धर्म

मोदी से लड़िये लेकिन राम से नहीं

 

(लोक‌ मान्यताएं चाहे जितनी निराधार, असत्य या गैरजरूरी हों, जड़ ही‌ क्यों न हों, वे किसी भी तरह के विरोध, ऐतराज का प्रतिकार करती हैं। उन्हें तार्किक विचारों से विस्थापित करने में समय लगता है। राजनीति के सामने इतना लम्बा समय नहीं होता। वह चुनावी परिणाम चाहती है। वह तात्कालिकता में जीती, काम करती है। उसका स्वार्थ समझ में आता है। मंदिर मुद्दे पर विपक्ष के अप्रासंगिक हो जाने के पीछे यही कारण है। जनता तक यह संदेश नहीं पहुंच पा रहा कि वे नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध हैं, उनकी कार्य शैली के विरुद्ध हैं। यह संदेश बहुत साफ पहुंच रहा है कि वे मंदिर के विरुद्ध हैं, राम के विरुद्ध हैं, अयोध्या के विकास के विरुद्ध हैं। वे बार-बार कह रहे हैं कि राम कण-कण में हैं, वे राम के विरुद्ध नहीं हैं, लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं।)

 

राम की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा के दिन लखनऊ के सारे मंदिरों में लोग जुटे, गाना-बजाना, भजन-कीर्तन हुआ। चारों ओर उत्सव का माहौल था। टेम्पो वाले भगवा ध्वज टाँगे चल रहे थे। मोहल्ले में पटाखे छूट रहे थे। शाम को मैं बाहर निकला तो मेरे घर के आस-पास की झोपड़ियों के बाहर दीये जल रहे थे। वे गरीब लोग जीविका कमाने के लिए शहर में आ बसे हैं। कोई घर नहीं, किराये पर रह नहीं सकते तो खाली पड़े प्लाटों पर झोपड़ियां डाल ली हैं। नहीं पता उनका जीवन कितनी कठिनाइयों में चलता है। दोनों वक्त ठीक से रोटी बनती है या नहीं लेकिन वे खुश हैं कि अयोध्या में राम को प्राण मिला। ऐसा ही उल्लास का वातावरण देश के तमाम शहरों, गांवों में रहा होगा। उन गरीबों की झोपड़ियों में टीवी भी नहीं है कि देख पाते अयोध्या का उत्सव। वहां नरेंद्र मोदी का कोई सन्देश नहीं आया, न ही कोई राजनीतिक कार्यकर्ता आया उनसे कहने कि दीप जलाओ। बस सुन के जान रखा होगा कि अयोध्या के राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो रही है। बुद्धिजीवियों के तर्क उन तक नहीं पहुंचे, विपक्षी दलों की बहिष्कार की बातें उन तक नहीं पहुँची। वहां उनकी जिंन्दगियों में तो बस अँधेरा ही रहता है। पता नहीं सब्जी तलने के लिए तेल होगा भी या नहीं लेकिन दीये जलाने के लिए तेल बचा लिया। इस भारतीय मन का क्या करेंगे? इसे कैसे बदलेंगे?

अयोध्या के उल्लस को देख विरोधी दलों के नेता भी अपने-अपने इलाकों के मंदिरों की ओर भागते नजर आये। मोदी के विरोधी भले उन्हें अस्वीकार करें लेकिन आम भारतीयों के मन में उन्होंने अपनी स्वीकारता की जो एक बड़ी लकीर खींची है, उससे कैसे निपटेंगे? बात गंभीर है, गंभीरता से समझने की है। मंदिर जिन्हें कुछ देता नहीं, वे क्यों खुश होते हैं मंदिर बनने से, वे क्यों राम की प्राण प्रतिष्ठा के उत्सव में चुपचाप शामिल हो जाते हैं?

जो सच को जानता है, उसके लिए मंदिर की जरूरत नहीं, मसजिद, गिरिजाघर, गुरुद्वारे की भी नहीं लेकिन जो नहीं जानता है, उसे तो कोई आश्रय चाहिए। जो सच को जानता है, उसे किसी‌ मूर्ति की जरूरत नहीं लेकिन जो नहीं जानता है, उसके लिए तो कोई एक दरवाजा चाहिए। जो‌ जानते नहीं, जानना भी नहीं चाहते, जो समझते हैं कि मान लेना ही पर्याप्त है, उनको भी माने हुए की छवि चाहिए, छवि नहीं तो शब्द चाहिए। इसीलिए धर्मों के जन्म से ही उनकी भौतिक सत्ताओं का भी जन्म हुआ। मंदिर बने, मसजिद, चर्च, गुरुद्वारे बने। दुनिया भर में हजारों बड़ी-बड़ी इमारतें हैं। उन्हें बनाने वाले मिट गये, वे रह गयीं। वे भी अनंतकाल तक नहीं रहेंगी लेकिन मनुष्य उन्हें बार-बार बनाता रहेगा।

रामराज्य का स्वप्न

तत्व और सत्य की खोज में कुछ लोग एकांत में चले जाते हैं। जंगल में, पहाड़ों में‌। कोई जरूरी‌ नहीं कि एकांत में उन्हें वह मिल ही‌ जाय, जिसकी तलाश में उन्होंने ऐसा रास्ता चुना। भारतीय जीवन में यह व्यावहारिक सत्य कभी नहीं रहा। संतों ने घर में रहकर वह सब हासिल किया, जो महान सन्यासियों को जंगलों में नहीं मिला। हमारी उत्सव की संस्कृति रही है। मंदिर भी इसी उत्सव का हिस्सा रहे।‌ मंदिरों की सत्ता को समय-समय पर चुनौती भी दी गयी। जब भी वे जड़ता का केन्द्र बने, जब भी उनके दरवाजों पर जाति, धर्म, नियम की‌ कुंडियां लगीं, उन्हें अस्वीकार किया गया। लेकिन यह अस्वीकृति बहुत देर तक कायम नहीं रही। इसका कारण यह था कि इस देश का आम जनमानस अपने पूर्वजों से अर्जित जीवन के बहुत सरल और व्यावहारिक ज्ञान में विश्वास करता आया है। उसके पास तत्वज्ञान की खोज के लिए समय नहीं है लेकिन वह थोड़ा समय धूप-दीप जलाने के लिए, अपने भगवान के दर्शन के लिए निकाल लेता है। वह नहीं जानता कि इससे कुछ भी होने वाला नहीं, वह इसे जान‌ना भी नहीं चाहता। इसका कोई भी क्या कर सकता है? आप उन्हें मूर्ख कह लें, जड़ कह लें लेकिन उन्हें बदल नहीं सकते। क्या कर सकते हैं कबीर, रैदास? क्या कर सकते हैं बुद्ध, महावीर? उनके नाम पर हजारों मदिर खड़े हो गये हैं। आप बहिष्कार कर दीजिये, आप न जाइये वहां, आप उन्हें कुछ भी कह लीजिये, उन पर क्या असर होगा। वे बहुत सरल, सामान्य लोग हैं जो अपने प्रिय के विरुद्ध कुछ भी सुनना नहीं चाहते। आप उन्हें प्रेम नहीं करते तो वे भी आप को प्रेम नहीं करेंगे। कबीर या बुद्ध को मानने वाले स्वयं कबीर या बुद्ध तो नहीं हो गये न? इसी तरह राम को मानने वाले क्या स्वयं राम हो जायेंगे? आप जितने भी तर्क दीजिये राम के विरुद्ध, क्या फर्क पड़ता है? वे यह भी‌ नहीं समझते कि वे इस्तेमाल हो रहे हैं, अगर वे इस्तेमाल भी हो रहे हैं तो वे प्रसन्न हैं इस्तेमाल होकर।

यह सच है और इस सच को समझे बिना अगर आप इसे अज्ञान कहते हैं और इससे लड़ते हैं तो आप का यह युद्ध खुद के ही खिलाफ जायेगा। अगर आप की लड़ाई इस अज्ञान को मिटाने की लड़ाई है तो अच्छी बात है। फिर तो आप यह सोचकर लड़ेंगे कि एक जीवन काफी नहीं है। हमारे पुरखे लगातार लड़ते आये हैं, इसलिए हमें भी लड़ना है। यह बहुत खतरनाक लड़ाई है। हमें मालूम है कि हमारे ज्ञात इतिहास में धार्मिक सत्ताओं का विरोध करने वाले हमेशा समाज में अकेले पड़ गये, धकियाये, गरियाये गये और कई बार मारे भी गये। आप को इस नियति के लिए भी तैयार रहना होगा।

परन्तु यदि आप सीमित उद्देश्य के लिए मंदिर और मूर्तियों की सत्ता से लड़ने निकले हैं तो आप को बहुत कामयाबी नहीं मिलने वाली है। आप अधार्मिक, राम विरोधी, जनविरोधी करार दिये जायेंगे। हम दस साल से देख रहे हैं। जो तत्वतः धर्म के विरुद्ध हैं वे सर्वाधिक स्वीकृत हैं। वे देश के बड़े जनमानस के भीतर बैठी आस्था को भौतिक आधार प्रदान कर रहे। लोगों को इससे क्या कि उनके मन में क्या है, इससे भी क्या कि वे इसे सत्ता की सीढ़ियों की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। पहले भी किया है, आज भी कर रहे हैं, आगे भी करते रहेंगे। उनकी मंशा पर सवाल कम होंगे, क्योंकि वह व्यापक जनास्था के पक्ष में है। आप के विरोध को संदेह से देखा जायेगा क्योंकि वह लोक‌ मान्यता के विरुद्ध है। लोक‌ मान्यताएं चाहे जितनी निराधार, असत्य या गैरजरूरी हों, जड़ ही‌ क्यों न हों, वे किसी भी तरह के विरोध, ऐतराज का प्रतिकार करती हैं। उन्हें तार्किक विचारों से विस्थापित करने में समय लगता है। राजनीति के सामने इतना लम्बा समय नहीं होता। वह चुनावी परिणाम चाहती है। वह तात्कालिकता में जीती, काम करती है। उसका स्वार्थ समझ में आता है। मंदिर मुद्दे पर विपक्ष के अप्रासंगिक हो जाने के पीछे यही कारण है। जनता तक यह संदेश नहीं पहुंच पा रहा कि वे नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध हैं, उनकी कार्य शैली के विरुद्ध हैं। यह संदेश बहुत साफ पहुंच रहा है कि वे मंदिर के विरुद्ध हैं, राम के विरुद्ध हैं, अयोध्या के विकास के विरुद्ध हैं। वे बार-बार कह रहे कि वे मानते हैं कि राम कण-कण में हैं, वे राम के विरुद्ध नहीं हैं, लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं।

विपक्ष की यह बहुत बड़ी परेशानी है कि वह उन सच्चाइयों पर बात बहुत कम करता है, जिन पर जनता भरोसा कर सकती है। कौन नहीं जानता कि देश में गरीबी है, वह बढ़ती जा रही है। देश की 90 प्रतिशत सम्पदा कुछ गिने-चुने लोगों के पास है। गरीब और गरीब हुआ है, अमीर और अमीर। 80 करोड़ लोग अपने खाने का प्रबंध नहीं कर सकते। सरकार खुद कहती है कि वह उन्हें भोजन दे रही है। ये क्या गरीब लोग नहीं हैं? जिस देश में 57 फीसदी जनता मुफ्त भोजन के आसरे हो, उसके विकास के दावे का क्या अर्थ है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पिछले कुछ वर्षों में महानगरों में चमक-दमक आयी है लेकिन 80 फीसदी इलाकों में जो अंधेरा बढ़ा है, उसका क्या? विपक्ष जनता को यह समझा सकता है क्योंकि बहुसंख्य जनता इस सच्चाई को समझती है। महंगाई एक बड़ी समस्या है। अदृश्य आनलाइन बाजारों ने अपना जाल फैला लिया है। खुले बाजारों में जिन्हें खाने-पीने का सामान, कपड़े, बर्तन या अन्य जरूरी चीजें लेने जाना पड़ता है, वे इस महंगाई को महसूस करते हैं। करोड़ों लोग अपना पूरा जीवन दो जून की रोटी‌ के जुगाड़ में बिता देते हैं। किसान, मजदूर के लिए तो शोषण ही उनकी नियति है। क्या हम देख नहीं रहे कि 140 करोड़ लोगों के लिए अनाज उगाने वाला किसान कितना त्रस्त और विपन्न है?

विपक्ष के नेता मोदी को पराजित करने के लिए अगर जनता का साथ चाहते हैं तो उन्हें उन मुद्दों पर खुद को केन्द्रित करना चाहिए, जिन पर आम जनता उनसे सहमत हो सकती है, जो आम जीवन का भी कटु सच है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि समूचा विपक्ष उस मुद्दे पर मोदी से मुखातिब है, जिस पर उसके तर्कों को स्वीकार करने के लिए बहुसंख्य लोग तैयार नहीं। कोई हनुमान का मंदिर बनवा रहा है, कोई राम का, शिव का। कोई त्रिपुंड लगाकर, मोटा जनेऊ पहनकर खुद के हिंदुत्व का प्रदर्शन कर रहा है, कोई बाबाओं को बुलाकर उनका स्वागत अभिनंदन कर रहा है। 2014 से लगातार हमने देखा है कि भाजपा के सामने विरोधियों के ये करतब-तमाशे कभी काम नहीं आये। आगे भी नहीं आने वाले हैं। युद्ध में कहां मुखर होना है, कहां चुप रहना है, यह आना चाहिए। अगर यह नहीं आता तो पराजय को टालना बहुत मुश्किल होगा। भारतीय मन को समझे बिना यह रणनीति बनायी‌ नहीं जा सकती। राम के बारे में, मंदिर के बारे में, संस्कृति के बारे में मोदी का प्रतिकार करते ही आप संदेहास्पद हो जाते हैं। मोदी और भाजपा ने जो जनविश्वास अर्जित किया है, अगर उसका आधार झूठ भी हो तो भी वह आस्थालु मन में एक सच की तरह बैठा हुआ है। धर्म के नाम पर भारतीय मन तमाम गल्प, मिथ और कल्पनाओं से लद-फद है लेकिन करोड़ों लोग उसे ही पीढ़ियों से सच मानते आए हैं। हमने लोगों को थालियां बजाते देखा है, बिना पर्व के दीवाली मनाते देखा है, आज भी देख रहे हैं। इसे विश्वास का परिणाम कहें या अंधविश्वास का, पर यह आज का एक कड़वा सच है।

भारतीय जनता पार्टी कोई समाज सुधार में विश्वास नहीं करती, यह उसका उद्देश्य भी नहीं है, वह राजनीतिक सत्ता हासिल करना चाहती है। इसलिए वह यथास्थितिवाद को और जड़ीभूत करने में जुटी रहती है, वह मृत परम्पराओं, कर्मकांड और विश्वास की जमीन पर अपनी फसल काटना चाहती है। वह इसमें सफल इसीलिए हो रही है क्योंकि पहले से ही लोकमन कुछ इसी तरह की जमीन पर खड़ा है। इन 10 वर्षों में उसे इस काम में बहुत कामयाबी मिली है, उसके अनवरत हाहाकार को अबाध जयजयकार मिली है। अगर विरोधी इसी दलदली जमीन पर उतर कर उसका सामना करना चाहते हैं तो यह उनके लिए बहुत कठिन होगा, मारक होगा। वे किनारे होते चले जाएंगे। मंदिर अनावश्यक हो तो भी एक सच है। वह बन गया है। वर्षों से भाजपा कहती आ रही थी, भागवत, मोदी सब के सब कहते आ रहे थे कि मंदिर बनेगा और अब वह खड़ा कर दिया गया है। देश में सैकड़ों मंदिर हैं। लोग जाते हैं, दर्शन करते हैं। अधिकांश को पता नहीं होता कि किसने बनाया, क्यों बनाया। कुछ दशकों बाद इस मंदिर का सच भी यही होगा। लोग मंदिर जायेंगे लेकिन यह नहीं जानना चाहेंगे कि इसे किसने बनाया, जान भी जाएंगे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन आज का सच यही है कि मोदी और उनकी पार्टी ने कहा और कर दिखाया। आप उन्हें झूठा कहें तो कहते रहें। अगर आप सच भी हैं तो सैकड़ों झूठ और वादाखिलाफी पर अयोध्या का मंदिर भारी पड़ने वाला है। इस भारतीय मन को समझे बिना कोई भी अभियान आत्मघाती होगा। विपक्ष को यह समझना होगा कि यह उनका रास्ता नहीं है। उन्हें और विकल्पों पर गौर करना होगा। झूठ चाहे जितने बोले गये हों लेकिन मंदिर ए्क सच है और इस सच की सच में कोई जरूरत न भी हो तो भी इसके प्रति भारतीय मन के व्यापक स्वीकार बोध का क्या करेंगे? मोदी विरोधियों का संशय उनको कमजोर कर रहा है। वह अराजनीतिक लोक की आस्था के विरुद्ध है। मंदिर जाना लेकिन मंदिर बनाने के लिए मोदी की आलोचना करना, राम की छवि को स्वीकार करना लेकिन मोदी के नाम पर राम के विरुद्ध खड़े दिखना, दोनों एक साथ सधने वाला नहीं है। मोदी से लड़िये लेकिन उनसे लड़ते-लड़ते राम से लड़ने लगना आज के युद्ध में जीत मुमकिन नहीं कर सकेगा

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सुभाष राय

लेखक जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक हैं। संपर्क- raisubhash953@gmail.com,+919455081894
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