परती परिकथा : एक आम पाठक की नजर में
‘परती परिकथा’, आदरणीय श्री फणीश्वरनाथ रेणु जी की कालजयी कृति हाथ में आते ही तत्क्षण मन की आँखों के समक्ष एक विशाल खाली भूखण्ड के ऊपर बसे परियों का देश का दृश्य कौंधता सा प्रतीत होता है। पहला पृष्ठ पलटते ही नजर पड़ती है, समर्पण वाले शब्दों पर, “भैया महेन्दर…. सिमराहा की सपाट धरती पर हज़ारों पेड़ लग गए हैं।” दिमाग ठनकता है, नहीं यह परिकथा परियों की कथा नहीं, शायद परती की हरी भरी होने की सुंदर कथा है.. बिल्कुल परिकथाओं जैसी कथा। और फिर आता है चार शब्दों का एक समूह ‘धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर।’ प्रथम परिवर्त’ की शुरुआती पंक्ति,जो कि इस उपन्यास का केन्द्र बिन्दु है, जिसके इर्द-गिर्द इस उपन्यास की कथा बुनी गयी है, ये चार शब्द लेखक और प्रकारांतर में इस उपन्यास के नायक जितेन्द्रनाथ मिश्र के दिल में फाँस की तरह अटके हुए प्रतीत होतें हैं, तभी तो यह गुंजतें हैं इस उपन्यास के अन्त तक…
इस परिवर्त का अन्त भी इन्हीं शब्दों से होता है…आगे भी आतें हैं ये शब्द आपको मूड स्विंग का शिकार बनाते हुए, कहाँ तो परियों की छबि आँखों में तैर रही थी और कहाँ एक उदास, वीरान, हरीतिमा विहिन बंजर धरती जिसे वन्ध्या होने का अभिशाप मिला है , ऐसे दृश्य का निर्माण होता है, आपके मन की आँखों में…। पर उसके बाद कोसी बाँध निर्माण की पृष्ठभूमि में लिखा यह उपन्यास अपनी कथा दर कथा आपको इस तरह बाँधता है कि आप इसे खत्म कर ही चैन पातें हैं, इस अनुभव के साथ कि यह सचमुच ही एक परिकथा है। और अन्त होने तक लेखक का विजन, नायक के प्रयासों से सफल होता हुआ ‘धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर।’ ‘बन्ध्या धरती’ की गर्भवती…. ‘आसन्नप्रसवा’ में तब्दील होने की कथा।
‘परती परिकथा’ रेणु का सन् 1957 में प्रकाशित द्वितीय बृहद उपन्यास के विषय में रामधारी सिंह दिवाकर ने एक बार कहा था, “रेणु की एक नयी भाषा थी। हिन्दी गद्य में उन्होंने काव्यात्मक लोच, संगीतात्मक, लोकगीतों के माधुर्य और गाँव की बोली के लय सप्तक को हिन्दी गद्य में उन्हें ध्वन्यांकित कर यह प्रमाणित कर दिया कि मिथिला के गद्य में भी विद्यापति सम्भव हो सकतें हैं।” एक ऐसा उपन्यास है जिसे हिन्दी साहित्य जगत का एक फलक उपन्यास मानने से ही इंकार करता है। देखा जाए तो यह उपन्यास से ज्यादा एक कथाचित्र, एक कथासागर या फिर एक महाकाव्यतमक उपन्यास है, क्योंकि पूरी किताब में भाषा से ज्यादा वहाँ की बोली और साथ ही वहाँ के वातावरण में गूंजते गीत संगीत, सांस्कृतिक परम्पराओं को इस तरह से पिरोया गया है कि इसमें हम मात्र किसी व्यक्ति विशेष की कथा नहीं पढ़ रहे होते हैं बल्कि ग्रामीण परिवेश वहाँ के लोगों के आचार व्यवहार, उनके सोच समझ को भी अच्छी तरह समझ पाते हैं… बल्कि उसी परिवेश का एक अंग बनकर जीतें भी है। रेणु ने ग्राम्य जीवन को जिया था, इसलिए वे वहाँ घटित हो रहे घटनाओं के प्रति तटस्थ नहीं थे।
जिस जीवन को जिया उसी का वर्णन किया, उसमें कल्पना की कोई जगह नहीं थी। यही कारण है कि यह उपन्यास तात्कालिन पूर्णिया अंचल के परानपुर गाँव के राजनीतिक, पारिवारिक, आर्थिक सांस्कृतिक और समाजिक जीवन के एक सटीक दस्तावेज के रूप में उभरा है। ‘परती परिकथा’ रेणु की सुप्रसिद्ध कृति ‘मैला आंचल’ के अगले क्रम की कहानी है जिसमें तात्कालिन समाज का हर वर्ग अपने हक के लिए जागरूक दिखाई पड़ता है.. यह जमींदारी उन्मूलन के तात्कालिक प्रभाव , लैंड सर्वे सेटलमेंट के जरिए हर व्यक्ति को उसके हिस्से के हक , भूदान आन्दोलन , दलितों और पिछड़ों के सर उठाने , आम जनमानस में उठते राजनैतिक चेतना , उपेक्षित वर्ग की महिलाओं तक शिक्षा के प्रचार – प्रसार , लोकतन्त्र के चौथे स्तंभ मीडिया के बढ़ते प्रभाव के साथ – साथ परानपुर की स्थानीय भाषा, लोक परम्परा, लोक गीत इन सब को संजोए हुए एक महाकाव्य की तरह है, जिसमें दो पीढ़ियों की बहुत ही रोचक कथा को कहने के लिए सुरपति राय, भवेश, और उनके हाथ लगे मिसेज रोज़उड की डायरी और पत्रों का इस्तेमाल करते हुए फ्लैशबैक तकनीक का भी बखूबी इस्तेमाल हुआ है… “गीतवास हाट के पास रजौड़ गाँव के ताँती-परिवार में उसे कागजात का एक गट्ठर मिला है। फटे-चिटे, दीमकभुक्त कागजों में लोकगीत तथा लोककथा संकलित है। …पत्र लेखिका का हस्ताक्षर अस्पष्ट है। किन्तु सुरपति ने ठीक ही पढ़ा मिसेस… रोज़उड!”
यथार्थ के धरातल पर लिखा गया यह उपन्यास अपने विभिन्न पात्रों का परिचय ठेठ गंवई दृष्टिकोण और गंवई अंदाज में अपने पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है।
सबसे पहला परिचय होता है पंडुकी से, जो समझती है वन्धया धरती की पीड़ा, क्योंकि वह एक वन्धया रानी की परिचारिका रह चुकी है। पंडुकी का पुत्र जित्तु की बहुत इच्छा थी वन्धया रानी का सुख – समृद्धि वापस लाने की.. पर वह नहीं कर पाया ऐसा… लेकिन एक दूसरा जित्तन सफल हो जाता है परानपुर के डेढ़ हजार बीघे के परती को उपजाऊ बनाने में वन्ध्या धरती की सुख समृद्धि को वापस लाने में। एक कथा बूढ़ा भैंसवार भी कहता है, कैसे कोसी मैया अपनी सास ननदों के जुल्मों से तंग आकर बेतहाशा अपने मैके ‘तिरहौत राज’ भागीं, बीच में हजारों हजार लोगों को मारते, धरती को वीरान करते, तभी थमीं, जब छोटी सौतेली बहन ‘दुलारीदाय’ दीप लेकर आ खड़ी हो गयी, वह जहाँ रुकी वहीं की जमीन ऊँची यानि ‘कच्छपपृष्ठसदृश’ हो गयी..तन्त्र साधना करने के उपयुक्त और दुलारीदाय को मिला ढ़ेर सारा आशीष ।
इन कथाओं के पात्र के बाद आगे के पृष्ठों हमारा परिचय होता है अपेक्षाकृत पढ़े लिखे और संभ्रांत पात्रों से। युवक कैमरा मैन भवेशनाथ एम. ए. की परीक्षा देकर आया है परती के विभिन्न रूपों का अध्ययन करने, सुरपतिराय नदियों के घाट के नाम से जुड़ी कहानी और लोकगीतों पर थीसिस लिख रहा है, और उसके बाद जितेंद्र नाथ मिश्र, इस उपन्यास के सबसे महत्वपूर्ण पात्र… आप इसे नायक भी कह सकते हैं, हालाकि इसमें रेणु ने अंचल को ही मानवीय चरित्र और नायकत्व देने की कोशिश की है। काशी विद्यापीठ के स्नातक जितेन्द्रनाथ मिश्र जिसे गाँव के लोग पगलेट कहतें हैं परंतु “जित्तन बाबू की बातचीत, भोजन, टी सेट, ड्रेसिंग गाउन आदि को गौर से देखने सुनने के बाद सुरपति को एक ही शब्द सूझा—रिफाईंड आदमी।” उसका अलग कल्चर है ‘दीवार पर देगाँ की एक तस्वीर की कॉपी फ्रेम में लटकी है – – आधा दर्जन अर्ध नग्न नर्तकियों की टोली’ अपने एस्थेटिक सेंस के वेशभूषा, सोचने का ढंग के कारण…
शायद और सबसे बढ़कर बचपन की परवरिश, एक अँग्रेज मां रोज़उड के सान्निध्य का असर, जो उनके व्यक्तित्व पर जिन्दगी भर रहता है, गाँव के लोगों के लिए निहायत ही अजूबा था, शायद इसीलिए उन्हें लोग असामान्य या पागल समझते थे, “पहिराव-पोशाक देखकर ही गाँववालों ने पागल कहना…!” पागल भिम्मल मामा..विजय मल्ल महामहोपाध्याय.. व्ही. मल्ल. का भिम्मल और म. म. का मामा, भी समझें जातें हैं, “वे किसी के मामा नहीं..” और क्यों नहीं समझें जायेंगे , हरकतें ही ऐसी करतें हैं.. “मामा दैनिक अथवा साप्ताहिक पत्रिका नहीं पढ़ते। बासी मासिक पत्रिका ही पढतें हैं।” आठ बार मैट्रिक फेल मामा की अपनी शब्दावली है, दिमाकृषि, सेक्सोलोजिया,. दुखदाएंड और बनस्पतिया… मतलब बनस्पति घी की तरह नकली, मिलावटी और सबसे बढ़कर उनका मुस्लिम लीग का मेंबर होना… एक बिल्कुल ही अलग तरह के चरित्र। खैर बात हो रही थी जितेन्द्रनाथ मिश्र की, जो, अपने समान्तवादी, एक सिद्ध तांत्रिक, बहुत ही धूर्त, जालसाज, जिसने रानी इंद्रानी का जाली दानपत्र बनवाकर डिगबी की जमीन पर अपना हक कायम कर लिया था, ऐसे पिता शिवेन्द्रनाथ मिश्र के इकलौते वारिस, परती के डेढ़ हजार बीघे, दुलारीदाय के पाँच कुंडो आदि के मालिक और जमींदार होने के बावजूद अपने पिता के विपरीत, जमींदारी वृति से मुक्त वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला ऐसा व्यक्ति है जिससे पाठकों को अनायास ही स्नेह हो जाता है।
प्रगतिशील विचारों वाले, फैशनपरस्त जितेन्द्रनाथ मिश्र जिसे गाँव के लोग जित्तन बाबू कह कर पुकारते हैं, एक आकर्षक, अपडेटेड और संभ्रांत व्यक्ति होने के बावजूद अविवाहित रह जाता है। हालांकि उसकी जिन्दगी में अपूर्व सुंदरी नट्टिन ताजमनी है जिसे वह अपनी रक्षिता बताता हैं, उसे प्रेयसी का प्यार, पत्नी का समर्पण और मां का वात्सल्य सब कुछ देती है। ताजमनी अपेक्षाकृत पढ़ी – लिखी परंतु ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिला है और साथ ही रक्षिता के टैग के कारण कदाचित संभ्रांत या शहरी परिवेश के दृष्टिकोण से अपेक्षाकृत कुछ कमतर दिखाई पड़ती है, तो इस कमी को पूरी करती है इरावती। इरावती मल्होत्रा, एक शरणार्थी पर राजनीतिक महिला, जिसने बंटवारे की विभिषका के क्रूरतम परिणामों को झेला है, बंटवारे के समय का दृश्य जीवंत है उसकी आँखों में, बहुत बार उसका बलात्कार हुआ है, उसने, ‘सडे़ हुए संतरों की तरह सड़कों पर कटी हुई छातियों को लुढ़कते देखा है।’ हजारीबाग रोड स्टेशन पर उसकी मुलाकात हुई जितेन्द्रनाथ से और उसी दौरान उन दोनों का प्यार पनपा। जितेन्द्रनाथ का चरित्र पूरे उपन्यास में एक विस्तर पाता है और बाकी सारे चरित्र उसी के इर्द-गिर्द घुमते हुए, कभी हमें विस्मित करतें हैं, कभी हमारे होठों पर मुस्कान लातें हैं, कभी हमारे दिल में घृणा उत्पन्न करते हैं, कभी एक लिजलिजी सी भावना उत्पन करतें हैं और कभी अपनी मासूमियत से मन मोह लेतें हैं।
एक-एक कर के बहुत सारे पात्र हैं … सैकड़ों पात्र पर कोई भी पात्र लादा हुआ नहीं.. हर पात्र की अपनी विशेषता.. कि अगर उनको हटा दिया जाये तो वहाँ के गाँव – समाज के कैनवास पर पेंटिंग अपूर्ण सा लगे।
शिवेन्द्रनाथ मिश्र की अर्जित संपत्ति को उस पीढ़ी से इस पीढ़ी तक बनाने या बिगाड़ने की प्रवृति रखने वाले चरित्रों में ताजमनी के अलावा लरेना खवास, उसका बेटा लुत्तो खवास और मुंशी जलाधारी लाल दास, “मुंशी जलाधारी लाल दास तहसीलदार और रमपखारन सिंह…. जमींदारी की रक्षा की। जमींदारी -उन्मूलन की चपेट से इस्टेट को बचाने का श्रेय जलाधारी लाल दास को है।” छद्मबधिर मुंशी शिवेन्द्रनाथ मिश्र की ही तरह कानूनी दावपेंच और कलम के जोर पर बड़े से बड़े हाकिमों का फैसला अपनी तरफ करने में माहिर है। लरेना खवास, शिवेन्द्र मिश्र का सबसे विश्वसनीय सहयोगी सबसे विश्वासघाती चरित्र के रूप में उभरा है, लेकिन उसकी करनी की सजा मिलती है उसकी पीठ पर गर्म सलाखों से ‘दगाबाज़’ लिखकर। इस दुर्धर्ष दृश्य का साक्षी रहा उसका पुत्र लुत्तो अपने हृदय में, शिवेन्द्र मिश्र के पुत्र जितेन्द्र मिश्र के प्रति, प्रतिशोध की आग के साथ जवान हुआ है, सत्ताधारी पार्टी का स्थानीय नेता है,”मिसिर के बेटे को दागने के साध लिए ही तो वह कांग्रेस में आया है।”
एक और चरित्र है कुबेरसिंह, अगर जितेंद्र मिश्र नायक है तो वह खलनायक की भूमिका में है। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए वह जितेंद्र जैसे अराजनीतिक आदमी को राजनीति के दलदल में खींच लेता है,” जितेंद्र कबूल करता है,
‘राजनीति’ लिखने में वह हमेशा गलती करता।” कुबेर सिंह सूरत और सीरत दोनों से कुरूप था.. वीभत्स था। उसने एक नयी पार्टी बनाई, ‘प्रगतिशील समाजवादी पार्टी’..
बकौल उसके जितेंद्र उसका ‘प्राइवेट सेक्रेटरी’, था लेकिन जैसे ही उसने महसूस किया कि सहज, सौम्य, सुदर्शन, सुशिक्षित, जितेंद्र का राजनीतिक कद बढ़ रहा है, वह सुभाषचंद्र बोस जैसे व्यक्तित्व का स्नेहपात्र बन रहा है, और सबसे बढ़कर उसके यौन शोषण प्रवृत्ति के आड़े आ रहा है, उसने ऐसी गंदी चाल चली कि सारी मीडिया, सारी दुनिया, ‘चरित्रहीन’ जितेंद्र के लिए जेल के अलावा कोई और जगह सोच ही नहीं सकती थी। तीन वर्षों तक जेल की यातनाओं को भुगतकर जब बाहर आया, फिर से जीने की कोशिश की… फिर कुबेरसिंह ने प्रांत की राजनीति और मीडिया में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर उसे अपने गाँव लौटने पर मजबूर कर दिया। गाँव ने उन्हें शरण तो दिया, लेकिन गाँव के लोगों ने उसे स्वीकार नहीं किया…वेशभूषा एक कारण तो था ही, कुबेरसिंह की प्रताड़नाओं ने भी कहीं न कहीं उन्हें मानसिक तौर पर हिला दिया था, यह सुरपति ने भी महसूस किया था, ‘आँखों की पुतलियाँ अस्वाभाविक ढंग से थरथरा उठतीं हैं।
“गाँव लौटकर जितेंद्र अपना सारा ध्यान और समय सैकड़ों वर्षों से परती जमीन को खेती लायक बनाने में लगाया और सफल भी हुआ। हालांकि यह काम आसान नहीं रहा। कोसी नदी घाटी योजना के क्रियान्वयन में अग्रणी भूमिका निभाने के एवज उसे गाँववालों के हिंसा का शिकार होना पड़ा, जिसमें उसके वफादार कुत्ते मीत की जान चली गयी। पर इतना सब करने से भी इरावती के इस ‘परतीपुत्तर’ को चैन नहीं मिला , वह अपने आप को समष्टि की एक इकाई के रूप में देखना चाहता है “अतिरिक्त संचय के बाद दान ही एकमात्र मार्ग है कल्याण का” सो वह दान का मार्ग अपनाता है…भूमिहीन किसानों के दावे को स्वीकार करता है अकेलेपन के अंधकार से निकलने के लिए ही वह परानपुर उत्सव का आयोजन भी करता है। इसके चरित्र को भिम्मल मामा ने चार शब्दों में परिभाषित कर दिया है ‘तांत्रिक का बेटा गणतांत्रिक!’
इसके अलावा भी तात्कालिन ग्रामीण परिवेश एवं वहाँ हो रहे परिवर्तन को हाईलाइट करने के लिए कुछ पात्रों का समावेश किया गया है, जिनके मुख से निकला एक वाक्यांश पर्याप्त है, वहाँ का संपूर्ण और स्पष्ट चित्र पाठक के मनः मस्तिष्क में प्रस्तुत करने के लिए।
दिलबहादुर का खुकरी लेकर ‘काट – छूँ?’ पर्याप्त है बताने के लिए उसकी स्वामिभक्ति और बहादुरी। सामबत्ती पीसी का ‘घरघुमनी’ विशेषण, हर बात की खबर है उनको.. मलारी और सुवंश के बीच पनपते रिश्ते की भी.. और हुनर भी इस खबर को वायरल करने की।
गंगा काकी का, “देख तजमनियां डंगरिन से पेट छुपाती है” कहना, या औरतों का बातचीत में “रंडी – पतुरिया का बैस का पता थोड़े लगता है..?” एक साथ ताजमनी के रूप और सामाजिक हैसियत से अवगत करा देते हैं।
फेंकनी की माय का तकिया कलाम..’ “आकि देखो” बरबस ही बतरस की शौकीन ग्रामीण महिलाओं के झूंड का चित्र प्रस्तुत करता है। इसी श्रेणी के अनपढ़ लोगों के दो और पात्र… मलारी के माता-पिता, मलारी… ‘दि हरिजन ग्लोरी’, सुंदरता और बुद्धि में ताजमनी के ही समकक्ष, पर युग के साथ प्रगति करती हुई, मिडिल पास, स्कूल में टीचर की नौकरी और सबसे बढ़कर ऊँची जाति के लड़के सुवंश के साथ अपने प्रेम संबंधों पर शादी की मुहर लगाने वाली। मलारी के प्रगतिशील व्यवहार और उस के अनपढ़ हरिजन माता – पिता का उन व्यवहारों के प्रति प्रतिक्रिया द्वारा इस उपन्यास में हास्य रस का पुट दिया गया है। चेयरमैन द्वारा किये गये “मौखिक कोसचन” की व्याख्या उसके पिता के द्वारा “मुख में कलम खोंच दिया” करना या उसकी मां द्वारा “मासिक पत्रिका” शब्द को “मासिक धर्म” से जोड़ते हुए सुवंश लाल को झिड़की देना, पाठक के होठों पर बरबस ही मुस्कान ला देता है।
इस उपन्यास की सबसे रहस्यमयी और विस्मित कर देने वाली पात्र है इतिहास के पन्नों से निकली अँग्रेज महिला ‘पूरब पगली’.. मिसेज रोज़उड, कन्वर्ट हिंदु, गीता मिश्रा जो सुदर्शन, बाहुबली, और अत्यंत ही चालबाज, परानपुर स्टेट के पत्तनीदार, शिवेन्द्रनाथ मिश्र के चरणों में अपना सर्वस्व अर्पित कर अपने आप को धन्य समझती है। रोज़उड की डायरी के माध्यम से, उसके द्वारा लिखे शब्दों के माध्यम से तत्कालिन घटनाओं का जीवन्त इतिहास प्रस्तुत किया गया है।
उपन्यास में पात्रों के और घटनाओं के चित्रण के लिए इस तरह के शब्दों का उपयोग किया गया है कि आँख और दिमाग के साथ हमारी श्रवण इन्द्रियाँ भी सजग हो जातीं हैं और हमें किसी बहुत ही हिट फिल्म देखने जैसा अनुभव प्रदान करतीं हैं।
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