आदिवासीधर्म

आदिवासी धर्म की माँग की हलचल

 

पिछले साल के विभिन्न धरना-प्रदर्शनों में आदिवासियों के लिए अपने धर्म कोड की माँग भी सुर्खियों में रहा। इसको लेकर टीवी पर कुछ वाद-विवाद हुए, कुछ बौद्धिक, राजनीतिक और समाजशास्त्रीय लेख पत्र-पत्रिकाओं में देखने-पढ़ने को मिले। कुछ अति उत्साही तथाकथित प्रगतिशील चिन्तकों, संघ के विरोधियों तथा समर्थकों के भी सुविचार सामने आए और राजनीतिक-प्रशासनिक स्तर पर झारखण्ड राज्य के नव-निर्वाचित सरकार ने आनन-फानन में एक प्रस्ताव पारित कर राज्यपाल के अनुमोदन के बिना ‘सरना धर्म’ को आगामी जनगणना के लिए धर्म कोड निर्धारित करने के लिए केन्द्र सरकार को प्रेषित भी कर दिया। जबकि, मध्य-प्रदेश के आदिवासी समुदाय ‘कोया पुनेम’ को आदिवासी धर्म कोड के लिए जोर देते रहे हैं तथा कुछ अन्य राज्य केवल ‘आदिवासी धर्म’ को कोड के लिए सुझाव देते रहे हैं और यह अब जन आन्दोलन का रूप लेता जा रहा है या इसे जन आन्दोलन का रूप दिया जा रहा है, यह कहना कठिन भी है और ‘धर्म संकट’ से भी भरा है।

कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि राजनीतिक निहितार्थ से प्रेरित होकर आदिवासी समाज को भी धार्मिक रूप से ध्रुवीकृत करने की यह सब सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है जिससे उनका वोट बैंक बने या बना रहे। कुछ तो चेतावनी भरे लहजे में यह भी कहते सुने गये हैं कि कोई भी धार्मिक ध्रुवीकरण भविष्य के लिए डरावना होता है क्योंकि धार्मिक ध्रुवीकरण का ही दुष्परिणाम हमारे देश का विभाजन भी है। यह कुछ हद तक मानने वाली बात भी है क्योंकि धार्मिक उन्माद ही दंगे-फसाद को प्रश्रय देते हैं। इसलिए जो उत्साही वर्ग आदिवासियों को धर्म के नाम पर सदाशयता से ही सही, ध्रुवीकरण कर रहे हैं , उन्हें इससे सावधान रहना होगा कि अशिक्षित और अर्धशिक्षित आदिवासी समाज पर इसका दूरगामी परिणाम क्या होगा या क्या हो सकता है।

आदिवासी समाज हमारे देश के प्राचीन वासी हैं (क्योंकि ‘निवासी’ कहने से कुछ आदिवासी बुद्धिजीवियों को आपत्ति है) और वनों में रहने के बावजूद वे हजारों वर्षों से गैर आदिवासी समाज से निरन्तर सम्पर्क में रहे हैं जिसके कारण किसी-न-किसी रूप में उनके बीच अनवरत सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता रहा है। अभी के सन्दर्भ में समझें तो यह आदान-प्रदान बढ़ता ही जा रहा है तो ऐसी स्थिति में, जबकि समरस संस्कृति अपनी प्रक्रिया में है तो बीच-बीच में इस तरह का ध्रुवीकरण करके हम स्वाभाविक सामासिक विकास की समजशास्त्रीय प्रक्रिया को बाधित तो नहीं कर रहे हैं?

आदिवासी धर्म/सरना धर्म/ कोया पुनेम आदि के जोर पकड़ने के पीछे दो कारण बताए जा रहे हैं। पहला यह कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के 1951 की जनगणना से आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड या अलग से पहचान के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ा जा रहा है। दूसरा यह कि पिछले साल संघ प्रमुख ने यह कह दिया कि आगामी जनगणना में वनवासियों को हिन्दू धर्म लिखने के लिए सकारात्मक तरीके से प्रेरित किया जाएगा और झारखण्ड के बाबूलाल मराण्डी ने यह बयान दे दिया कि आदिवासी जन्मजात हिन्दू हैं। ये दो मुख्य कारण हैं कि सामयिक सन्दर्भ में अब इस बात पर बहस छिड़ गई है कि आदिवासी हिन्दू हैं या नहीं। मैं इस विवाद को राजनीतिक योद्धाओं के लिए आरक्षित छोड़कर कुछ तथ्यों एवं कुछ सत्यों का जिक्र करना चाहूँगा।

हमारे देश के संविधान के अनुच्छेद 366 (25) की भाषा-परिभाषा के अनुसार अनुसूचित जनजातियों के सदस्य/नागरिक हिन्दू माने जाते हैं, जिसमें, बौद्ध, सिक्ख एवं जैन भी शामिल हैं। लेकिन सभी हिन्दू अधिनियमों के अनुसार हिन्दू की परिभाषा में आने वाले बौद्ध, सिक्ख एवं जैन, उनकी वैध-अवैध सन्तान और धर्मान्तरण करके हिन्दू बने लोग भी सम्मिलित किए जाएँगे, परन्तु अनुसूचित जनजाति के सदस्यों या नागरिकों पर ये नियम लागू नहीं होंगे, जबतक कि केन्द्र सरकार इस सम्बन्ध में कोई अन्यथा आदेश सरकारी गजट में प्रकाशित न करे। अब स्वाभाविक ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उन्हें हिन्दू कहकर भी हमारे संविधान निर्माताओं ने हिन्दू अधिनियम से अलग क्यों रखा?

निश्चय ही उनका उद्देश्य यह रहा होगा कि उनके प्राकृतिक धर्म और प्राचीन रीति-रिवाजों को अक्षुण्ण रखा जाये। साथ ही 1951 की जनगणना में यह उल्लिखित है कि हिन्दू वर्णाश्रम प्रणाली के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को छोड़कर, शूद्रों एवं आदिवासियों को विशेषीकृत करके अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के अन्तर्गत रखा जा रहा है, जिसका उद्देश्य इन्हें समाज की मुख्य धारा में लाकर समरस भारतीय समाज का निर्माण करना है। इसी के तहत इन्हें आरक्षण दिया गया है और कई अतिरिक्त सुविधाएँ भी। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी विशेषाधिकार के कारण कुछ सुनवाइयों में यह सिद्ध कर दिया कि जब हिन्दू अधिनियम इन पर लागू ही नहीं होता तो बेशक ये हिन्दू नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ अधिवक्ता अरविन्द जैन के अनुसार “ उपलब्ध सूचना और तथ्यों के अनुसार आजतक इस सन्दर्भ में केन्द्र सरकार ने कोई आदेश/सूचना जारी नहीं की। ‘एक देश एक कानून’ के विकासशील दौर में भी शायद कानून मन्त्रालय को यह आभास तक नहीं हुआ है कि अनुसूचित जनजाति के सदस्य संविधान में हिन्दू हैं, मगर हिन्दू कानूनों के लिए नहीं हैं।”

यहाँ यह विशेष रूप से ध्यातव्य है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने तो आदिवासियों को हिन्दू मानकर मुख्य धारा में लाने के लिए उनके रीति-रिवाजों से बिना छेड़-छाड़ किए उन्हें विशेषाधिकार देने का अधिनियम बना दिया और साथ ही यह भी जोड़ दिया कि उनपर हिन्दू अधिनियम तब ही लागू होगा जब उचित अवसर जानकर केन्द्र सरकार कोई आदेश जारी करेगी। निश्चय ही हमारे संविधान निर्माताओं का उद्देश्य रहा होगा कि राज्य सरकार की संवीक्षा के आधार पर केन्द्र का कानून मन्त्रालय इस बात का गम्भीरतापूर्वक संज्ञान लेगा कि जनजाति के जो नागरिक मुख्यधारा के अनुरूप ढल गये हैं उनपर हिन्दू अधिनियम लागू करने का आदेश गजट के रूप में जारी होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ, इसके विस्तार में जाने जरूरत यहाँ नहीं है।

नतीजा यह हुआ कि मुख्य धारा में शामिल हुए कुछ जनजातीय नागरिकों को किसी कारण से न्यायालय में जाना पड़ा तो न्यायालय ने कानून के आधार पर उन्हें हिन्दू मानने से इनकार कर दिया। फलतः चालाक और निहित स्वार्थ के लालची कुछ मुख्य धारा में आए लोग इसका जायज-नाजायज फायदा उठाने लगे क्योंकि उनपर हिन्दू अधिनियम तो लागू होता ही नहीं था और उसके लिए समुचित उपाय केन्द्र के कानून मन्त्रालय ने किया नहीं था! तो क्या आदिवासी धर्म को जनगणना कोड में शामिल करने की कवायद से ज्यादा यह महत्वपूर्ण नहीं है कि अनुसूचित जनजातियों को कब मुख्य धारा से वास्तविक रूप में जोड़ा जाएगा? उन्हें कबतक हाशिये पर रखकर क्षुद्र राजनीति का खेल खेला जाएगा? क्या उन्हें उनकी नियति पर छोड़ कर केवल अलग धर्म कोड देकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेंगे? उनमें व्याप्त, भुखमरी, कुपोषण, रूढ़िवादिता, पिछड़ापन आदि को समझते हुए उसके कारगर उपाय के लिए धरातल पर ठोस और दूरगामी सार्थक पहल करना प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए?


यह भी पढ़ें – आदिवासी धर्म का सवाल


उपर्युक्त कुछ तथ्यात्मक सवाल शेष हैं जो मेरे विचार से धर्म कोड से ज्यादा ज्वलन्त होना चाहिए। उनके हिन्दू होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है? और उनकी जीने की पद्धति जब प्रचलित हिन्दू कर्मकाण्ड से अलग है तो वे हिन्दू नहीं हैं, इससे कोई इनकार भी नहीं करता है। परन्तु उनकी जीवन शैली का आधार यदि प्रकृति पूजा है तो हिन्दुओं में भी प्रकृति पूजा खूब प्रचलित है। सूर्य एवं नदी की उपासना, बरगद, पीपल, आम, आँवला, बेल, केला आदि वृक्षों की तथा गाय, बैल, सर्प, गरुड़, कौए आदि जीवों की पूजा भी हिन्दुओं में आम है। हिन्दुओं में शिव की सवारी बैल, दुर्गा की सवारी शेर, लक्ष्मी की सवारी उल्लू , विष्णु की सवारी गरुड़, गणेश की सवारी चूहा, कार्तिकेय की सवारी मोर, भैरव की सवारी कुत्ता- की जो कल्पना है वह प्रकृति पूजा नहीं तो और क्या है? इसलिए अगर हमारे संविधान निर्माताओं ने जनजातियों को हिन्दू के अन्तर्गत परिभाषित किया तो क्या गलत किया? हिन्दुओं और आदिवासियों में समानता इस बात को लेकर भी दिखाई जा सकती है कि दोनों ही पशु-पक्षी की पूजा करते हैं, दोनों ही सूर्योपासना करते हैं, दोनों को ही महादेव पर भरोसा है , दोनों ही बिना मूर्ति के जलदेव(इन्द्र)की पूजा करते हैं, दोनों ही पेड़-पौधों(वासुदेव)एवं पवन/वायु, अग्नि की पूजा करते हैं।इस दृष्टि से तो जनजातियों का हिन्दुओं से ज्यादा मेल दिखता है।

वर्षों पूर्व तो सभी भारतीय वनों में रहते थे, तो इस दृष्टि से सभी व्यक्ति आदिवासी हैं और जिस आर्य की बात की जाती है वे भी मूलतः प्रकृति पूजक ही थे। के विक्रम सिंह ने अपने यात्रा वृत्त ‘ कल्लू कुम्हार की उनाकोटि’ में त्रिपुरा के उनकोटि गाँव के बारे में बताया है कि वहाँ शिव की एक करोड़ से एक ही कम अर्थात उनाकोटि मूर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं। तो इससे यह पता तो चलता ही है कि कितने प्राचीन समय से हम सभी शिव की आराधना करते आ रहे हैं।सिन्धु घाटी सभ्यता में भी इसके प्रमाण मिलते हैं। शिव को आदि देव, आदिनाथ और आदि योगी भी कहा जाता है। आदि का अर्थ सर्वाधिक प्राचीन होता है तो शिव स्वयं आदिवासी थे और आर्यों ने उन्हें अपने देवों की श्रेणी में रख कर उन्हें देवाधिदेव महादेव के रूप में जनमानस का कण्ठहार बनाया तो समरस संस्कृति की शुरुआत भी बहुत पहले हो चुकी थी।

यही कारण है कि जनजातियों के ज्यादातर नाम हिन्दू देवी-देवताओं एवं हिन्दुओं के प्रचलित नाम पर हैं। चाहे वो शिबू हो, कार्तिक हो, हेमन्त हो, महादेव हो, मंजु हो, सुनीता या बाबूलाल आदि हो। बावजूद इसके आदिवासियों का अपना धर्म है और ये प्रकृति पूजक हैं, इससे कोई इनकार कर भी नहीं रहा है। किन्तु, इनका यह धर्म व्यवहार में है, सिद्धान्त में नहीं, इसलिए बहुतेरे लोगों को लगता है कि इनका यह धर्म दुनिया के बहुप्रचलित धर्मों के समान सम्प्रदाय विशेष नहीं है।तो क्या जनजाति के बुद्धिजीवी उनके प्राकृतिक धर्म को सम्प्रदाय का रूप देना चाहते हैं? क्या इससे उनमें भी कुछ सम्प्रदायगत कट्टरता या बेमानी बाह्याडम्बर का समावेश नहीं हो जाएगा और उनके विशुद्ध धार्मिक संस्कारों में किसी तरह का मानवीय स्वार्थ नहीं प्रवेश कर जाएगा? बौद्धिकों को इसे गहराई से सोचना ही पड़ेगा।

भारत की जनजातियों के धर्म के सम्बन्ध में कई तरह के भ्रम पिछले करीब तीन सौ वर्षों से राजनीति के कारण फैलाए गये हैं। जनगणना में 1871 से 1941 तक उनके लिए अलग स्थान देने की दुहाई जो लोग देते हैं वे यह क्यों नहीं समझते कि ब्रिटिश शासकों द्वारा उन्हें कभी सभ्य नहीं समझा गया। उनकी नजर में ये आततायी और उद्दण्ड थे क्योंकि वन-दोहन की उनकी साजिश को ये ज्यादातर नाकाम कर दिया करते थे। 1951 के बाद हमारे देश में छह बार जनगणना हो चुकी है। क्यों आज ही आनेवाली जनगणना पर यह सवाल उठाया जा रहा है? क्या इससे राजनीतिक निहितार्थ का संकेत नहीं मिलता है? आज जब संघ द्वारा जनगणना में जनजातियों से धर्म वाले कॉलम में हिन्दू लिखवाने की तैयारी के बीच कुछ विपक्षी नेताओं को इनके लिए दर्द उमड़ा है तो इनकी सदाशयता पर सन्देह होना स्वाभाविक ही है। जबकि तथ्य यह है कि जनजातियों को पंचायत के तौर-तरीकों पर निर्भर रखा जा रहा है, जिसके पीछे की मंशा क्या हो सकती है, इसे कहने की जरूरत नहीं है। इनके लिए परम्परा और पहचान की चिन्ता गम्भीरतर होती जा रही है। यही कारण है कि मुख्यधारा में शामिल हो रहे शिक्षित और पूर्ण रूप से सम्पन्न जनजाति भी अतीत के खूँटे से बँधे अपनी पहचान के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं।


यह भी पढ़ें – आदिवासी धर्म कोड की माँग


पिछले कई वर्षों से यह भी सुनियोजित तरीके से फैलाया जा रहा है कि आर्य तो बाहर से आए थे इसलिए वो बाहरी हैं और उनका सनातन धर्म पहले से रह रहे आदिवासियों पर चालाकी से थोपा गया है एवं अभी भी थोपा जा रहा है तो कई तरह की ‘सेनाएँ’ इनका प्रतिकार करने के लिए अपने काम पर लगी हैं जो भयावह ही नहीं दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही, साथ ही हमारी सामासिक संस्कृति पर कुठाराघात भी है। जब हम नृतत्त्व शास्त्र की बात करके आर्यों को बाहरी ठहरा रहे होते हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यही नृतत्त्व शास्त्र यह भी प्रमाणित करता है कि जिसे हम द्रविड़ और आदिवासी के नाम से आज जानते हैं वे भी इस देश में बाहर से ही आए हैं। दिनकर ने अपने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में लिखा है-“ अत्यन्त प्राचीन काल में आर्य, द्रविड़, आदिवासी और मंगोल-इन चार जातियों को लेकर भारतीय जनता की रचना हुई थी। जिन्हें हम आदिवासी कहते हैं उनके बीच नीग्रो और आस्ट्रिक उन दोनों जातियों के लोग शामिल हैं जों जातियाँ द्रविड़ पूर्व इस देश में आयी थीं। नीग्रो और आस्ट्रिक जातियों के मिश्रण से बने हुए लोग मुण्ड या शबर कहलाते हैं।”

भारतीय पौराणिक ग्रन्थों में आदिवासी शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है, वहाँ इन्हें अत्विका और वनवासी कहा गया है। आदिवासी शब्द किसी भी जनजातीय भाषा में नहीं है और न ही प्राचीन काल में इसका कभी प्रयोग हुआ है। इस शब्द का प्रचलन बीसवीं सदी से मिलता है। गाँधीजी ने इन्हें गिरिजन कहकर सम्बोधित किया था। भारतीय संविधान के अनुसार भी आदिवासी शब्द का प्रयोग किसी भी सरकारी दस्तावेज में नहीं करना चाहिए, लेकिन कुछ प्रादेशिक सरकारें और संगठन जान-बूझकर इस शब्द को बढ़ावा दे रहे हैं और एक बड़ी जनसंख्या को गुमराह भी कर रहे हैं क्योंकि आदिवासी शब्द अविकसित प्रकृति पूजक को ध्वनित करता है, जबकि अनुसूचित जनजाति का अपना विकसित धर्म है, दर्शन है और भाषाएँ हैं।

आधुनिक काल में बाहरी सम्पर्क में आने एवं ईसाई मिशनरियों के मिशन का महत्वपूर्ण लक्ष्य होने कारण इन्हें बड़े पैमाने पर ईसाई बनाया गया। कुछ लोग मुस्लिम और बौद्ध भी हुए। आजादी के बाद जैसे-जैसे इनका सम्पर्क कस्बों-नगरों से हुआ तो ये विधिवत हिन्दू भी बने। तो विकसित धर्म और दर्शन का वहन करने वाले ये अब स्वाभाविक ही अपनी धार्मिक पहचान के लिए संगठित हो रहे हैं। किन्तु सरकार के सामने कुछ व्यावहारिक कठिनाइयाँ हो सकती है क्योंकि पूरे देश में 2011 की जनगणना के अनुसार 705 प्रकार की जनजातियों को चिह्नित किया गया है। अब यदि जनसंख्या के बाहुल्य के आधार पर भी देखा जाये तो कई ऐसी जनजातियाँ हैं जो अपनी अलग पहचान के लिए संगठित होकर सरकार पर दबाब बना रही हैं।

कुछ लोगों का यह भी मानना है कि समाज शास्त्र के मिश्रित संस्कृतिकरण एवं समाज के सांस्कृतिक नेतृत्व की शक्ति से अनभिज्ञ लोग समय-समय पर एक सुनियोजित उद्देश्य से प्रेरित होकर इस तरह के मुद्दे उठाकर सामासिक समाज के ताने-बने को छिन्न-भिन्न करते हैं और गैर इच्छित चतुराई से थोपे जा रहे ईसाई धर्मान्तरण को न्यायोचित साबित करने के लिए कुतर्क के एक तोड़ के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिससे समाज में भाईचारे का माहौल बिगड़ता है। ऐसे लोग जनजाति समाज के विरुद्ध ही काम कर जाते हैं। उन्हें पता नहीं होता कि वे तरह-तरह के आरोप-प्रत्यारोप से सरना वालों में हिन्दू संस्कृतिकरण के परिणामस्वरूप चल रहे ध्रुवीकरण की प्रक्रिया अधिक मजबूत करते हैं और हार्दिक समरसता की खाई बढ़ती जाती है। इस काम में बहुत गैर जनजातीय लोग भी अपने को सोशल मीडिया पर सक्रिय रखते हुए शरारत करके सरना वालों को कमजोर करते हैं।


यह भी पढ़ें – एक झारखण्डी का यूनाइटेड नेशन के आदिवासी फॉरम से रूबरू


यह सच है कि जनजाति के कुछ लोग हिन्दू बन गये हैं किन्तु ईसाई बने जनजातियों की तुलना में नगण्य हैं। लेकिन हिन्दू बने कुछ जनजातियों की खीझ समाज के सांस्कृतिक नेतृत्व करने वाले समूह पर उतारना अनुचित है क्योंकि सरना या प्रकृति पूजक समुदाय अपने आप में सक्षम हैं। यह अलग बात है कि वे हिन्दू धर्म के सांस्कृतिक प्रभाव से मनोवैज्ञानिक रूप से जुडने से परहेज नहीं करते हैं क्योंकि बड़ी तादाद में वनवासी छोटे-बड़े कस्बों-शहरों में आ-जा रहे हैं। शहर के प्रसिद्ध मन्दिरों में और दुर्गापूजा आदि अवसरों पर वे मिश्रित संस्कृतिकरण के तहत भाग भी लेते रहे हैं, साथ ही हिन्दू भी उनके सरहुल, करमा आदि पर्वों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं तो यही तो हमारी समरस संस्कृति की खूबसूरती है।

इसी तरह अन्य भिन्न धार्मिक समुदाय वालों के पर्व-त्योहारों पर भिन्न धर्म वाले एकत्रित होते ही हैं जो मिश्रित संस्कृति की दिशा में स्वाभाविक रूप से बढ़ते भारतीय समाज के लिए शुभ संकेत हैं। अगर सरना वाले या और कोई दूसरे वनवासी जनगणना में अपने को हिन्दू लिखते हैं तो यह या तो राजनीतिक जागरूकता का अभाव है या जनगणना वालों का गैर जनजातीय होना है। हिन्दू लिखने के पीछे उनकी कोई ललक नहीं है। और इसी को लेकर यह भ्रम फैलाना कि अब तो सभी जनजातियों को हिन्दू बना दिया जा रहा है, एक सामाजिक अपराध भी है।इससे हमारी सामाजिक और राजनीतिक एकता बाधित हो रही है। जरूरत यह है कि हम वनवासियों को सही रूप में शिक्षित करें, उनमें सामाजिक और राजनीतिक चेतना विकसित करें तो वे स्वयं अपनी धार्मिक राह चुन लेंगे। इसके लिए राजनीतिक हलचल कोई समाधान नहीं हो सकता।

पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने दिनकर के ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की प्रस्तावना में लिखा है-“ भारत में बसने वाली कोई भी जाति यह दावा नहीं कर सकती कि भारत के समस्त मन और विचारों पर उसी का एकाधिकार है। भारत आज जो कुछ है, उसकी रचना में भारतीय जनता के प्रत्येक भाग का योगदान है। यदि हम इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाते तो फिर हम भारत को भी समझने में असमर्थ होंगे। और यदि भारत को हम नहीं समझ सके तो हमारे भाव, विचार और काम सब-के-सब अधूरे रह जायेंगे और हम देश की ऐसी कोई सेवा नहीं कर सकेंगे, जो ठोस और प्रभावपूर्ण हो।”

इसलिए जरूरत अभी है कि हम सारा ध्यान अपने भोले-भाले प्रकृति पूजक, निश्छल जनजातियों को शिक्षित करने एवं उनकी जीवन-पद्धति में अपेक्षित सुधार लाने में लगायें, यही उनके कल्याण का मार्ग है। मैं पण्डित नेहरू के उद्धरण से ही इस लेख को पूर्ण करना चाहूँगा-“ भारत के समग्र इतिहास में हम दो परस्पर विरोधी और प्रतिद्वन्द्वी शक्तियों को काम करते देखते हैं। एक तो वह शक्ति है जो बाहरी उपकरणों को पचाकर समन्वय और सामंजस्य पैदा करने की कोशिश करती है और दूसरी वह जो विभाजन को प्रोत्साहन देती है, जो एक बात को दूसरी से अलग करने की प्रवृत्ति को बढ़ाती है। इसी समस्या का, एक भिन्न प्रसंग में हम आज भी मुकाबला कर रहे हैं। आज भी कितनी बलिष्ठ शक्तियाँ हैं, जो केवल राजनीतिक ही नहीं, सांस्कृतिक एकता के लिए भी प्रयास कर रही है। लेकिन ऐसी ताकतें भी हैं जो जीवन में विच्छेद डालती हैं, जो मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव को बढ़ावा देती है।” हमें जोड़ने वाली ताकत का हृदय से साथ देना होगा और तोड़नेवाली ताकत का मजबूती से बहिष्कार करना होगा।

.

Show More

रत्नेश कुमार सिन्हा

लेखक शिक्षक हैं और भाषाविज्ञान में विशेष रुचि रखते हैं। सम्पर्क +918770651147, ratnesh.sinhadps@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x