां आया है जो पाकिस्तानी सीरियलों से बहुत अलग है।
आज के वक्त में शायद ही कोई सीरियल होगा जिसमें हीरो-हीरोइन की एक्टिंग पसंद की जाती है। अब भारतीय धारावाहिकों में रोना धोना, बदला लेना, चेहरे पर हाव-भाव की बाढ़ ला देना ही सब कुछ है। पाकिस्तानी सीरियलों में ऐसा नहीं है। उनके किरदार असली और जिंदगी से जुड़े लगते हैं। उन्हें देख कर ये नहीं लगता कि एक्टिंग कर रहे हैं बल्कि देखने वाला खुद को उस किरदार से जुड़ा महसूस करता है। भारतीय सीरियलों में कोई बड़ी घटना हुई नहीं कि चारों तरफ से कैमरे उस किरदार के चेहरे पर आ धमकते हैं। ‘धूम… धूम… ताना…. ताना’, ‘ला….ला…..ला रू….रू….रू’ ‘आ….आ…. आ’….जैसा गैरजरूरी म्यूजिक बजता रहता है।
पाकिस्तानी सीरियलों में इतना बढ़ा-चढ़ा कर नहीं दिखाया जाता। शायद वे जानते हैं कि उनके दर्शक इतने मूर्ख नहीं है और असलियत में विश्वास रखते हैं। खास बात ये है कि भारतीय दर्शकों को भी पाकिस्तानी सीरियलों की ये बातें अच्छी लगती हैं। पाकिस्तानी सीरियलों में फिल्मों से चुराए गए या उल्टी सीधी धुन बनाए हुए गाने नहीं होते। हर सीरियल का खुद दृश्य और जरूरत के हिसाब से अपना खुद का गाना होता है जबकि भारतीय धारावाहिकों में कोई नई फिल्म आई नहीं कि उसका गाना बैकग्राउंड में बजने लगता है। दिल टूटा तो दुख वाला, हीरो-हीरोइन की आंखे मिलीं तो रोमांटिक वाला। ख़ैर इस धारावाहिक रक्स-ए-बिस्मिल को इसकी कहानी तथा एक्टिंग के लिए जरूर देखा जाना चाहिए।