आदिवासियत

कोई क्यों नहीं सुनता है आदिवासियों को?

  

नॉर्वे विश्वविद्यालय के मित्र सह ‘द पोलिटिकल लाइफ ऑफ़ मेमोरी’ के लेखक राहुल रंजन ने अपनी पुस्तक के भूमिका में लिखा है कि आदिवासियों ने हमेशा स्पष्ट स्वर में अपनी बात/विरोध दर्ज किया है किंतु हमारे ही पास उन्हें ना सुनने की ‘कला’ उपस्थित है। ऐसा नहीं है कि उनकी आवाज़ की तीव्रता या अभिव्यक्ति में कमी है। अनेक बार हम आदिवासियों को जबरन अनसुना कर देते हैं। आदिवासियों की संघर्ष, दर्द, उत्पीड़न को समझने वाले कम हैं।

ऐसे में यह प्रश्न आदिवासी समाज के समक्ष हमेशा से है कि क्यों नहीं कोई सुनता आदिवासियों को? इस कथन का खंडन अनेक करेंगे कि आदिवासियों के लिए बहुत कुछ किया गया है, अब ‘जंगल’ में तो नहीं हो। किंतु प्रश्न अभी भी यही है कि अनेक दशकों के प्रयास, नीतियाँ और प्रावधानों के बावजूद जो अपेक्षित परिवर्तन होने थे वे निश्चित ही नहीं हुए हैं। 

अनेक आंतरिक और बाह्य कारण हैं जिसके कारण हमारी आवाज़ ‘उनके’ कान को भेद नहीं पाती। सबसे प्रमुख है कि राजनीति में हमारे पास ‘बार्गेनिंग पॉवर’ शून्य है। जब तक हम राजनैतिक पार्टियों को एक सशक्त और संगठित वोट बैंक नज़र नहीं आयेंगे, हमें हमेशा आसानी से ‘मैनेज’ किया जायेगा। आप अन्य संगठित समाज को देखिए जहाँ ‘राजनैतिक दिग्गज’, सामाजिक और धार्मिक अगुवा के द्वार पर हाजिरी देते हैं। बदले में सामाजिक-धार्मिक अगुवा राजनैतिक दबाव बनाते हैं। अपने समाज के हित की रक्षा और आर्थिक उत्थान के लिए सहमति बनाते हैं। रक्षात्मक और विकासात्मक आश्वासन वचनबद्ध होते हैं। लेकिन जब हमारी बारी आती है तो तीन बंदरों का समावेश एक साथ देखने को मिलता है। ना आदिवासियों को सुनो, ना देखो और ना ही बोलो। 

आदिवासी योगदान से वंचित इतिहास

बाह्य कारण असंख्य हैं। आंतरिक कारणों में सबसे बड़ा कारक सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक और राजनैतिक संघर्ष का ‘क्षेत्र और बौद्धिक रूप से सीमित’ होना है।ये संघर्ष प्रभावित क्षेत्र तक सीमित रह जाते हैं और अपने ही अन्य आदिवासी समुदाय से उन्हें सहयोग नहीं मिलता है।लेकिन इसका भी एक कारण है। जब कभी एक सामाजिक आंदोलन कहीं तैयार होता है, तो ‘सुदूर अवस्थित’ आदिवासी के लिए उसके राजनैतिक प्रभाव को समझना आसान नहीं होता है। संघर्ष को दूर से समझना और निकट से महसूस करना दोनों भिन्न है। एक आदिवासी को उसके गाँव के बाहर के जीवन से बहुत अधिक सरोकार नहीं होता है। एक राष्ट्रीय स्तर की राजनीति से इसलिए वे जान-बूझकर तटस्थ रहते हैं।अनेक बार आपको धर्म, आदिवासी-ग़ैर आदिवासी, आरक्षण इत्यादि के नाम पर विभाजित करने का प्रयास होता है और लोग इसमें सफल भी हुए हैं और होते आ रहे हैं।

 “जब वो रोते हैं तो आप चुप रहते हैं,

 इसलिए जब आप रोते हैं तो वो चुप रहते हैं”

          पूरे भारत वर्ष में जितने भी आदिवासी समूह हैं उनका संघर्ष भिन्न है। उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से एक सूत्र में पिरोना असंभव है। और शायद ऐसा होना भी नहीं चाहिए। भारत विविधताओं में भी एकता की पहचान रखता है। सामाजिक और सांस्कृतिक समरूपता कठिन है लेकिन अस्तित्व की लड़ाई में ‘राजनैतिक’ समरूपता अनिवार्य हो जाता है। हम संगठित वोट बैंक नहीं हैं इसलिए खंडित समाज को राजनैतिक दलों को ‘मैनेज’ करना आसान होता है।

एक बड़ी प्रचलित कथन हम सभों पर थोपी गई है-‘राजनीति बहुत गंदी है’। यह सही भी हो सकता है किंतु यह वही कारक है जो आपके और आपके आने वाली पीढ़ी का भविष्य तय करेगी। आप इसे ऐसे समझें कि जिस गाड़ी में आप सवार हैं उसकी चालक सीट पर कोई और बैठा है। जब तक आप ‘बार्गेनिंग पॉवर’ में नहीं आयेंगे, आपका भविष्य और गंतव्य, चालक पर निर्भर करेगी। राजनीति में आवश्यक नहीं कि आप अनिवार्य रूप से सक्रिय राजनीति में रहें, किंतु राजनीति से आप पूरी तरह से मुँह नहीं मोड़ सकते। आपको आपके समाज के लिए निर्माणाधीन नीतियाँ, प्रस्तावित क़ानून, योजनाएँ  इत्यादि के विषय में सजग रहना होगा। 

बाहरी दुनिया की समझ के लिए शैक्षिक और बौद्धिक विकास आवश्यक है। अब तो यह और भी आवश्यक हो गया है कि यह शैक्षिक और बौद्धिक विकास के प्रयास आंतरिक हों। अंग्रेज़ी में एक कहावत है – इट मैटर्ज़ हू स्पीक्स फ़ोर यू? यह महत्वपूर्ण है कि आपकी ‘आवाज़’ कौन बनता है। हाल के दशकों में एक अवधारणा बहुत तेज़ी से विकसित हुई है और मानवशास्त्र में इसे हम “नेटिव राइटर्स” या देशज लेखक या स्व-लेखनी कहते हैं। एक आदिवासी या अनुसूचित जनजाति की परिभाषा सदियों से कोई और बता रहा है। इसलिए यह आश्चर्य का विषय नहीं है कि भारतीय संविधान में भी आदिवासी की कोई परिभाषा नहीं है और हमारे लिये जो संवैधानिक प्रावधान हैं वह अनेक जगह अस्पष्ट हैं।

एक बहुत प्रचलित अफ़्रीकी कहावत है- “जब तक बाघ लिखना नहीं सीखेगा तब तक हर कहानी शिकारी की ही महिमा गाएगी”। इसका अर्थ यह हुआ कि जब तक आप लिखेंगे नहीं, तो आपका इतिहास या आपके बारे में कोई भी अन्य एकतरफ़ा चित्रण कर सकता है, लिख सकता है। और आप उस गाथा में मात्र मूक दर्शक बने रहेंगे। जैसा कि इस कहानी में एक मारे गये बाघ की चर्चा है जिसने शायद एक ज़बरदस्त प्रतिरोध किया हो, किंतु उसका उल्लेख आपको कहीं नहीं मिलेगा। मरे हुए बाघ की प्रतिरोध गाथा कोई नहीं लिखता।आदिवासी समाज का अध्ययन अंग्रेजों के लिए प्रशासनिक आवश्यकता थी। भारत के मूल निवासियों के विषय में अनेकों ने अपनी कृतियों की रचना की। सन् 1820 में कैंपबेल, फिर हेमिल्टन, एडवर्ड डाल्टन, हरबर्ट रिसले, फ़रदीनन्द हान, हॉफ़मैन, क्लेमेंट, एस सी रॉय इत्यादि की रचना आईं। आज आदिवासियों की मौखिक परंपरा को इन कृतियों ने बैसाखी प्रदान की है।

वृहद् समाज अपने लिखित साक्ष्यों और ग्रंथों के आधार पर हमें अपने अंदर समाहित करने के लिए लालायित है। ऐसा दिखाया जाता है कि यदि वृहद् समाज नहीं होता तो आदिवासियों का क्या होता। हमारी पहचान और अस्तित्व को हमेशा वृहद् संस्कृति का एक अदना सा भाग दिखाया जाता है। पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब हमारे ही आदिवासी समुदाय इस सानिध्य को बड़े गौरव के साथ आत्म-साथ करती हैं। और हम साढ़े दस करोड़ मूक बने रहते हैं। ऐसे में यह आवश्यक है कि आपको लिखना चाहिए। बोलना चाहिए। पढ़ना चाहिए। ऐसा नहीं है कि आदिवासी समाज में चिंतक या लेखक नहीं हैं। जो हैं वे उम्दा हैं। किंतु ये गिने चुने हुए ही हैं। निरंतर परिवर्तन के कारण नयी चुनौतियाँ भी आईं हैं। और ये हमारा ही दायित्व है कि नवीन दृष्टिकोण से इन चुनौतियों पर लिखा जाए। 

          राजनीति, सामाजिक उत्थान और धर्म का गहरा संबंध है। अनेक प्रार्थना सभा को निकट से देखने का प्रयास किया है। यह विशिष्ट धार्मिक पहचान के लिये आवश्यक है। किंतु मात्र धार्मिक अनुष्ठान और क्रियाकलाप से सामाजिक उत्थान संभव नहीं है। इसमें कोई संशय नहीं है कि आदिवासी धर्म ने समाज को एकजुटता प्रदान की है और समाज सुधारक प्रयास भी हुए हैं। किंतु मेरा व्यक्तिगत मानना है कि वर्तमान परिवेश में धर्म के अन्य महत्वपूर्ण कार्य भी हैं। प्रो अल्पा शाह अपने बहुचर्चित कृति ‘इन द शैडो ऑफ़ द स्टेट’ में लिखतीं हैं कि धर्म और त्योहार अब आपके ‘राजनैतिक पहुँच’ के परिचायक हैं। यह आपके समाज की उपस्थिति को दर्शाते है। किंतु आदिवासियों में धर्म के आगे क्या? 

          अन्य समाज में प्रत्यक्ष रूप में जो विशाल धार्मिक अनुष्ठान और गतिविधियाँ दिखाई पड़ती हैं, वह परोक्ष में एक प्रकार से ‘शक्ति प्रदर्शन’ है। इस शक्ति प्रदर्शन का उद्देश्य राजनैतिक दबाव एवं सामाजिक एकता को बनाये रखना है। उस से भी महत्वपूर्ण उद्देश्य, सामाजिक-आर्थिक उत्थान होता है। हमें यह आत्म विश्लेषण करना चाहिए कि ‘आदिवासी धार्मिक सम्मेलन’ के आगे हमने सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए क्या कदम उठाये हैं। धार्मिक सम्मेलन के द्वारा क्या हमने शिक्षा, सामाजिक भागीदारी, आर्थिक अनुदान, रोज़गार, समानाधिकारवाद, नैतिक ज़िम्मेदारी का प्रयास किया है? आदिवासी समाज के भीतर जो अप्रत्यक्ष सामन्तवाद है उसे मिटाने का प्रयास किया है? शायद नहीं। यहाँ तो हम दो आदिवासी मिल कर तीन संगठन बना रहे हैं !

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अभय सागर मिंज

लेखक श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय, राँची के मानवशास्त्र विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं। *लुप्तप्राय देशज भाषा प्रलेखन केन्द्र के निदेशक हैं। सम्पर्क- +91 9939304234, minz.abhaysagar@gmail.com
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