मैं फुलेरा हूं
मैं फुलेरा हूं… जैसे पटेढा… रसड़ा… सराय… खेजुरी… गोड़िया या उत्तरी भारत के दूसरे गांव… एक लाख के अंदर की आबादी, एक दो सरकारी स्कूल, सरकारी अस्पताल, मंदिर, पानी की टंकी और पंचायत। इस रूप में मैं काल्पनिक होते हुए भी वास्तविक हो सकता हूं और उत्तर भारत के किसी भी गांव को मुझमें पाया जा सकता है। यहां के लोगों की अपनी जीवन शैली, छोटी छोटी रंजिशें, आपसी राजनीति और इन सबके बीच सतत प्रवाहित मानवीय संवेदना की अंतर्निहित धारा – गांव के लोगों को परिवार की तरह एक दूसरे से निश्छल भाव से जोड़ती! कहने की आवश्यकता नहीं कि सभ्यता के इस दौर में जब परिवारों के बीच भी संवेदना के सूत्र बिखर रहे हैं, तब इस आत्मीयता के क्या मायने हैं।
कभी प्रेमचंद ने एक उपन्यास लिखा और वह समूचे उत्तर भारत के गांवों का सामाजिक आर्थिक इतिहास बन गया… किसी रेणु ने पूर्णिया के अंचल को उठाया और उसके माध्यम से बिहार के पिछड़े गांवों को लोगों की नजर में ले आए। मेरी दुनिया भी कहीं अपनी गति से चुपचाप चल रही थी। भला हो पटकथा लेखक चंदन कुमार का, वे जाने कहां से मुझे ढूंढकर ले आए और निर्देशक दीपक कुमार मिश्र का जिन्होंने ओ टी टी पर मुझे चर्चित कर दिया। कहने को तो मैं हास्य नाटिका के रूप में चित्रित हुआ पर ग्रामीण जीवन को जानने वालों का मानना है कि मेरे हास्य की पृष्ठभूमि में जो यथार्थ है वह कम महत्वपूर्ण नहीं है। साहित्य की दुनिया में कालजयी रचनाएं अपनी निजता का अतिक्रमण करती हुई एक बड़े कालखंड के बृहत्तर परिवेश को रेखांकित करती हैं। इस तरह वे यथार्थ के प्रामाणिक दस्तावेज बन जाती हैं। किंतु समय के साथ अभिव्यक्ति के माध्यम भी बदले हैं। दृश्य श्रव्य माध्यम आज के समय के वे माध्यम हैं जिनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता, बल्कि कहा जा सकता है कि वे नई सदी की नई भाषा हैं। हम नहीं कह सकते कि सिनेमा केवल मनोरंजन का माध्यम भर हैं। बड़े स्तर पर मनोरंजन के माध्यम की भूमिका निभाते हुए भी मसाला फिल्मों के समानांतर कला और समानांतर फ़िल्मों की धारा भी चलती रही है जहां कला के विभिन्न उपादानों को संयोजित कर एक उत्कृष्ट कला माध्यम के रूप में फिल्में यथार्थ की कलात्मक प्रस्तुति करती रही हैं। निःसंकोच कहा जा सकता है कि इनमें ओटीटी पर आने वाले धारावाहिक या वेब सीरीज भी जुड़ गए हैं।
तो चलते हैं फुलेरा की ओर… फुलेरा… धारावाहिक के अनुसार पूर्वांचल में अवस्थित बलिया जिले का एक आम सा दिखने वाला गांव। एरियल व्यू से देखा जा सकता है – छोटे छोटे घर, गालियां, मंदिर, खेत खलिहान, टूटी फूटी सड़क, पंचायत भवन और पानी की टंकी, सबसे ऊपर तक उठी हुई। कुछ पात्र… मंजू देवी, अभिषेक, विकास, रिंकी, खूशबू, बिनोद… स्थाई रूप से उपास्थित। ये सब गावों में आज की पीढ़ी के अत्यंत परिचित नाम… गांव की मुखिया या प्रधान मंजू देवी जैसा कि उत्तर प्रदेश में कहते हैं, उनके पति, गांव भर में प्रधान जी के नाम से जाने जाने वाले, साथ में उप प्रधान प्रह्लादचा, पंचायत कार्यालय का सहायक विकास, विधायक जी, भूषण, बिनोद और अन्य- मेरे ये वाशिंदें, मुझे पहचान देने वाले।
शहर का एक पढ़ा लिखा युवक अभषेक- माने अभिषेक आता है। लक्ष्य है प्रतियोगिता पास करना पर जीविका के लिए अस्थाई तौर पर बीस हजार की इस नौकरी को स्वीकार करता है।
मेरी समूची कथा एक तरह से अभिषेक की आंखों देखी है। प्रतियोगिता की तैयारी करने वाला शहर का एक युवक एक अनजाने गांव में आता है। उसे निर्लिप्त भाव से अपना समय गुजारना है। किंतु वह निर्लिप्त रह कहां पाता है, फुलेरा पंचायत के परिवार के से वातावरण में वह भी शामिल कर लिया जाता है जहां लोग उसकी परेशानियों में शामिल होते हैं और वह भी दूसरों के सुख दुख में शामिल होता जाता है। प्रधान जी के खाना बनाने के आग्रह पर चिढ़ जाने वाली मंजू देवी को जब पता चलता है कि देर रात गए अभिषेक ने खाना नहीं खाया है तो ममता से भरकर उसके लिए भी रोटियां बना देती है। बेटे के शहीद हो जाने के बाद एकाकी प्रह्लाद के भोजन और दूसरे दायित्व स्वतः ही लोग उठा लेते हैं। कभी प्रधान के घर से तो कभी विकास के घर से उनके लिए भोजन आता है। उसकी देखभाल भी सब मिलकर करते हैं। शराब के नशे में धुत्त पड़े प्रह्लाद के लिए मंजू देवी का रूंधे गले से कहना– ‘तुम लोग ध्यान रखो इनका नहीं तो किसी दिन…’ इस प्रकार के बहुत से प्रसंग यहां मिल जाएंगे जो खामोशी से दिल को छू जाते हैं।
अभिषेक, कहा जा सकता है कि इस धारावाहिक का नायक है। लेकिन सच यही है कि यह अभिषेक की कथा नहीं है। बीच बीच में उसका संघर्ष और उसके अंतर्द्वंद्व आते हैं, पर वे बहुत मामूली से हैं। धारावाहिक का मूल मकसद तो फुलेरा का जीवन है, वहां के लोग हैं। इन अर्थों में इसे आंचलिक कहा जा सकता है। धारावाहिक कॉमेडी होने का दावा करता है। बड़ी बात यह है कि इसकी कॉमेडी का यथार्थ बोध। यहां व्यंग्य की तीखी धार नहीं है, खास तरह की सहजता और सरलता है। रेणु के आंचलिक बोध और रसबोध को यहां सहज ही महसूस किया जा सकता है। यह धारावाहिक प्रमाण है कि यथार्थ को बिना मारक व्यंग्य, विद्रुपता और आक्रोश पूर्ण प्रतिरोध के उसकी सहजता में भी व्यक्त किया जा सकता है। इस हास्य बोध में उपहास का भाव भी नहीं है। यहां गांव का यथार्थ अपनी समग्रता में है -आपसी वैमनस्य, राजनीति के छद्म, पंचायत के नाम पर चलने वाली सरकारी योजनाओं की जमीनी सच्चाई, आपसी राग द्वेष- यह मेरे जैसे उत्तर भारत के किसी भी गांव की सच्चाई हो सकती है।
कहा जा सकता है कि यहां जीवन है अपनी सहजता में प्रवाहित। यह जरूर है कि यहां व्यक्ति नहीं है, इसलिए उसके दर्द और व्यक्ति जीवन की विडंबनाएं नहीं हैं। ग्रामीण यथार्थ एक भिन्न कोण से उपस्थित है। छोटी छोटी घटनाएं ग्रामीण यथार्थ के बड़े दृश्यों को सामने लाती हैं – दो चार अपने ही जैसे मरियल दोस्तों से घिरे मरियल दूल्हे का वीररस पूर्ण हुंकार और नखरे गांव का दामाद होने के नाते जिसे सारे गांव वाले उठाते हैं। नशाबंदी के प्रचार के लिए जो ड्राइवर आता है, वह खुद नशे में धुत्त है। परिवार नियोजन के लिए प्रशासन द्वारा दिए गए नारे ‘ एक या दो बच्चा खीर/दो से ज्यादा बवासीर’ पर गांव में बहुत बवाल मचता है और प्रशासन को यह स्लोगन हटा लेना पड़ता है।
इसी प्रकार की कुछ और घटनाएं हैं। प्रधान के प्रतिद्वंद्वी भूषण और उसकी पत्नी तथा मंजू देवी के बीच चप्पल को लेकर महिलाओं के बीच के झगड़े के दृश्य हास्य बोध का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
पंचायत में सीसीटीवी लगता है। बिनोद की बकरी खो जाती है। वह सचिव के पास आता है सीसीटीवी पर पता करने के लिए। सचिव डांटता है, इतनी छोटी बातों के लिए नहीं लगा है कैमरा। इसपर बिनोद कहता है- आपके लिए छोटी हो सकती है, पर मेरे लिए तो वह बहुत कुछ है … एक शहरी युवक धीरे धीरे गांव की सच्चाइयों से किस तरह परिचित होता है, यह देखना बहुत रोचक है।
गांव में एक नेताजी भी हैं -विधायक होने के अहंकार से भरे, गाली गलौज की भाषा और सामंती मद में चूर- ग्रामीण अंचल के आम विधायक का प्रतिनिधित्व करते! इस पात्र को भी अभिनेता ने खूब डूबकर जिया है। एक है खलनायक, प्रधानजी का प्रतिद्वंदी भूषण, जिसके माध्यम से गांव की राजनीति के दांव पेंच सामने आते हैं।
पंचायत सचिव के साथ उसका एक सहायक भी है, पचीस तीस वर्ष का युवक सचिव और प्रधानजी तथा गांववालों के बीच की कड़ी। उसकी चाल ढाल, बोलने का लहजा और अपने वरिष्ठ को खुश करने की प्रवृत्ति के बीच चुलबुला सा अंदाज उसके व्यक्तित्व को सहज बनाता।
और बिनोद के क्या कहने! एक आम अनपढ़ ग्रामीण बेवकूफ सा दिखता, लोगों के बहकावे में आता, जिसके दिमाग में बात तनिक देर से घुसती है और जब घुसती है तो सर हिलाता है – ‘एक बात कहें, आप बात तो बड़ा सही कहते हैं।’ यह बिनोद गांव के आम लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
बीच बीच में उपस्थित होती है प्रधानजी की बेटी रिंकी। एक समय था कि घर में लड़कियां सिलाई बुनाई का रचनात्मक काम कर अपना समय काटती थीं। रिंकी मोबाइल युग की है। उसके एकांत का साथी बस मोबाइल है। आगे चलकर सचिव जी से परिचय होता है। सचिव के साथ उसका प्रेम बड़ी धीमी गति से परवान चढ़ता है। उसमें एक संकोच और दुराव है जो उस परिवेश में बहुत स्वाभाविक लगता है।
मंजू देवी… पंचायत सीरियल की एक महत्वपूर्ण पात्र …बल्कि नायिका … ठसक से भरी हुई, तेज तर्रार। वह स्त्री अधिकारों से भले ही परिचित न हो, पर अपने होने को लेकर सचेत है। वह गांव की मुखिया या कहें प्रधान है, पर गांव में उसके पति प्रधान जी के रूप में जाने जाते हैं। सारे निर्णय वही लेता है, यहां तक कि झंडा भी वही फहराता है। मंजू देवी जब भी कुछ जानने का प्रयास करती हैं तो तुम्हें कुछ नहीं पता कहकर वह उसका तिरस्कार करता है। मंजू देवी के रूप में महिला मुखिया का अपने अधिकारों के प्रति सजग होना और धीरे धीरे स्वयं निर्णय लेने की क्षमता और साहस के साथ सशक्त होते हुए देखना एक रोचक अनुभव है। निश्चय ही इसमें प्रशासन की भी सक्रिय भूमिका है जो मुखिया पति की खबर लेते हुए महिला मुखिया को आगे आने को प्रेरित करता है। इससे संबंधित एक अत्यंत रोचक घटना जो याद रह जाने लायक है। स्वतंत्रता दिवस पर झंडोत्तोलन के लिए मुखिया पति अपनी पत्नी की जगह पर प्रस्तुत हैं। मंजू देवी को राष्ट्रगान नहीं आता, कहकर उसे पीछे कर देता है। मंजू देवी सचिव को बुलाकर प्रयासपूर्वक राष्ट्रगान सीखती हैं। यह उनके लिए आसान नहीं था। पर वह सीखती हैं और झंडा फहराने के बाद जिलाधिकारी के सामने सुनाती हैं। भले ही दो चार शब्द भूल जाती हैं पर उनके इस प्रयास के लिए जिलाधिकारी द्वारा उन्हें शाबासी मिलती है। मंजू देवी कठपुतली बनकर नहीं रह जातीं, वह चीजों को समझना चाहती हैं और मामला जटिल होने पर स्वयं आगे बढ़कर निर्णय भी लेती हैं।
इस धारावहिक या कहें वेबसीरीज का सशक्त पक्ष है इसकी पृष्टभूमि। जिस ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि में इसके दॄश्य चित्रित हैं, वे सत्तर अस्सी के दशक वाले ग्रामीण दृश्यों से एकदम अलग हैं। इसका सेट बनावटी नहीं है। पात्र हों, घटनाएं हों, डायलॉग्स हों या वेश भूषा – सब वास्तविकता के बहुत नजदीक हैं। यहां तक कि पात्रों का बॉडी लैंग्वेज भी कमाल का है। ग्रामीण अंचल को जानने वाले लोग सहज ही बता सकते हैं यह सब वास्तविकता के कितने निकट है। एक पढ़े लिखे शहरी युवक के चेहरे की निर्लिप्तता – उसके अनुभव गांव के श्वेत और श्याम दोनों पक्षों को सामने लाते हैं। उसके पढ़ने के समय का अधिकतर तो बिजली पानी की व्यवस्था करने में बर्बाद हो जाता है। गांव में उसका एकाकीपन और उस एकाकीपन को भरता गांव का आत्मीय वातावरण … सामूहिकता से भरा आत्मीय परिवेश बहुत जल्द ही उसे परिवार का हिस्सा-सा बना देता है।
इन सबके बीच बहुत से दृश्य हैं जो हँसते हँसाते तो कभी चुपचाप आकर मर्म को स्पर्श कर जाते हैं। सचिव के द्वारा नाच करने वाली युवती को यह कहने पर कि आप नाचना छोड़ क्यों नहीं देतीं, उसकी तीखी प्रतिक्रिया …तुम भी तो नाच रहे हो, छोड़ क्यों नहीं देते …सचिव को निरुत्तर ही नहीं कर जाता, आम लोगों के जीवन की विडंबना को भी सामने लाता है। नशे में धुत्त ऑटो ड्राइवर का कथन कि जब इतने कम पैसे में तुम्हारी जरूरतें पूरी नहीं होंगी तब देखना तुम क्या करते हो। इसी प्रकार एक शहीद के अंतिम संस्कार की भव्यता के पीछे उसके बुजुर्ग पिता के जीवन का भयावह सन्नाटा … बाकी लोगों द्वारा स्वतः ही उसकी देखभाल की जिम्मेदारी संभाल लेना … सबकुछ बहुत ही सहज, सुंदर … हँसते हँसते रुला देने वाला!
सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं की जमीनी सच्चाई से परिचित होना एक अलग ही अनुभव है। प्रत्येक एपिसोड ऐसी ही किसी सच्चाई को सामने लाता है। नशामुक्ति का प्रचार, नसबंदी के स्लोगन पर गांव में विवाद, रेल स्टेशन बनाए जाने के लिए धरना प्रदर्शन, शौचालय बनवाना … ऐसी बहुत सी योजनाओं की जमीनी हकीकत सुंदर हास्य बोध के साथ सामने आती हैं।याद किया जा सकता है गौतम घोष का कथन कि सिनेमा नई शताब्दी की भाषा है। देखा जा सकता है अभिव्यक्ति के नए उपकरणों को विकसित होते हुए।
इस धारावाहिक की सबसे बड़ी खासियत है इसका अभिनय पक्ष। मंजू देवी से लेकर बिनोद और विकास जैसे बिल्कुल नए अभिनेताओं का इतना मँजा हुआ अभिनय निर्देशक के कौशल का परिचय देता है। पात्रों की वेश भूषा से लेकर बॉडी लैंग्वेज और यहां तक कि नामकरण तक – सब अपनी वास्तविकता में इतने स्वाभाविक हैं कि दर्शक उसमें शामिल हुआ-सा महसूस करने लगता है। धारावाहिक का माध्यम न रहकर अनुभव में रूपांतरण इस धारावाहिक की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है। नीना गुप्ता का अभिनय बॉलीवुड के लिए नया नहीं है। अपने अभिनय से अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाली नीना गुप्ता यहां बिल्कुल नए अंदाज में हैं। ग्रामीण महिला के रूप में पैरों में हवाई चप्पल, टखनों तक उठी हुई साड़ी, पति के साथ अनवरत चलने वाली नोंक झोंक, पति के वर्चस्व को न स्वीकार करने के कारण उसका चिढ़ा चिढ़ा अंदाज – सब इतना स्वाभाविक है कि विश्वास ही नहीं होता कि यह वही नीना गुप्ता हैं। निश्चय ही उनकी यह भूमिका उनके जीवन भर के अभिनय पर भारी है।
रघुवीर यादव भी एक सधे हुए अभिनेता रहे हैं। आम निम्न वर्गीय पात्रों की भूमिका निभाने में उन्हें कमाल हासिल है। प्रधानजी के रूप में सलवटों वाली पैंट, चलने का विशिष्ट अंदाज, पत्नी पर हर समय तंज कसना और मोबाइल पर दूसरी तरफ की बात सुनते हुए आं, हूं, अरे, ऊं की ध्वनि निकलना …सब उनके अभिनय को बहुत जीवंत बनाते हैं।
ये अभिनेता तो पुराने और मँजे हुए अभिनेता हैं। पर कुछ जो नए अभिनेता हैं वे भी अपने अभिनय की धाक जमाते हैं। विकास के रुप में चंदन रॉय, उप प्रधान के रूप में फैसल मलिक, भूषण की पत्नी के अभिनय में सुनीता राजवार, बिनोद के रूप में अशोक पाठक और सचिव के रोल में जीतेन्द्र कुमार – सब अमिट छाप छोड़ते हैं।
हाल के वर्षों में ग्लैमर से हटकर यथार्थ वादी फिल्मों और धारावाहिकों का दौर चल रहा है। ‘पंचायत’ इसलिए अलग है कि निम्न मध्यवर्गीय जीवन से परे यहां एक विशिष्ट ग्रामीण अंचल को आधार बनाया गया है। स्टैंड अप कॉमेडी के इस दौर में धारावाहिक का हास्य बोध अपनी मासूमियत और अनोखे अंदाज में स्वस्थ हास्य का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। हास्य के साथ यथार्थ का यह मेल इस धारावाहिक को रोचक के साथ अविस्मरणीय बना देता है।