गरीबों का भारतीय अर्थशास्त्री : ज्याँ द्रेज
आजाद भारत के असली सितारे -48
बेल्जियम के पुराने शहर लोवेन में जन्मे, वहाँ के प्रख्यात अर्थशास्त्री और कैथोलिक दे लोवेन यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर ऑपरेशन्स रिसर्च एण्ड इकोनॉमिक्स के संस्थापक जैक द्रेज के सुपुत्र, यूनिवर्सिटी ऑफ एसेक्स से मैथेमेटिकल इकोनॉमिक्स के स्नातक, इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीच्यूट दिल्ली के डॉक्टोरेट, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स तथा जी. बी. पंत समाज विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद में विजिटिंग प्रोफेसर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में प्लॉनिंग एण्ड डवलपमेंट यूनिट के ऑनरेरी चेयर प्रोफेसर तथा राँची विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर ज्याँ द्रेज (Jean Dreze, जन्म-22.01.1959) ने पहली बार जनता का ध्यान उस समय आकर्षित किया जब 2017 में दिल्ली के जंतर- मंतर पर प्रदर्शन कर रहे मजदूरों के बीच जमीन पर भोजन करते हुए उनकी एक तस्वीर वायरल हो गई।
ज्याँ द्रेज जब लंदन में पढ़ा रहे थे तो रात गुजारने के लिए वे लंदन की कैलफेम रोड स्थित बच्चों के एक पुराने अस्पताल में आ जाते थे, जो अनेक बेसहारा लोगों के लिए एक शेल्टर भी था। इसी तरह जब वे दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ा रहे थे तो वहाँ पास में स्थित तिमारपुर की झुग्गी बस्ती में अपनी जीवन-संगिनी और मानवाधिकार कार्यकर्ता बेला भाटिया के साथ रह रहे थे और आज जब वे राँची विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं तो वहाँ के आदिवासियों के बीच रहते हैं।
वे जहाँ भी रहते हैं, साइकिल की सवारी करते हैं, हिन्दी में बात करते हैं, विकास के अर्थशास्त्र पर पुस्तकें लिखते हैं, शोध करते हैं और देश भर की पीड़ित-वंचित जनता के अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं। यह सब वे अपने उसूलों की रक्षा के लिए करते हैं और इसमें उन्हें सुख मिलता है। इस प्रकार उन्होंने ‘सुख’ को एक बार फिर से परिभाषित करते हुए याद दिलाया है कि सुख भौतिक संसाधनों में नहीं, जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण में निहित है। ज्याँ द्रेज को लगता है कि जिनके लिए वे लिख रहे हैं, जिनकी वे लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके बीच रहना, उनके जीवन और रहन-सहन का हिस्सेदार बनना उनका फर्ज भी है।
ज्याँ द्रेज 1979 में पहली बार भारत आए। भारत में आने के बाद उन्होंने 1980 की गर्मियों में ही साइकिल से जयपुर, अजमेर, कोटा, भोपाल आदि विभिन्न क्षेत्रों की यात्राएं कीं। 1983 में उन्होंने इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीच्यूट से अपनी पीएचडी पूरी की। वर्ष 2002 में उन्हें भारत की नागरिकता मिली। इसके लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। बेल्जियम की सरकार के लिए यह समझना बहुत मुश्किल हो रहा था कि मशहूर अर्थशास्त्री का बेटा और खुद इतना बड़ा अर्थशास्त्री अपना देश बेल्जियम क्यों छोड़ना चाहता है।
दलितों-वंचितों और पीड़ितों के प्रति हमदर्दी का यह संस्कार ज्याँ को अपने पिता से मिला। उनके पिता यूरोपियन इकोनॉमिक एसोसिएशन और इकोनॉमेट्रिक सोसायटी के प्रेसिडेंट भी थे और जरूरतमंद लोगों के लिए आर्थिक नीतियों पर काम करते थे। उनकी माँ भी एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। वे फिजियोथिरेपिस्ट थीं और बेल्जियम में घर से सताई और घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए शेल्टर होम चलाती थीं।
विकासवादी अर्थशास्त्र पर ज्याँ द्रेज की एक दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें से कई पुस्तकें उन्होंने नोबेल पुरस्कार से पुरस्कृत प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन के साथ मिलकर लिखी हैं। उनके सैकड़ों शोध-पत्र दुनिया भर के प्रतिष्ठित शोध जर्नलों में प्रकाशित हो चुके हैं।
ज्याँ द्रेज़ को “नरेगा (NREGA) का आर्किटेक्ट” कहा जाता है जिसे आजकल ‘मनरेगा’ (MGNREGA) अर्थात् ‘महात्मा गाँधी नेशनल रूरल इंप्लायमेंट गारंटी एक्ट’ कहा जाता है। यूपीए सरकार के दौरान उन्होंने इसकी ड्राफ्टिंग में मुख्य भूमिका निभाई थी। इसके अलावा सूचना का अधिकार, राइट टू फूड कैंपेन आदि दूसरे कई जन-हित के कार्यक्रमों में वे सक्रिय भूमिका निभा चुके हैं।
भारत में सात साल रहने के बाद 1986 में उनकी भेंट प्रो. अमर्त्य सेन से हुई। इन सात सालों में उन्होंने गाँधी की तरह भारत के वंचित और दलित समुदाय को घूम-घूम कर देखा, उनकी दयनीय दशा के कारणों का अध्ययन किया। अमर्त्य सेन से अपनी भेंट में उन्होंने भारत की बेरोजगारी, महिलाओं की दशा, भूख जैसे विषयों पर अपने अनुभव बाँटे और उनके साथ मिलकर किताब लिखने का निर्णय लिया। उसी का परिणाम था ‘हंगर एण्ड पब्लिक एक्शन’ जैसा ग्रंथ।
वर्ष 1988 में प्रो. अमर्त्य सेन ऑक्सफोर्ड में पढ़ा रहे थे। ज्याँ को उनके साथ किताब लिखने के लिए लंदन जाना पढ़ा। इस दौरान उन्होंने भी लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाना शुरू कर दिया। ज्याँ ने अपने कुछ दोस्तों की मदद से लंदन में भी ‘बैलग्रेव होमलेस प्रोजेक्ट’ शुरू किया जहाँ जरूरतमंद लोगों को खाने-पीने और रुकने की व्यवस्था थी। 1992 में ज्याँ जब वापस भारत आए, तो उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाना शुरू कर दिया।
ज्याँ के अनुसार अर्थशास्त्र और गणित की पढ़ाई की सार्थकता तभी है जब वह आम लोगों के काम आए। उनका विश्वास है कि इस यथार्थ को समझने के लिए आम लोगों के बीच रहना जरूरी है। वे भारत में आने के बाद से ही विभिन्न झोपड़पट्टियों व आम लोगों के बीच ही रहते हैं।
भारत में ज्याँ द्रेज के शोध के प्रमुख क्षेत्र हैं, ग्रामीण विकास, सामाजिक असमानता, प्राथमिक शिक्षा, शिशु-पोषण, स्वास्थ्य सेवाएं, खाद्य सुरक्षा, लैंगिक असमानता आदि। ज्याँ द्रेज का मानना है कि भारत में जितनी असमानता है उतनी दुनिया के बहुत कम देशों में है। पीटीआई-भाषा को दिए एक इंटरव्यू (एडिटेड बाई इंडिया टीवी न्यूज डेस्क, 8 जुलाई 2018 को प्रकाशित) में ज्याँ द्रेज ने मोदी सरकार की कई योजनाओं और आर्थिक नीतियों की आलोचना की है।
उन्होंने कहा है कि, ‘‘सरकार को आर्थिक वृद्धि की ‘सनक’ से बाहर निकलना चाहिए और विकास क्या है इसको लेकर व्यापक नजरिया अपनाना चाहिए। आर्थिक वृद्धि, जीवन स्तर में सुधार के तौर पर विकास में निश्चित रूप से योगदान दे सकती है पर यह अपने आप में दूरगामी नहीं हो सकती है।’’ उन्होंने कहा कि विकास के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण, सार्वजनिक परिवहन आदि क्षेत्रों में विस्तृत कदम उठाने की जरूरत है। उनके अनुसार, ‘‘मोदी सरकार इनमें से कई जिम्मेदारियों को पीछे छोड़ रही है और उन्हें किसी न किसी रूप में औद्योगिक घरानों या फिर राज्य सरकारों के भरोसे छोड़ दे रही है।’’
ज्याँ द्रेंज ने कहा है कि विकास की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण शुरुआत गुणवत्ता वाली शिक्षा है। इसे हाल ही में दुनियाभर में और खुद भारत में विकास कार्यों से मिले अनुभव में देखा जा सकता है। उन्होंने कहा है कि, ‘‘वैश्विक स्तरीय शिक्षा भारत के लिये काफी महत्वपूर्ण है। भारत में व्याप्त सामाजिक विषमता को देखते हुए यह काफी अहम है।’’
मोदी सरकार द्वारा की गई नोटबंदी और जीएसटी पर भी उनकी टिप्पणी सकारात्मक नहीं है। वे मानते हैं कि नोटबंदी से वित्तीय रूप से कमजोर वर्ग को झटका लगा है। उनका कहना है कि नोटबंदी के बावजूद अर्थव्यवस्था किसी तरह से 7.5 प्रतिशत वृद्धि रूझान के आसपास वृद्धि हासिल करने में सफल रही है। पिछले 15 साल अर्थव्यवस्था इसी स्तर के आसपास वृद्धि हासिल करती रही है। इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में मेहनताना दरें वास्तव में कमोबेश स्थिर रही हैं। भारत में महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी भी दुनिया में सबसे कम मुल्कों की तरह ही है।
जीएसटी के बारे में उनका कहना है कि यह सिद्धांत बुरा नहीं है किन्तु जिस तरह से लागू किया गया वह तरीका सही नहीं था। उससे छोटे व्यवसाइयों को ज्यादा नुकसान हुआ। बाद में इसका सरलीकरण किया गया जिससे कुछ राहत मिली। सरकार ऐसी योजनाएं लागू करते समय आम जनों पर कम ध्यान देती है।
ज्याँ द्रेज आम जनता के अधिकारों के लिए होने वाले प्रदर्शनों को सिर्फ नैतिक समर्थन ही नहीं देते। वे उनमें हिस्सा लेते हैं और जरूरत पड़ने पर गिरफ्तारी भी देते हैं। झारखंड के ‘चतरा’ में कमिश्नर के कार्यालय के सामने उन्होंने चेतना भारती, महिला मुक्ति संघर्ष समिति आदि के साथ धरना दिया। उन्होंने कहा कि लोगों की जमीनें छीनी जा रही हैं, लोग मुखर होकर अब विरोध दर्ज करा रहे हैं। इसलिए भूमि सुधार कानून को विधि सम्मत लागू करने की जरूरत है।
इसी तरह 27 मार्च 2019 को झारखंड के ‘गढ़वा’ जिले के विशुनपुरा थाना क्षेत्र स्थित पोखरा चौक पर देहान ग्रुप के द्वारा एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। जिसमें ज्याँ द्रेज को बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया गया था। लेकिन कार्यक्रम के दौरान ही पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया। उनपर आरोप था कि उन्होंने आचार संहिता का उलंघन किया है। कहा गया कि उक्त कार्यक्रम के लिए प्रशासन को जानकारी नहीं दी गई थी। बाद में उन्हें छोड़ दिया गया।
उन्होंने सरकारी डाटा की अनुपलब्धता पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह देश में ‘सांख्यिकी प्रणाली में आई गिरावट’ का लक्षण है और सरकार की ‘असुविधाजनक आंकड़ों’ को दबाने की प्रवृत्ति को दिखाता है। उनके अनुसार ‘इसके और कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। जैसे गरीबी सूचकांक आउट ऑफ डेट हैं, इसका सबसे हालिया अधिकारिक आंकड़ा 2011-12 का है।’ उन्होंने पिछले दो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे 2005-06 और 2015-16 के बारे में कहा कि इन दोनों सर्वे में 10 साल का अंतर था जबकि बाकी दक्षिण एशियाई देशों में यह अंतर दो से तीन साल का होता है।
उन्होंने यह भी कहा है कि,“मोदी सरकार ने सामाजिक नीतियों से मुँह फेर रखा है।” वे कहते हैं कि, ‘अगर स्वच्छ भारत मिशन को अपवाद के रूप में देखें, तो बीते सालों में शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, सामाजिक सुरक्षा या इनसे सम्बन्धी मामलों में कोई खास कदम नहीं उठाए गए हैं। यहाँ तक कि जहाँ सरकार की कानूनी तौर पर ज़िम्मेदारी बनती है, जैसे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत मातृत्व लाभ देने के लिए भी कोई ऐसा कदम नहीं उठाया गया जिस पर बात कर सकें। यह गरीबों के लिए एक बुरी खबर है जो अपनी आजीविका के लिए अधिकतर सार्वजनिक और सामाजिक सुविधाओं पर निर्भर रहते हैं।’
ज्याँ ने आधार के आने से सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) में भ्रष्टाचार कम होने के दावे को भी ख़ारिज किया है। उन्होंने दावा किया कि, ‘इसके उलट, कम से कम झारखंड में तो इससे भ्रष्टाचार घटा नहीं बल्कि बढ़ा ही है। इसकी एक वजह यह भी है कि जब लोग बायोमीट्रिक टेस्ट में फेल हो जाते हैं तो उनका राशन पीडीएस डीलर हड़प लेते हैं।’ (द वायर हिन्दी, 9 जुलाई 2018) इसके बजाय उन्होंने स्मार्ट कार्ड को ज्यादा भरोसेमंद तकनीक बताया, जो पहले से ही हिमाचल प्रदेश और तमिलनाडु में इस्तेमाल किया जा रहा है।
गुजरात मॉडल की चर्चा पिछले दिनों खूब हुई। इसपर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि ‘गुजरात मॉडल’ नाम लोकसभा चुनाव 2014 के आसपास गढ़ा गया। अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिंदू’ में उन्होंने ‘द गुजरात मॉडल’ शीर्षक से एक लेख लिखा था। इसमें उन्होंने कहा था कि गुजरात में विकास की उपलब्धियाँ मध्यम दर्जे की हैं और यह स्थिति नरेंद्र मोदी के पहले से ही हैं। इस लेख में उन्होंने गुजरात में गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, खराब स्वास्थ्य सुविधाओं पर सवाल उठाते हुए लिखा है कि गुजरात में ऐसा कुछ नहीं है कि उसे ‘मॉडल’ के रूप में देखा जाए।
आदिवासियों के बीच काम करते हुए देखकर कुछ लोगों ने ज्याँ द्रेज का सम्बन्ध नक्सलियों से भी जोड़ने की कोशिश की। वे नक्सलियों से किसी भी तरह के सम्बन्ध से इनकार करते हैं। उनका मानना है कि नक्सलियों का आन्दोलन पिछले पचास वर्ष से भी अधिक दिनों से चल रहा है किन्तु इसका परिणाम क्या निकला? हत्याएं, विनाश और तबाही। वे मानते हैं कि बदलाव लोकतन्त्र के द्वारा ही संभव है और लोकतन्त्र मे ही उनका विश्वास है।
प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने ज्याँ द्रेज को ‘गरीबों का अर्थशास्त्री’ कहा है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के वे आर्थिक सलाहकार समिति के सदस्य हैं। वे भारत के राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के भी सदस्य रह चुके हैं।
ज्याँ द्रेज की लगभग सभी पुस्तकें शोध आधारित हैं और विकासवादी अर्थशास्त्र पर केन्द्रित हैं। उदाहरणार्थ अपनी चर्चित पुस्तक ‘एन अनसर्टेन ग्लोरी : इंडिया एण्ड इट्स कंट्राडिक्शन्स’ में उनकी स्थापना है कि भारत आर्थिक वृद्धि दर की सीढ़ियाँ तेज़ी से तो चढ़ता गया है लेकिन जीवन-स्तर के सामाजिक संकेतकों के पैमाने पर वह पिछड़ गया है—यहाँ तक कि उन देशों के मुकाबले भी जिनसे वह आर्थिक वृद्धि के मामले में आगे बढ़ा है।
दुनिया में आर्थिक वृद्धि के इतिहास में ऐसे कुछ ही उदाहरण मिलते हैं कि कोई देश इतने लम्बे समय तक तेज़ आर्थिक वृद्धि करता रहा हो और मानव विकास के मामले में उसकी उपलब्धियाँ इतनी सीमित रही हों। पुस्तक में भारत में आर्थिक वृद्धि और सामाजिक प्रगति के बीच के सम्बन्धों का गहरा और बारीकी से विश्लेषण किया गया है और अपेक्षित सुक्षाव भी दिए गए हैं।
इसी तरह उनकी अपेक्षाकृत नय़ी पुस्तक ‘सेन्स एण्ड सॉलिडैरिटी- झोलावाला इकोनॉमिक्स फॉर एवरीवन’, जो ‘झोलावाला अर्थशास्त्र’ के नाम से हिन्दी में भी प्रकाशित है, में शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, पोषण, बाल -स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार, रोजगार तथा सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों पर लेख संकलित हैं। इसके अलावा इसमें कारपोरेट शक्ति, आणविक निरस्त्रीतकरण, गुजरात मॉडल, कश्मीर की स्थिति आदि विषयों पर भी लेख हैं। भारत के व्यावसायिक मीडिया जगत में ‘झोलावाला’ शब्द हिकारत के भाव से इस्तेमाल किया जाता है। इस पुस्तक में प्रामाणिक आर्थिक विश्लेषण से युक्त सामूहिक कर्म और उससे निकलने वाली सीख पर जोर दिया गया है। पुस्तक की विस्तृत भूमिका में संपादक ने विकासमूलक अर्थशास्त्र के प्रति ऐसा नजरिया अपनाने की हिमायत की है जिसमें शोध-अनुसंधान के साथ-साथ कर्म-व्यवहार पर भी जोर हो।
ज्याँ द्रेज द्वारा संपादित और हिन्दी में प्रकाशित एक नई किताब है ‘भारतीय नीतियों का सामाजिक पक्ष’। 18 अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक में स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य सुरक्षा, रोजगार गारंटी, पेंशन और नकद हस्तांतरण तथा विषमता और सामाजिक बहिष्कार जैसे विषयों पर लेख हैं। प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा किए गए इन आलोचनात्मक मुद्दों के व्यापक विश्लेषण को पहली बार किसी एक पुस्तक में समाहित किया गया है। इसमें संकलित लेख ‘इकोनॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली’ में पहले प्रकाशित हो चुके हैं।
ज्याँ द्रेज की अन्य प्रमुख पुस्तकें हैं, ‘हंगर एण्ड पब्लिक ऐक्शन’,1989 (अमर्त्य सेन के साथ सहलेखन), ‘द पोलिटिकल इकोनॉमी ऑफ हंगर’ (तीन खंड) 1991(अमर्त्य सेन के साथ सहलेखन), ‘सोशल सिक्योरिटी इन डेवलपिंग कंट्रीज’,1991 ( अमर्त्यसेन, ई. अहमद तथा जे. हिल के साथ सहलेखन), ‘इकोनॉमिक डवलपमेंट ऐंड सोशल अपॉरिच्युनिटी’,1995 (अमर्त्य सेन के साथ सहलेखन), ‘इंडियन डवलपमेंट : सलेक्टेड रीजनल परस्पेक्टिव’,1997 (अमर्त्य सेन के साथ सहलेखन), ‘द डैम एण्ड द नेशन : डिस्प्लेसमेंट एण्ड रिसेटिलमेंट इन द नर्मदा वैली’,1997 (एम. सैमसन तथा एस. सिंह के साथ सहलेखन), ‘पब्लिक रिपोर्ट ऑन बेसिक एजूकेशन इन इंडिया’, 1999, ‘द इकोनॉमिक्स ऑफ फेमिन’,1999, ‘वार एण्ड पीस इन द गल्फ : टेस्टीमोनीज ऑफ द गल्फ पीस टीम’, 2001, (बेला भाटिया तथा के. केली के साथ सहलेखन), ‘इंडिया: डवलपमेंट एण्ड पार्टिसिपेशन’, 2002 (अमर्त्य सेन के साथ सहलेखन) आदि।
आज ज्याँ द्रेज का जन्मदिन है। हम महान साहित्यकार डॉ. फादर कॉमिल बुल्के की तरह बेल्जियम से भारत आकर यहाँ की नागरिकता लेने तथा यहाँ के गरीबों, दलितों, वंचितों के हक के लिए लगातार काम करने वाले अपने प्रिय अर्थशास्त्री डॉ. ज्याँ द्रेज को जन्मदिन की बधाई देते हैं और उनके सुस्वास्थ्य व सतत सक्रियता की कामना करते हैं।