सामयिक

पनिहारिन की पीड़ा

 

कई संभ्रात घरों में हम सीनरी देखते हैं, जिसमें कई पनिहारिन सर पर घड़े रखकर आते हुए दिखाई देती है। यह तस्वीर बहुत ही सुंदर लगती है। क्योंकि इसमें ग्राम्य जीवन के दर्शन होते हैं, जो शहरियों के लिए दुर्लभ हैं। ऐसे चित्र भले ही हमारे ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाते हों, पर इसकी वास्तविकता बहुत ही भयावह है। ऐसे चित्र यह बताते हैं कि हमारे देश के नेताओं ने जल संकट को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया। आजादी के 7 दशक बाद भी यदि लोगों को पीने के लिए शुद्ध पानी न मिले, तो इसे विडम्बना ही कहा जाएगा। दूसरी ओर शहरियों को पर्याप्त पानी मिलता है, पर वे उसकी कीमत नहीं समझ पा रहे हैं। हमारे देश के गांव अब भी प्यासे हैं।

बचपन में पनिहारिन का चित्र बनाते समय हमें अच्छा लगता था। वह पनिहारिन गांव के कुएं पर पानी भरने जाती है और सर पर तीन घड़ों को लेकर चली आती है। ऐसे चित्र बचपन में खूब बनाए। पर यह कभी नहीं समझ पाए कि ऐसी स्थिति तब आती है, जब गांव प्यासे होते हैं, गांव की प्यास बुझाने के लिए महिलाओं को इस तरह से कड़ा परिश्रम करना होता है। पानी लाने की पूरी प्रक्रिया यातना से भरी होती है। चित्र में यह यातना दिखाई नहीं देती। आज जब कथित रूप से समझदार हो गए हैं, तब लगता है कि चित्र बनाना आसान है, पर चित्र को जीना कितना मुश्किल है?

आओ, ज़रा समझने की कोशिश करें, एक महिला की जल यात्रा की यातना। गर्मी के दिनों में सुबह उठते ही यह पता लगाना होता है कि आज पानी कहां से लाना है। आज पानी कहां से मिलेगा। कल जहां से लाया था, वह स्रोत तो सूख चुका होगा। आज नए स्रोत का पता लगाना होगा। बिना किसी नेटवर्क के इस स्रोत का पता लगाना कितना मुश्किल होता है, यह तस्वीर में कभी नहीं दिखाया जा सकता। इस पीड़ा को केवल गांव की महिला ही समझ सकती है। आखिर कौन समझेगा इन पनिहारिन की पीड़ा को?

हमें आजादी मिले 7 दशक हो गए। इन 72 वर्षों में हम सब कहां से कहां पहुंच गए। कितने ही चुनाव निकल गए, पर पानी का सवाल आज भी पूरी शिद्दत से खड़ा है। इस चिलचिलाती गर्मी में केवल मानव ही नहीं, पर पशु-पक्षी भी हैरान होते हैं। उन्हें न तो छाया मिलती है और न ही पानी। ऐसा लगता है कि देश के कर्णाधारों ने कभी इसे गंभीरता से लिया ही नहीं। यह एक मूलभूत समस्या है। इसका निराकरण अब तक हो ही जाना था। पर ऐसा हो नहीं पाया।

पानी की कमी जहां है, वहां आज भी कोई अपनी बेटी देना नहीं चाहता। आज लड़का देखने के पहले अभिभावक यह पहले देखते हैं कि उसके शहर, कस्बे या गांव में पानी की कमी तो नहीं। यह समस्या आज विकराल रूप ले चुकी है। पर अभी तक कोई इसे समस्या मानने को ही तैयार नहीं है। जब हमें आजादी मिली, तब पानी की कमी नहीं थी, पर उसके बाद पानी के रख-रखाव और उसके इंतजाम पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। आज भी देश की नदियों का पानी समुद्र में जा रहा है। दूसरी ओर पानी का संकट पैदा हो रहा है। पानी के बिना हजारों किलोमीटर तक फैली जमीन बंजर पड़ी है। हजारों वृक्ष सूखने लगे हैं। गर्मी में जंगल के राजा ही नहीं, बल्कि छोटे-छोटे पशु-पक्षी मौत के आगोश में समा जाते हैं। कई जानवर पानी की तलाश में इंसानी आबादी की तरफ जाने लगते हैं। चुनावों में पानी का मुद्दा उछलता अवश्य है, पर चुनाव के बाद ऐसा कुछ नहीं होता, जिसे रेखांकित किया जा सके।

हृदय की धड़कन को जारी रखने के लिए पानी आवश्यक है। जमीन का पानी लगातार दूर होता जा रहा है। अब तो 300-400 फीट तक पानी नहीं मिलता। धरती की छाती पर रोज हजारों छेद होने लगे हैं, इसी पानी के लिए, पर किसी के चेहरे का पानी नहीं उतर रहा है।  हमने बहुतों को पानी पिलाया,पर अब पानी हमें रुलाएगा, यह तय है। सोचो वह रोना कैसा होगा, जब हमारी आंखों में ही पानी नहीं रहेगा? वह दिन दूर नहीं, जब यह सब हमारी आंखों के सामने ही होगा और हम कुछ नहीं कर पाएंगे। यह हमारी विवशता का सबसे क्रूर दिन होगा, ईश्वर से यही कामना कि वह दिन कभी नहीं आए। पर आज पानी की बरबादी को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि धीमे कदमों से एक भयानक विपदा हमारे पास आ रही है, हम सब केवल उसका इंतजार ही कर सकते हैं। इन सारी बातों को देखते हुए यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि इक्कीसवी सदी पानी की तंगी के लिए जानी जाएगी।

मुहावरों की भाषा में कहें तो अब हमारे चेहरें का पानी ही उतर गया है। कोई हमारे सामने प्यासा मर जाए, पर हम पानी-पानी नहीं होते। हाँ, मौका पडने पर हम किसी को भी पानी पिलाने से बाज नहीं आते। अब कोई चेहरा पानीदार नहीं रहा। पानी के लिए पानी उतारने का कर्म हर गली-चौराहों पर आज आम है। संवेदनाएँ पानी के मोल बिकने लगी हैं। हमारी चपेट में आने वाला अब पानी नहीं मांगता। हमारी चाहतों पर पानी फिर रहा है। पानी टूट रहा है और हम बेबस हैं।

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महेश परिमल

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं| सम्पर्क +919977276257, parimalmahesh@gmail.com
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