- ताजुद्दीन, केयूर
धर्म और संस्कृति के मध्य इतनी पतली रेखा है कि कई बार धार्मिक दुराग्रहों की टकराहट में सांस्कृतिक मूल्यों और धरोहरों का भी गम्भीर नुकसान हो जाता और हम समझ भी नहीं पाते। आजकल यह प्रवृति तेजी से बढती प्रतीत हो रही है, भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में। मसलन, उत्तर भारतीय राज्यों में लगभग दो-तीन ही दशक पीछे जाकर देखिये तो याद आ जाएगा कि किस उत्साह से ताजिये का जुलुस निकाला जाता था, समाज के सभी जाति धर्मों की किसी न किसी रूप में इसमें भागेदारी होती थी।
ताजिये के निर्माण की प्रक्रिया से लेकर समापन तक इसमें कोई मजहबी उन्मादी दीवार नहीं थी और इस लिहाज से यह मात्र कोई धार्मिक क्रिया भी नहीं थी, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक सामूहिकता का उत्स था जो कर्बला के दुखद अतीत की स्मृति से प्रेरित थी, लेकिन धीरे-धीरे इतिहास के विकृत पुनर्पाठ ने इसके मनाये जाने के उत्साह को ठंडा कर दिया। इस्लामिक दुनिया के शुद्धतावादी कट्टर माने जानेवाली उप-शाखाओं जैसे सल्फी, वहाबी, तब्लीगी आदि के प्रभाव में आकर अधिकतर सुन्नी मुसलमानों ने इसका परित्याग करना शुरू कर दिया, वे इस बात से अनभिज्ञ बने रहे कि ऐसा करके वे मोहम्मद साहब के रिश्तेदारों की जघन्य हत्या करनेवाले के मतान्ध दर्शन और विचारों का ही पोषण कर रहे हैं।
और आज स्थिति यह है कि उत्तर भारत में, विशेषकर बिहार, उत्तर-प्रदेश जैसे सघन मुस्लिम जनसंख्या वाले राज्यों में इस त्यौहार के प्रति कोई आकर्षण नहीं दिखता, मुस्लिम समाज ने इसे एक तरह से ख़ारिज ही कर दिया है। लेकिन दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों, मसलन तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश आदि में यह अबतक तुलनात्मक रूप से जीवन्त स्वरूप में है जिसे हमने अपने तेलुगु क्षेत्रों में भ्रमण के दौरान अनुभव किया। इन क्षेत्रों में इसे पीरला-पांडुगा के नाम से जाना जाता है।
लगभग प्रत्येक गाँव में हर वर्ष इस्लामिक कैलेण्डर के प्रथम महीने मुहर्रम के समय अलावा के रूप में हजरत अली, हसन, हुसैन, बीबी फातिमा, अब्बास की प्रतीकात्मक संरचना को असुरखाना (गाँव के मध्य में बना स्थायी पवित्र-गृह) में रखा जाता है। इसके व्यापक आयोजन में हिन्दू और मुस्लिम सभी की सक्रियता मनोरम प्रतीत होती है। कुछ गाँवों में जहाँ सुन्नी मुस्लिमों ने इसे मनाना छोड़ दिया है, वहाँ हिन्दुओं ने इसके आयोजन की पूरी जिम्मेवारी ले रखी है, यह आज के परिवेश में थोड़ा आश्चर्यजनक है।
हमने कई ऐसे गाँवों को भी देखा जहाँ असुरखाना का निर्माण हिन्दुओं के द्वारा ही करवाया गया था और जिसपर निर्माता का नाम भी उत्कीर्ण था, जैसे मेडक जिला के एक गाँव के असुरखाना का निर्माता कोई वाई.पी. रेड्डी नाम का व्यक्ति था। असुरखाना के रखरखाव के लिए पारम्परिक मुजावर होते हैं, लेकिन जहाँ मुस्लिम मुजावर नहीं हैं वहाँ हिन्दू ही उनकी कमी को पूरा कर देते हैं। दस दिनों तक अलावा को असुरखाना में रखा जाता है, अलावा लकड़ी का बना होता है जिसे लाल और हरे कपडे से ढंका जाता है और जिसके ऊपर धातु का एक पंजा भी लगाया जाता है और साथ ही उसपर उड़ता हुआ घोडा, बाघ आदि चित्र भी बनाए जाते हैं जिसका अपना प्रतीकात्मक अर्थ होता है।
असुरखाना के सामने ही हवन कुंड की तरह गुंटा बना होता है जिसमे आग लगाई जाती है और जिसके चारों तरफ महिलाएँ और पुरुष बारी-बारी से गोल-गोल घूमकर कर्बला में मारे गये निर्दोषों की स्मृति में लोकगीत गाते हैं, सभी महिलाएँ आमतौर पर गैर-मुस्लिम ही होती हैं, लेकिन पुरुष दोनों ही धर्मों के होते हैं, इससे मुस्लिम समाज में महिलाओं की सामाजिक सीमाओं का भी आकलन किया जा सकता है। दसवें दिन अलावा का किसी नदी या सुनसान जगह जुलुस निकालकर विसर्जन कर दिया जाता है और कई जगह इस अवसर पर मेले का भी आयोजन होता है, सौभाग्य से हम ऐसे अनेक मेलों में गये; मेले की खरीदारी का अपना अलग अनुभव होता है।
इसमें हम मात्र एक बाजारू उपभोक्ता नहीं होते, बल्कि सामुदायिक और सांस्कृतिक बोध से भरे एक सहृदय खरीदार भी होते हैं। समापन के समय प्रसाद के रूप में मिठाइयाँ भी बाँटी जाती है, कई स्थानों पर लोग शर्बत भी बाँटते हैं, शर्बत बाँटने के पीछे की भावना ये हो सकती है कि कर्बला के तपते रेगिस्तान में भूख-प्यास से भी कई लोगों ने दम तोड़ दिया था। हिन्दू और मुस्लिम अपनी-अपनी तरह से अपनी-अपनी आस्था प्रकट करते हैं, मुजावर हिन्दुओं और मुस्लिमों दोनों को राख जैसी किसी चीज का टीका लगाते हैं, लेकिन दोनों के ही लगाये जाने के तरीके में भिन्नता होती है, जहाँ हिन्दुओं को ललाट पर टीका लगाया जाता है तो वहीं मुस्लिमों के भौं के ऊपर।
इस उत्सव के आयोजन और क्रियाविधियों को गम्भीरता से देखने पर इसमें इस्लामिक और हिन्दू सांस्कृतिक परम्परा का समिश्रण साफ़-साफ दिखता है। धर्मांध होती जा रही दुनिया के लिए ऐसे सामुदायिक उत्सव की अपनी अलग ही प्रासंगिकता हो जाती है। तेलंगाना के रंगारेड्डी जिले के एक गाँव के एक कम-पढ़े लिखे मगर समझदार बुजुर्ग जो कि स्वयं सुन्नी थे इस उत्सव के नयी पीढ़ी के द्वारा नहीं मनाये जाने से छुब्ध थे, उनका मानना था कि मौलानाओं के बहकावे में आकर नयी पीढ़ी अपनी उस परम्परा से दूर होती रही है जिसे उनके पूर्वज सैकड़ों वर्षों से मनाते आ रहे थे।
इसी तरह मेडक जिले की एक बूढी मुस्लिम महिला से हमने पूछा कि आप मोहर्रम क्यों नहीं मनाती तो उसने कहा कि पहले मनाती थी, लेकिन बाद में बाहर से मना कर दिया गया। बाहर से उसका तात्पर्य खाड़ी के उन देशों से था जहाँ उनके बच्चे काम के सिलसिले में जा रहे हैं और वहाँ के जीवन मूल्यों को आदर्श मान रहें हैं। नयी पीढ़ी शिक्षित है, उनके पास विज्ञान और इसके मूल्यों की समझ है, लेकिन धार्मिक मामलों में इनमे एक दुराग्रह भी प्रतीत होता है।
इस्लाम कोई मिथकीय अवधारणा या सिद्धान्त नहीं है, बल्कि एक अत्यन्त ही नवीन ऐतिहासिक प्रघटना है जिसकी सभी घटनाएँ इतिहास लेखन में दर्ज है, लेकिन मजहबी उन्माद में तल्लीन लोग इतिहास की सत्यता को ढककर इसे एक मिथकीय प्रघटना में बदलने को उतारू हैं। पीरला-पांडुगा का निषेध उसी मिथकीकरण का एक प्रयास है और साथ ही यह भारत के हिन्दू-मुस्लिम के संयुक्त इतिहास और संस्कृति पर भी प्रहार है।
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मो. ताजुद्दीन, सीएसडी, हैदराबाद से पोस्ट डॉक्टरेट
सम्पर्क- tajcrs@gmail.com
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