मैनेजर पाण्डेय साहित्यवादी आलोचक नहीं हैं
मैनेजर पाण्डेय (23.9.1941- 6.11.2022) को केवल हिन्दी और साहित्य का आलोचक कहना गुनाह है, उन्होंने साहित्य समझने की और आलोचना की एक नयी दृष्टि दी। उन्होंने साहित्य को सदैव मनुष्य की सामाजिक चेतना और सामाजिक चिन्ता की देन माना और यह बताया कि उसकी बड़ी भूमिका केवल ‘सामाजिक चेतना के निर्माण’ की न होकर सामाजिक जीवन की रूपान्तरणशीलता के साधन के रूप में भी है। आलोचना उनके अनुसार केवल कृति की व्याख्या भर नहीं है। साहित्य का इतिहास उनके लिए केवल साहित्य का इतिहास नहीं है, उसका सम्बन्ध सामाजिक इतिहास से है और सामाजिक इतिहास कभी स्थिर नहीं रहता। साहित्य-विवेक के विकास के लिए उन्होंने इतिहास बोध आवश्यक माना। “इतिहास बोध के बिना साहित्य विवेक अंधा होगा और साहित्य विवेक के बिना इतिहास बोध लँगड़ा” मैनेजर पाण्डेय ने हमें दृष्टि और दिशा प्रदान की। आलोचना की भूमि और भूमिका बदली। साहित्य के समाज से रिश्ते की बात हमेशा की जाती रही है, पर साहित्य की सामाजिकता के साथ ‘आलोचना की सामाजिकता’ पर विचार करने वाले, उस पर बल देने वाले वे दुर्लभ आलोचक हैं। उनके पहले आलोचना की सामाजिकता पर विचार करने की कोई गम्भीर कोशिश न की गयी थी। इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में, जब ‘उत्तर आधुनिक’ होने और ‘उत्तर आधुनिकता’ का अधिक जयगान हो रहा था, पाण्डेय जी ने आलोचना की सामाजिकता की चिंता को ‘पूँजीवाद द्वारा प्रकृति और संस्कृति के निजीकरण के प्रयत्न के विरुद्ध प्रतिरोध की चिन्ता’ से जोड़ा। वे साहित्यवादी आलोचक नहीं हैं। केवल साहित्यवादी आलोचना न तो समकालीन होगी और न सामाजिक।
मैनेजर पाण्डेय के आलोचनात्मक लेखन का आरम्भ नक्सलबाड़ी आन्दोलन के बाद हुआ। नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने देश की विविध भाषाओं के साहित्य को प्रभावित किया था। भारतीय कवियों में कई प्रमुख कवि हैं जो इस विचारधारा से प्रभावित हुए। आलोचना में केवल एक नाम मैनेजर पाण्डेय का है। उनकी आलोचना में प्रतिरोध और संघर्ष पर बल है। निर्मल वर्मा जिस समय शब्द को ‘स्मृति’ से जोड़ रहे थे, पाण्डेय जी ने ‘शब्द’ को ‘कर्म’ से जोड़ा। निर्मल के स्मृतिलोक पर मुग्ध आलोचकों को यह एक प्रकार से दिया गया जवाब भी था। वैयक्तिक और जातीय स्मृति में अन्तर है। जातीय स्मृति में कर्म और संघर्ष की मौजूदगी है। ‘शब्द और कर्म’ (1981) उनकी पहली पुस्तक है। इसकी भूमिका ‘दो शब्द’ के आरम्भ में उन्होंने लिखा- सातवें दशक के अन्त में भारतीय जनता की संघर्षशील चेतना का जो नया विकास हुआ, उसका आठवें दशक की सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों पर गहरा असर पड़ा। शब्द को उन्होंने ‘जनता के कर्म’ और ‘लेखक के रचना-कर्म’ से एक साथ जोड़ा। उन्होंने गोर्की को उद्धृत किया- रचना-कर्म से लगा हुआ लेखक एक ही समय में कर्म को शब्दों में और शब्दों को कर्म में बदलता है। शब्द की चिन्ता सबसे अधिक कवियों ने की है। पाण्डेय जी हिन्दी के ही नहीं संभवत: अकेले भारतीय आलोचक हैं, जिनमें शब्द की अधिक चिन्ता है। शब्द और कर्म पुस्तक के अड़तीस वर्ष बाद उनकी पुस्तक ‘शब्द और साधना’ (2019) प्रकाशित हुई। हिन्दी के एक लेखक ने शब्द और कर्म को अलग-अलग माना था। शब्द और कर्म के सम्बन्ध को उन्होंने ‘साहित्य और क्रान्ति’ के सम्बन्ध से जोड़ा और दोनों के ‘जटिल द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध’ को गहराई से समझने की सलाह दी। शब्द को कर्म से जोड़ कर उन्होंने शब्द को अर्थ से, साहित्य को जीवन से, चिन्तन को यथार्थ से, विचार क्षेत्र को कर्म क्षेत्र से और साहित्य को क्रान्ति से जोड़ा था। उनके पहले किसी भी भारतीय आलोचक ने हमें यह दृष्टि प्रदान नहीं की। अड़तीस वर्ष बाद ‘शब्द और साधना’ की भूमिका में उन्होंने लिखा- “मनुष्य का जीवन जीना, जानना, सोचना, अनुभव करना और रचना करना भाषा में ही संभव होता है।”
मैनेजर पाण्डेय का आलोचनात्मक लेखन लगभग 54 वर्ष का है। उनका पहला लेख 1968 में प्रकाशित हुआ था। उनका सारा जीवन संघर्षमय रहा है। उनके गाँव में पढ़े-लिखे लोग नहीं थे। जन्म सामान्य कृषक-परिवार में हुआ था। पिता ब्रह्मदेव पाण्डेय किसान थे और खेती ही सब कुछ थी। सारण जिला के गोपालगंज अनुमण्डल के लोहटी गाँव में 33 सितम्बर 1941 को उनका जन्म हुआ था। यह दिनकर की भी जन्मतिथि है, ज्योतिष जोशी का गाँव उनके गाँव के समीप है। उनके गाँव धर्मगता के प्राथमिक विद्यालय से उन्होंने पहली से तीसरी कक्षा तक की प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की। चौथी से सातवी तक की उनकी शिक्षा राजकीय मध्य विद्यालय बगही बाजार से हुई। ज्योतिष जोशी के गाँव में इनके कई सहपाठी थे जिन्होंने उनकी अत्यधिक जिज्ञासु-वृत्ति की बात कही है। पत्र-पत्रिकाओं से पाण्डेय जी का सम्बन्ध मिडिल स्कूल से ही था। उन्हें प्रेरित-प्रोत्साहित करने में मिडिल स्कूल में हिंदी अध्यापक शेख वाजिद और हाई स्कूल के अध्यापक, हिन्दी और भोजपुरी के कवि लक्ष्मण पाठक ‘प्रदीप’ की अधिक भूमिका थी। इन दोनों अध्यापकों ने उनमें संभावनाएँ देखी। ‘प्रदीप’ जी के प्रभाव से पाण्डेप जी ने अपने छात्र-जीवन में हिन्दी और भोजपुरी में कविता लिखना आरम्भ किया। उनके गाँव के लोग उन्हें कवि के रूप में याद करते थे। भक्ति-साहित्य पढ़ने की ओर उन्हें शिव गोविंद पाण्डेय ने, जो स्वयं ‘भक्ति-साहित्य’ के बहुत प्रेमी और जानकार थे, प्रेरित किया। पाण्डेय जी ने राजकीय विद्यालय खुरहुरिया से हाई स्कूल की शिक्षा प्राप्त की। उनके गाँव से इस विद्यालय की दूरी 8 किलोमीटर थी। बीच में भरही नदी पार कर वे स्कूल पहुँचते थे। पाण्डेय जी ने अपने उन दिनों को याद किया है- “घर से दस किलोमीटर चलकर स्कूल जाता था। कोई सवारी-साइकिल तक चलाना नहीं आता था।” उनके मन में “ज्ञान के प्रति लगाव और ज्ञानियों के प्रति श्रद्धा का भाव” आरम्भ से था। नौवीं क्लास में उनकी पढ़ाई छूट गयी थी। फिर दुबारा नौवीं पढ़े बिना दसवीं से पढ़ाई शुरू की। प्रथम श्रेणी में मैट्रिक पास कर आगे पढ़ाई करने के लिए अपने अध्यापक पाठक जी की प्रेरणा से वे बनारस गये। डी.ए.वी. कॉलेज और बी.एच.यू. से उन्होने उच्च शिक्षा प्राप्त की। बनारस में उनका सम्पर्क महत्वपूर्ण, अध्यापकों, लेखकों से हुआ और उनमें ज्ञान की ऊँची सीढ़ियों पर चढ़ने की आकांक्षा पैदा हुई।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. करने के बाद बरेली कॉलेज में वे हिन्दी के प्राध्यापक नियुक्त हुए और उसके बाद जोधपुर विश्वविद्यालय गये। मार्च 1977 में वे जेएनयू आये। ज्ञान के प्रति उनका समर्पण अद्भुत था। रामविलास शर्मा के बाद वे अकेले आलोचक हैं, जिन्होंने साहित्य के अलावा समाज और संस्कृति पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है। सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचना को उन्होंने कभी एक दूसरे से विच्छिन्न कर नहीं देखा। सत्तर के दशक से ही सामाजिक चेतना और सामाजिकता पर उनका बल रहा है। 1973 से 1980 के बीच के उनके निबन्ध ‘शब्द और कर्म’ में संकलित हैं। उन्होंने कॉडवेल की कृति – ‘रोमांस एण्ड रियलिज़्म’ पर विचार किया। पहली बार व्यवस्थित ढंग से उन्होंने कॉडवेल पर लिखा। ‘साहित्य का समाजशास्त्र और मार्क्सवादी आलोचना’ निबन्ध के लगभग एक दशक बाद ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’ प्रकाशित हुई। आज भी इस विषय की यह अकेली प्रामाणिक पुस्तक है, जिसका उर्दू में अनुवाद हो चुका है। डॉ. मेनेजर पाण्डेय समाजशास्त्री आलोचक नहीं, मार्क्सवादी आलोचक हैं। मार्क्सवाद में उनकी निष्ठा आद्यन्त रही है। वे मुक्तिकामी, परिवर्तनकामी, क्रान्तिकारी मार्क्सवादी आलोचक हैं। हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना की बृहत्त्रयी, जो भारतीय मार्क्सवादी आलोचना की भी है, उसके अन्तिम आलोचक डॉ. पाण्डेय थे। रामविलास शर्मा, नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डेय के निधन के बाद अब अब वह बृहत्त्रयी इतिहास में है। हिन्दी आलोचना में डॉ. पाण्डेय का योगदान अप्रतिम है। रामविलास शर्मा के निधन (2000) के पश्चात की रिक्ति को उन्होंने पूरा किया। उनका व्यक्तित्व सरल, आडम्बर विहीन और गरिमापूर्ण था। सत्तर के दशक में उनके निबन्ध प्रकाशित हुए थे। अस्सी के दशक में उनकी चार पुस्तकें आई- ‘शब्द और कर्म’ (1981), ‘साहित्य और इतिहास- दृष्टि’ (1981) ‘कृष्ण-कथा की परम्परा और सूरदास का काव्य’ (1983) और ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’। उनकी निर्मिति में नामवर सिंह की बड़ी भूमिका है, जिसे उन्होंने स्वीकारा भी है, पर नामवर सिंह की तरह उनमें विचलन नहीं है। हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना को उन्होंने निषेधवाद, उदारवाद, संकीर्णतावाद और बौद्धिक चमत्कारवाद से मुक्त कर उसका सन्तुलित रूप से विकास किया। उनकी आलोचना में न निषेधवाद है, न उदारवाद है, न संकीर्णतावाद है और न बौद्धिक चमत्कार है। इस दृष्टि से मार्क्सवादी आलोचना में वे सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विशिष्ट हैं। उन्होंने मार्क्सवादी होने और बनने में फर्क किया है। वे बड़े आलोचक थे। उनकी आलोचना बड़ी है, जो हर समय पैदा नहीं होती। वे बोलकर आलोचना का शास्त्र रचने वाले आलोचक नहीं थे और न उन्होंने नये-नये लेखकों को डिठौना लगाने का धन्धा किया।
अस्सी के दशक, सोवियत रूस के विघटन, नव उदारवादी अर्थ व्यवस्था के आगमन और भूमंडलीकरण के बाद उनकी आलोचना के दूसरे दौर का आरम्भ होता है। इस दौर में उनकी आलोचना कहीं अधिक सामाजिक-सांस्कृतिक हुई। अब उनके यहाँ ‘मुक्ति की पुकार’ (1996) थी। वैश्विक होने से पहले वे स्थानीय होना आवश्यक मानते थे। उन्होंने – ‘सीवान की कविता’ (1998) से हमें परिचित कराया। उनके यहाँ ‘अतीत का ज्ञान’ ही सब कुछ नहीं है। वर्तमान की कर्मशीलता भी आवश्यक है। भारत का वर्तमान बदलने लगा था। “आज के समय में निर्भीक होकर सच कहना आलोचना का पहला दायित्व है, संघर्ष ही आलोचना का स्वाभाविक धर्म है।” वे सत्यनिष्ठ, निर्भीक एवं संघर्षशील आलोचक थे। उन्होंने न किसी की अतिरंजित ‘प्रशंसा’ की, न ‘अतिरंजित निन्दा’? उन्होंने अपनी आलोचना से इतिहास-चेतना और इतिहास-बोध को नष्ट होने से बचाया। सत्तर के दशक में अज्ञेय और निर्मल वर्मा इतिहास-विरोधी थे। ‘इतिहास के अन्त’ की घोषणा बाद में की गयी। इतिहास-विरोधी चिन्तन को उन्होंने जीवन-विरोधी, मानव-विरोधी और समाज विरोधी चिन्तन कहा और इतिहास-विरोधी आठ आलोचना- सिद्धान्तों- प्रभाववादी, मनोवैज्ञानिक, नई समीक्षा, मिथकीय और आद्य बिम्बात्मक, विषमवादी, संरचनावादी, शैली वैज्ञानिक और सौन्दर्यशास्त्रीय सिद्धान्तों पर विचार किया। वे अकेले आलोचक हैं, जिन्होंने एक साथ इस सभी सिद्धान्तों की आलोचना की। उन्होंने आलोचना के संदर्भ में इतिहास की सार्थकता देखने के बाद साहित्येतिहास के संदर्भ में आलोचना की सार्थकता पर ध्यान दिया। पाण्डेय जी का महत्व मात्र अकादमिक दृष्टि से नहीं है। वे सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचक थे। उन्होंने घुर्ये, पी सी जोशी और श्यामाचरण दुबे पर भी लिखा है। वे अकेले मार्क्सवादी आलोचक हैं, जिन्होंने दलित, स्त्री और आदिवासी लेखन पर न केवल ध्यान दिया, उन पर लिखा और अनेक सार्थक एवं मूल्यवान बातें कहीं। अपनी आलोचना के जरिये उन्होंने प्रतिरोध की संस्कृति विकसित की। भारतीय समाज में ‘प्रतिरोध की परम्परा’ (2013) दिखाकर आज के समय में प्रतिरोध के महत्व पर बल दिया। उनका स्पष्ट मत है कि प्रतिरोध की प्रवृत्ति और प्रक्रिया को समझने से ही संस्कृति की पूरी समझ विकसित होती है। ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ के बाद उन्होंने ‘संस्कृति का समाजशास्त्र’ लिखा।
मैनेजर पाण्डेय गहरी खुदाई करने वाले आलोचक थे। उनके कई निबन्ध क्लासिक हैं। क्या आपने ‘वज्रसूची’ का नाम सुना है? ‘संवादधर्मी दाराशिकोह’, ‘संस्कृति का समाजशास्त्र’, ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’, ‘मुक्ति की राहें’, ‘उपन्यास और लोकतन्त्र’, ‘आलोचना की सामाजिकता’ ऐसे ही निबन्ध हैं। इनके चिन्तन, सोच-विचार और आलोचना का रेंज बहुत बड़ा है। नामवर सिंह ने उन्हें ‘आलोचकों का आलोचक’ कहा है। आचार्य शुक्ल स्वाधीनता आन्दोलन से गहरे रूप जुड़े आलोचक थे। मैनेजर पाण्डेय स्वाधीन भारत की वास्तविकताओं, जन-चिन्ताओं, आदि से जुड़े बड़े आलोचक है। उनके पास एक साथ सही, सुसंगत और आवश्यक साहित्य-दृष्टि, इतिहास-दृष्टि, जीवन-दृष्टि, समाज-संस्कृति दृष्टि, राजनीतिक दृष्टि और अर्थशास्त्रीय दृष्टि है। हम सब जिस समय में सृजनरत है, उसमें व्यक्तिवाद, सम्बन्धवाद, जातिवाद और अवसरवाद का अधिक बोलबाला है। मार्क्सवादी भी मार्क्स से कुछ नहीं सीखते। पाण्डेय जी का बल आचरण की सभ्यता पर भी था। उन्होंने मार्क्स के जीवन से मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को सीखने की बात कही। मुक्तिबोध की याद दिलाई, जिन्हें रावण के घर पानी भरना स्वीकार नहीं था। “आज के अनेक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी रावण के घर पानी भरने के लिए ही नहीं, बल्कि कुआँ खोदने के लिए भी तैयार बैठे हैं”।
मैनेजर पाण्डेय के निधन से हिन्दी आलोचना, भारतीय मार्क्सवादी आलोचना की जो क्षति हुई है, उसकी भरपाई नहीं की जा सकती। उनके सैकड़ों योग्य-सुयोग्य शिष्य हैं, पर अब उनके जैसा हिन्दी में ही नहीं, भारत की किसी भी भाषा में कोई आलोचक नहीं है। नामवर सिंह के निधन के बाद उन्होंने कहा था- “साहित्य, समाज, संस्कृति का कोई क्षेत्र किसी एक के चले जाने से स्थायी रूप से सूनापन और खालीपन में नहीं रहता- जो जाते हैं, उनकी यादें रहती है, उनकी लिखी किताबें रहती हैं। उससे भी सीखते हुए लोग बाद वाले आगे बढ़ते हैं और उनकी जगह जितना सम्भव है, उतना लेते हैं।” दूर-दूर तक मैनेजर पाण्डेय की जगह लेने वाला कोई आलोचक नजर नहीं आता। हमारे समय की आलोचना की सबसे तेज रोशनी बुझ चुकी है।