बीती सदी के अस्सी के दशक में कभी तब की मशहूर पत्रिका ‘रविवार’ ने डॉ. राममनोहर लोहिया पर एक विशेषांक निकाला था। विशेषांक में एक लेख जाने-माने पत्रकार राजकिशोर का भी था। उन्होंने कहा कि आज की राजनीति में लोहिया का नाम लेना कुछ वैसा ही है जैसे वेश्याओं की गली में गीता पाठ किया जा रहा हो।
इस उपमा को मैं दो वजहों से नापसन्द करता हूँ- इसमें वेश्याओं के प्रति एक मर्दवादी उपहास का भाव है और दूसरे गीता पाठ में एक पवित्रतावाद का। ये दोनों बातें मुझे संशय में डालती हैं। गीता पाठ किन्हीं भी गलियों में किया जा सकता है- बस यह स्पष्ट हो कि आप गीता किसलिए पढ़ रहे हैं।
लेकिन दरअसल ‘रविवार’ के उस अंक में यह हताशा लगभग हर लेख में मौजूद थी कि भारतीय राजनीति ने लोहिया को अप्रासंगिक बना दिया है, कि लोहियावादियों ने सबसे ज़्यादा छल लोहिया के साथ ही किये हैं, कि लोहिया ने जिस राजनीति, समाज और संस्कृति का सपना देखा था, वह अप्राप्य होती जा रही है।
आज 2021 में लोहिया कुछ और दूर दिखाई पड़ते हैं। अस्सी के दशक में तो वे फिर भी पास लगे एक प्रकाश-स्तम्भ थे जिनकी स्मृति बहुत सारे नेताओं के भीतर थी। तब राजनीति में ऐसी बहुत सारी शख़्सियतें थीं जिन्होंने लोहिया के सान्निध्य में राजनीति की या उनसे राजनीति सीखी थी। बाद के वर्षों में लोहिया के सूत्रों को वे तरह-तरह से दुहराते रहे। लेकिन अब जैसे लोहिया के उन सूत्रों को भी दुहराने वाला कोई नहीं बचा है। लोहिया के आख़िरी नामलेवा गिने-चुने हैं। एक तो मुलायम सिंह यादव हैं जो बरसों पहले अपनी समाजवादी पार्टी और अपने समाजवाद को कई मायनों में समाजवादी मूल्यों से दूर ले जा चुके हैं और अब अपनी उम्र की वजह से इस हाल में नहीं बचे हैं कि दूर की राजनीति कर सकें। समाजवादी राजनीति का दावा करने वाले दूसरे घटकों- मसलन आरजेडी या जेडीयू के लालू यादव या नीतीश कुमार के भीतर लोहिया से ज़्यादा जयप्रकाश नारायण की स्मृति है, हालांकि जयप्रकाश नारायण की नैतिक दृढ़ता से उनका भी कोई सम्पर्क नहीं रह गया है। बेशक, प्रधानमन्त्री सहित भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेता बीच-बीच में अपने भाषणों में लोहिया का नाम ले लेते हैं, लेकिन लोहिया के बुनियादी मूल्यों में उनकी आस्था नहीं दिखती।
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तो कुल मिलाकर लोहियावादी समाजवाद के मामले में स्थिति निराशाजनक है। लेकिन खुद डॉ. लोहिया कहा करते थे कि निराशा के भी कर्तव्य होते हैं। तो हमारा यह कर्तव्य फिर भी बनता है कि मौजूदा राजनीति में लोहिया की जो क्षीण पड़ी धारा है, उसकी पहचान करें और साथ-साथ उन मुद्दों की शिनाख्त भी करें जिन्हें लोहियावादी राजनीति अपने ढंग से प्रभावित कर सकती है। इस लिहाज से याद कर सकते हैं कि लोहिया के जाने के बाद उनकी राजनीतिक और वैचारिक विरासत सबसे विश्वसनीय और ठोस ढंग से जिस शख़्स के पास रही, वे किशन पटनायक थे। किशन पटनायक जितने यथार्थवादी थे उतने ही आशावादी थे और जितने बड़े नेता थे उससे ज़्यादा बड़े चिन्तक थे। सच यह है कि लोहिया अगर ख़ुद को कुजात गाँधीवादी मानते थे तो किशन पटनायक खुद को बिल्कुल खांटी लोहियावादी कह सकते थे। किशन पटनायक के कई शिष्य राजनीति में अपने ढंग से सक्रिय हैं और लोहियावादी मूल्यों को आगे बढ़ा रहे हैं। इनमें सम्भवतः सबसे चर्चित योगेंद्र यादव हैं जिन्होंने आम आदमी पार्टी से निराश होने के बाद अपनी अलग पार्टी स्वराज इंडिया बनाई और फिलहाल देश में चल रहे किसान आन्दोलन में एक अहम विचार स्रोत की भूमिका अदा कर रहे हैं।
लेकिन इस दौर में लोहिया होते तो क्या करते? अपने दौर में जब वे थे तो उन्होंने क्या किया था? दरअसल लोहिया सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों तरह की राजनीति के सबसे दूरदर्शी वास्तुकार थे। जब उन्होंने पाया कि नेहरू की काँग्रेस लक्ष्यभ्रष्ट हो रही है तो उसे पराजित करने के लिए शैतान से भी हाथ मिलाने की बात कह डाली। यही नहीं, संसदीय राजनीति में उन्होंने सीधे नेहरू को चुनौती देने की ठानी और 1962 में फूलपुर से चुनाव लड़ने पहुँच गये जहाँ से नेहरू काँग्रेस के उम्मीदवार थे। उन्होंने कहा कि वे काँग्रेस की सबसे मज़बूत चट्टान को हटा न सकें तो भी उसमें दरार ज़रूर डाल देंगे। कहते हैं कि नेहरू ने लोहिया को कहा था कि वे फूलपुर प्रचार के लिए नहीं आएंगे, लेकिन वहाँ लोहिया की धमक और धाक देखी तो उन्हें अपना प्रचार करने के लिए आना पड़ा।
बहरहाल, गैरकाँग्रेसवाद का व्यावहारिक नुस्खा लोहिया का ही था जिसके साथ उन्होंने गठबन्धन की उस राजनीति की नींव रखी जो नब्बे के दशक के बाद भारतीय राजनीति का अपरिहार्य तत्व हो गई। उनके ही नेतृत्व में 1967 में नौ राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं और पहली बार देश में सत्ता परिवर्तन का वह भरोसा जागा जो दस साल बाद केंद्रीय स्तर पर साकार भी हुआ। हालांकि यह दिन देखने के लिए लोहिया जीवित नहीं थे। लेकिन जयप्रकाश नारायण ने बुनियादी दौर पर उन्हीं के फॉर्मूले पर अमल करते हुए वह जनता पार्टी बनाई थी जिसमें संगठन काँग्रेस भी शामिल थी, जनसंघ भी था और चरण सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी धारा भी थी।
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दरअसल गठबन्धन राजनीति ही नहीं, पिछड़ों के आरक्षण की ओर भी सबसे पहले उन्होंने ही ध्यान खींचा था। 1990 में मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों के बाद भारतीय समाज और राजनीति के ढांचे में जो बदलाव आए, उनकी पहली परिकल्पना डॉ राम मनोहर लोहिया के यहाँ ही मिलती है। उनकी संसोपा- यानी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने ही सबसे पहले नारा दिया था- ‘संसोपा ने बांधी गांठ / पिछड़ा पावे सौ में साठ।’
बेशक, आज वे होते तो बीजेपी के साम्प्रदायिक उभार से मोर्चा ले रहे होते। यह सच है कि एक दौर में वे जनसंघ से भी गठजोड़ को तैयार थे, लेकिन तब जनसंघ अपनी वैचारिक अतियों के साथ इतना छोटा घटक था कि उसके विस्तार के ख़तरे अनदेखे रह गये थे। यह देखना दिलचस्प होता कि अपनी पिछड़ा प्रतिबद्धता और अपनी भारतीयता के स्वाभिमान के साथ वे बीजेपी की राजनीति को कैसी रणनीतिक और वैचारिक टक्कर दे रहे होते। उनका यह वाक्य मशहूर है कि धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालिक धर्म।
लेकिन दरअसल लोहिया के होने का मोल राजनीति के इन रणनीतिक उपायों से कहीं ज़्यादा बड़ा है। यह सच है कि भारत के संसदीय लोकतन्त्र को उन्होंने बिल्कुल सड़क की धूल-माटी से जोड़ा, संसदीय बहसों को वे लड़ाकू तेवर दिए जिनकी पहले कल्पना नहीं की जा सकती थी, मगर स्वतन्त्र भारत की एक सम्पूर्ण राजनीतिक वैचारिकी गढ़ने वाला उनके अलावा कोई दूसरा नेता नहीं हुआ। बल्कि उनका बौद्धिक व्यक्तित्व उनके राजनीतिक व्यक्तित्व से बहुत बड़ा था। वे बहुत पढ़े-लिखे और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों की समझ रखने वाले नेता थे।
उनके भीतर भारतीयता का प्रखर गौरव था, लेकिन वह नकली अहंकार में नहीं बदलता था। उनके भीतर यह अचूक और सूक्ष्म समझ थी कि वे पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों की सीमाओं को समझ पाते। मार्क्सवाद की विडंबनाओं पर उनकी बहुत लम्बी और कई हिस्सों में बंटी टिप्पणी उनकी बौद्धिक मेधा का उदाहरण है। वे कहा करते थे कि पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों एशिया पर हमले के आख़िरी यूरोपीय हथियार हैं। आज जब सत्ता के हर विरोधी को नक्सली कह देने का चलन है, तब यह उम्मीद किससे की जा सकती है कि वह साम्यवाद और भारतीय समाजवाद के इस बारीक फ़र्क को समझेगा। डॉ. लोहिया की इस बौद्धिकता का सिरा उनके साहित्यिक-सांस्कृतिक सम्पर्कों से जुड़ता है।
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भारत का शायद ही कोई दूसरा नेता रहा होगा जिसके इतने सारे लेखकों-पत्रकारों और संस्कृतिकर्मियों से सम्पर्क ही नहीं, बहुत घनिष्ठ संबन्ध रहे होंगे। वे एक मौलिक चिन्तक थे और राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों के अलावा धर्म, समाज और संस्कृति पर जो लिखा करते थे, वह हमेशा एक नयी दृष्टि की प्रस्तावना की तरह आता था। ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की कई नयी और उदात्त व्याख्याएं उनके यहाँ मिलती थीं। शिव, राम और कृष्ण को लेकर उनके लेख बार-बार पढ़े जाने योग्य हैं।
इसी तरह महाभारत की स्त्रियों पर उनका लेख स्त्रीवादी चिन्तन के अनूठे पाठ की तरह पढ़ा जा सकता है। वे साहसपूर्वक कहते हैं कि सीता और सावित्री भारत की आदर्श नारियाँ नहीं हो सकतीं, वे महाभारत की पाँच कन्याओं का उल्लेख करते हैं और मानते हैं कि असली भारतीय आदर्श नारियाँ वही हो सकती हैं। भारतीय भाषाओं के प्रश्न को, जाति प्रथा के सवाल को, साम्प्रदायिकता के संकट को- इन सबसे लोहिया जैसे मुठभेड़ करते हैं और इनके आगे जाने का रास्ता खोजते हैं। वे जाति और योनि के कठघरों की शिनाख्त और इन्हें तोड़ने की बात करते हैं।
वे दुस्साहसी कल्पनाशील और बीहड़ प्रयोगकर्ता भी थे। अब दुनिया पासपोर्ट और वीज़ा के पार जाने का रास्ता खोज रही है, वे तब विश्वयारी की बात करते थे।
दरअसल आज कल्पना नहीं की जा सकती कि लोहिया जैसा कोई विचारवान राजनेता भी हुआ था। वे होते तो शायद भारतीय राजनीति इतनी क्षुद्र न होती। न उनके शिष्य ऐसे बेलिहाज हो पाते हैं जैसे आज वे दिखते हैं और न उनके विरोधी वैसे बेलगाम हो पाते जैसे वे हैं। बहुत सम्भव है कि तब समाजवादी राजनीति आज की तरह दिशाहीन और महत्वहीन न होती। वे एक महायोद्धा थे जो पूरी राजनीति पर अपनी छाया डालते थे। वे तमाम तरह की संकीर्णताओं के विरोधी और हर तरह की समानता के पैरोकार थे। वे होते तो समानता की लड़ाई कहीं ज़्यादा मज़बूत होती। वे होते तो अम्बेडकर और गाँधी के बीच जो दीवार खड़ी करने की कोशिश की जा रही है, वह बेमानी साबित होती।
क्या उम्मीद करें कि देर-सबेर अभी के बहुत सारे छलावों से उबरी-ऊबी भारतीय राजनीति कभी लोहिया की ओर लौटेगी और बराबरी के उस महास्वप्न की ओर बढ़ेगी जिसके बीज लोहिया के लेखन में जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हैं? यह यूटोपिया भी हो तो मैं इस यूटोपिया के साथ जीना चाहता हूँ।
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