उप चुनाव जीत के मायने
उत्तर प्रदेश में 26 जून को आए लोकसभा उप चुनाव की दो सीटों के परिणाम ने एक बार फिर से यह तय कर दिया कि प्रदेश में अभी भी सत्तादल का जलवा बरकरार है। और, यह भी कि प्रदेश में सत्तादल भारतीय जनता पार्टी के मुकाबिल कई विपक्षी दलों का कुनबा अभी भी उसका मुकाबला करने की हैसियत में नहीं हैं। चुनाव के एन मौके पर विपक्षी दलों का ‘सीजनल – गठजोड़’ पिछले कई बार के चुनाव में बुरी तरह नाकाम होता आ रहा है। पिछले करीब एक दशक से बार बार मिलने वाली चुनावी असफलता से सबक लेकर विपक्षी दलों का आगे न बढ़ पाना विडम्बना साबित हो रहा है। गौरतलब है सम्हई निवासी अमित ओझा और सज्जन ओझा की टिप्पणी। वे ‘सबलोग’ से कहते हैं कि मोदी – योगी हटाओ का नारा देकर कभी बसपा और सपा का गठजोड़ हो जाता है तो कभी परस्पर धुर विरोधी रहे कांग्रेस और सपा एक हो जाते हैं, हास्यास्पद यह कि उनकी यह एकता केवल चुनाव रिजल्ट आने तक रहती है, इसके बाद फिर इनकी राहें जुदा जुदा दिखने लगती हैं।
राजनीति के जानकार बताते हैं कि पिछले कई बार के चुनाव में देखा जा रहा है कि चुनाव के ऐन मौके पर दल तो मिल जाते हैं पर उनके परस्पर दिल नहीं मिल पाते। चुनावी गठजोड़ के बाद भी उनकी यह ‘अघोषित-दूरी’ ही विपक्षी दलों के गठबन्धन फार्मूले को न सिर्फ फेल कर देती है बल्कि इरादे पर भी छूरी फेर देती है। सर्व सम्मति के बजाय ऊपर से थोपे गए निर्णय भी इरादे को बाधित करते आ रहे हैं। समाजवादियों के मजबूत गढ़ के रूप में चर्चित आजमगढ़ और सपा के कद्दावर नेता रहे आजम खां का गढ़ समझा जाने वाला रामपुर, भाजपा के लिए इन दोनों संसदीय सीटों को जीतना बहुत आसान भी नहीं था। यह दोनों सीटें लम्बे समय से समाजवादी पार्टी के कब्जे में रही हैं। कुल मिलाकर भाजपा ने रामपुर और आजमगढ़ की दोनों संसदीय सीटें सपा से छीनी है।
लोकसभा उप चुनाव में भाजपा की इन दोनों सीटों पर जीत विपक्ष का बेहद कमजोर होना भी रहा है। यह बात भी अपने आप में कम चौंकाने वाली नहीं कि इस मर्तबा चुनाव में कांग्रेस ने अपना प्रत्याशी उतारने से साफ मना कर दिया। कांग्रेस मैदान में उतरी ही नहीं, वहीं दूसरी ओर बहुजन समाज पार्टी ने सिर्फ एक सीट आजमगढ़ से गुड्डू जमाली को मैदान में उतारा। रामपुर सीट पर कांग्रेस और बसपा चुनाव ही नहीं लड़ी। सपा ने न सिर्फ दोनों सीटों पर प्रत्याशी उतारे बल्कि चुनाव के अंतिम दौर तक मुकाबला भी किया। मतगणना के दौरान पोस्टल बैलट की गिनती के समय से लेकर दोपहर 12 बजे तक सपा आगे चल रही थी। दोपहर के बाद दोनों सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों ने बढ़त बनाना शुरू किया। आजमगढ़ में सपा के धर्मेंद्र यादव, भाजपा प्रत्याशी दिनेश लाल यादव निरहुआ से आगे चल रहे थे। सत्रहवें राउंड से भाजपा प्रत्याशी ने बढ़त बनाने की शुरूआत की जो अन्ततः जीत में तब्दील हुई। उधर, रामपुर सीट पर भी भाजपा के घनश्याम लोधी ने पंद्रहवें राउंड के बाद सपा के आसिम रजा को पीछे छोड़ना शुरू किया। अंततः लोधी ने भी जीत हासिल कर ली। इस बार दोनों सीटों पर वोटिंग कम हुई। आजमगढ़ में 48.58 और रामपुर में 41.01 फीसद वोट पड़े। पिछली बार वर्ष 2019 लोकसभा के चुनाव की तुलना में रामपुर में 26.16 और आजमगढ़ में 11.55 फ़ीसदी कम वोट पड़े।
दरअसल, उत्तर प्रदेश में बीते विधानसभा चुनाव के बाद दोनों सीटों पर हुआ लोकसभा का यह उपचुनाव आगामी लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा था। महत्त्वपूर्ण यह है कि राज्य में करीब डेढ़ साल बाद ही वर्ष 2024 में लोकसभा का चुनाव भी होना है। ऐसे में विपक्षी राजनीतिक दलों की इतनी ज्यादा ‘निर्बलता’ कि वे चुनाव मैदान में प्रत्याशी तक न उतार पाएं, कम चौंकाने वाला नहीं है। कई दशक तक एकछत्र राज्य करने वाली काँग्रेस इस बार प्रत्याशी तक न उतार सकी। चुनावी हो -हल्ला तो कई महीने चला, कयास भी खूब लगाए जाते रहे पर बावजूद इन सबके रामपुर और आजमगढ़ दोनों संसदीय सीटों पर भारतीय जनता पार्टी ने जीत दर्ज कराई। रामपुर में भाजपा के घनश्याम लोधी ने सपा के असीम रजा को 42 हजार से ज्यादा जबकि आजमगढ़ में भाजपा प्रत्याशी दिनेश लाल यादव निरहुआ ने सपा प्रत्याशी धर्मेंद्र यादव को एक लाख, बारह हजार बारह वोटों से पराजित किया। रामपुर में छह तो आजमगढ़ में तेरह प्रत्याशी मैदान में थे।
आजमगढ़ सपा का गढ़ माना जाता रहा है। 2014 में जब पूरे देश में मोदी लहर की आंधी थी, तब मुलायम सिंह यादव ने इस सीट को जीता था। इसके बाद 2019 में भी आजमगढ़ से सपा प्रमुख अखिलेश यादव यहां सांसद चुने गए। विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव के इस सीट को त्याग देने के बाद यहां उप चुनाव हुआ। इस सीट पर पार्टी मुखिया अखिलेश यादव ने अपने भाई धर्मेन्द्र यादव को प्रत्याशी बनाया। तब अखिलेश पर परिवारवाद को तवज्जो देने की बात सपा के अन्दरखाने में भीतर ही भीतर उठने लगी। असन्तोष की सुलगती इस चिंगारी को पार्टी हाई कमान भाँप न सके। कई कार्यकर्ताओं का कहना था कि ऊपर से थोपने के बजाय पार्टी स्थानीय नेताओं को यहाँ प्रत्याशी बनाए। धर्मेन्द्र यादव यहाँ से चुनाव लडे। धर्मेंद्र यादव को चुनाव मैदान में उतारा गया पर अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव, डिंपल से लेकर सैफई परिवार से एक भी प्रमुख नेता यहाँ प्रचार करने तक नहीं आया।
जानकारों का तर्क है कि इसका बड़ा असर धर्मेंद्र यादव के चुनाव पर पड़ा। 2019 में रामपुर से आजम खां सांसद बने। आजम यहां के कद्दावर नेता माने जाते रहे हैं। इस बार भाजपा ने घनश्याम लोधी को टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारा। घनश्याम लोधी एक समय सपा में थे और आजम खां के बेहद करीबी माने जाते रहे। लोधी को सपा ने एमएलसी भी बनाया। वर्ष 2022 में विधानसभा चुनाव के थोड़े दिन पहले ही लोधी ने सपा की साइकिल छोड़ भाजपा का दामन थामा। भाजपा में शामिल होने के बाद से ही घनश्याम लोधी टिकट और चुनाव की तैयारी में जुट गए थे। चुनावी ‘समीकरण’ ने घनश्याम लोधी को रामपुर से भाजपा का सांसद बना दिया।खास बात यह है कि रामपुर और आजमगढ़ दोनों लोकसभा सीट हार जाने के बाद संसद के भीतर अब सपा सदस्यों की संख्या पांच से सिमटकर महज तीन पर आ गई है। बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस जीत को ऐतिहासिक जीत की संज्ञा दी।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आजमगढ़ और रामपुर दोनों सीटों पर मिली जीत को डबल इंजन सरकार के प्रति आमजन के विश्वास की मुहर बताया है। नव निर्वाचित सांसद दिनेश लाल यादव निरहुआ ने इसे आम जनता की जीत और कार्यकर्ताओं की मेहनत का परिणाम बताया तो उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने कहा कि पिछले दिनों सदन के भीतर अखिलेश यादव और आजम खां ने हमें जिस तरीके से अपमानित किया था, उसे देश – प्रदेश की जनता ने देखा। मेरे उसी अपमान का बदला पिछड़ी जाति के वोटरों ने आजमगढ़ और रामपुर के इस चुनाव में ले लिया। चुनाव परिणाम आने के तुरन्त बाद आजमगढ़ में मीडिया से मुखातिब धर्मेन्द्र यादव ने तंज कसते हुए कहा कि भाजपा की बी टीम बनने पर बसपा को बधाई। राष्ट्रपति चुनाव में पहले से ही बसपा का भाजपा के प्रति झुकाव जग जाहिर हो चुका है।
बहरहाल, आजमगढ़ और रामपुर के इस बार के संसदीय उप चुनाव के तौर तरीकों से कई महत्वपूर्ण सवाल भी सियासी फिजाओं में तैर रहे हैं। मसलन, क्या बसपा का वाकई वजूद इतना कम हो गया या फिर भविष्य की राजनीतिक मजबूती के लिए बसपा सुप्रीमो मायावती की यह कोई सोची समझी रणनीति है? सवाल यह भी किए जा रहे हैं कि कभी सबसे बड़े दल के रूप में कई दशक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस ‘आक्सीजन – शैय्या’ से उठ क्यों नहीं पा रही है ? क्या सपा परिवारवाद से बाहर निकल पाएगी ? क्या कांग्रेस पार्टी राहुल – प्रियंका और सोनिया की ‘कैदखाने’ से बाहर निकल पाएगी ? ऐसे तमाम सवाल यहां राजनीतिक लोगों के दिमाग को लगातार मथ रहे हैं।