‘हुए’ नहीं तो प्रेम कहाँ से होय?
सोशल मीडिया में छाए परिदृश्य के असर में अपनी एक मित्र से फोन की शुरुआत इस तरह न की होती तो शायद यह सब न लिखना पड़ता। वैलेंटाइन डे के उपलक्ष्य में फेसबुक पर प्रेमी जोड़ों की तस्वीरें, प्रेमिल उदगार, इश्किया शायरी और फूलों की बहारें छाई हुई थीं। मोबाइल में घंटी बजने पर फोन उठाते ही दूसरी तरफ से आस्था ने खनकती आवाज में पूछा “कई दिन से बात नहीं हुई, सोचा पूछा जाए क्या हाल हैं?” हाल किस संवेदनशील व्यक्ति के अच्छे रह ही सकते हैं आजकल, सो टालने की गरज से कहा, “और तुम कैसे मना रही हो प्रेम दिवस?” जवाब में उधर से आई शब्दों की बाढ़ से झुंझला कर मैंने कहा “नाहक ही मैं बेसिरपैर का प्रश्न पूछ बैठी।” उसकी ओर से आता शब्दों का बहाव पूर्ववत रहा, लेकिन थोड़ी सी दिशा जरूर बदल गयी।
“बेसिरपैर प्रश्न तो है ही, इसमें क्या संदेह? जिंदगी को जिंदगी, समाज को सुन्दर बनाने वाला महत्त्वपूर्ण सामाजिक मूल्य है प्रेम। उसके लिए दो व्यक्तियों की दरकार होती है। ‘एक’ और ‘एक’ आमने-सामने होंगे तभी तो प्रेम होगा न? प्रेम की छोड़ो, कभी तुम पूरी तरह ‘एक’ हो सकी हो? किसी के भी साथ ऐसा अनुभव जिया है जिसमें दोनों ने अपने को पूरा पूरा एक-एक महसूस किया हो? जिसमें अपना ‘एक’ सामने वाले ‘एक’ से मुखातिब हो। दूसरा हमसे हैसियत में अधिक हो तो हम उसके सामने आधे, पौने, चौथाई होते हैं और वह सवा, डेढ़, या पौने दो। स्तर में कम होने पर हम एक से अधिक हो जाते हैं। इस समाज में जहाँ सब कुछ पदानुक्रम से तय होता है, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक ही नहीं सामाजिक भेदभावों की भी अंतहीन श्रृंखलाएँ हैं। पैदा होते ही कोई न कोई पद हासिल हो जाता है। पुरुष भी एक पद है, अमुक-अमुक वर्ण में पैदा होना भी पद है।”
मैंने उसे टोका कि “सामने वाला अगर पद में हमसे ऊँचा हो, हम उसके मातहत हों तो हमारे हाथ में जरुर कुछ खास करने को नहीं होता, मगर जहाँ ऐसी स्थिति न हो, वहाँ तो हम ‘एक’ रह सकते हैं। एक से कम होने का विरोध कर सकते हैं और अधिक होने से इंकार …”। मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि उसकी व्यंग्य भरी ऊँची हँसी सुनाई दी। बोली “मैडम, आप पढ़ने-लिखने की शिष्ट दुनिया में रहती हैं। शारीरिक कर्म से जुड़ी सेवाओं या पारंपरिक समाज का हिस्सा होतीं तो आपके ये शब्द भोले लगते। अभी तो महज पाखंड लग रहे हैं या खुद को मिले विशेषाधिकारों के प्रति बेपरवाही। ऊपर वालों की प्राप्तियों के महीन से महीन स्तर को हमारी निगाहें भाँप लेती हैं।
तब हम बखूबी समझ लेते हैं कि बौद्धिक वर्ग में अक्सर बड़ी उपलब्धियों के आधार तत्व कैसे क्रियाशील होते हैं। वे इतने सूक्ष्म और अदृश्य ढंग से काम करते हैं कि सतह पर पूरी तरह नदारद होते हैं। वहाँ तो उससे विपरीत शब्द और आचरण दिखते हैं। बदलती व्यवस्था के साथ सत्ता अपने पैंतरे बदलकर उससे समायोजन कर लेती है। आधुनिक आचरण साध कर वह आधुनिकता से मिलने वाली प्राप्तियों पर भी पकड़ बनाए रखती है और उनके परम्पराप्रदत्त लाभ भी बढ़ते जाते हैं। इस संभ्रांत बौद्धिक समाज में आँखों का एक बारीक इशारा, चेहरे की ज़रा सी जुम्बिश, माथे पर एक बेमालूम लकीर … इतना ही बहुत कुछ पाने के लिए काफी होता है। मगर जब हम खुद उस लाभ की स्थिति में होते हैं तो हम पर मासूमियत तारी हो जाती है। हमारी यह देखने, महसूस करने की शक्ति कुंद पड़ जाती है कि सिर्फ एक ख़ास जगह होने से हमें क्या कुछ मिल सका है। लोकतांत्रिक और प्रगतिशील होने का खोखला दावा अपनी जेब में रखो। जो अपने विशेषाधिकारों का संज्ञान तक लेने से कतराए, बेशक वह जीता रहे प्रेम की पारम्परिक परिभाषा और तौर तरीके – मगर खुद को समानता और आज़ादी का अलम्बरदार न कहे।”
यह भी पढ़ें – ओ री चिरइया …
उसकी कोई दुखती रग छिड़ गयी क्या? अब उसे कोई मतलब न था इस बात से कि मुझे सुनने में दिलचस्पी है या नहीं। उसके भीतर इतना गुबार जमा था कि आवेग में बोलते-बोलते जो शब्द आता उसी का सिरा पकड़ कर अपनी बात जारी रखती। अभी उसकी चेतना में धंस गया ‘समानता’ शब्द।
“दो ‘समान’ सत्ताओं के बीच घटित होने वाला भाव है प्रेम। समानता के धरातल पर ही पनप सकता है। जहाँ ‘विषमता’ केन्द्रीय मूल्य हो, वहाँ कैसे स्त्री प्रेम कर या पा सकती है और किससे? क्या उसे और खुद को ‘व्यक्ति’ मानने वाले लोग दिखते हैं तुम्हें कहीं समाज में? पारम्परिक समाज की बात छोड़ो, पढ़े-लिखे, प्रगतिशील कहलाने वाले बौद्धिक समाज में भी एक स्त्री को कितना लोकतांत्रिक स्पेस मिलता है? तुम भी तो हो न उस व्हाट्सएप ग्रुप में, जिसमें लेखन से जुड़े तमाम ‘प्रगतिशील’, ‘प्रतिबद्ध’ लोग शामिल हैं। सामाजिक सरोकारों पर केंद्रित बैठकों में सबकी बातें सुनकर लगा था जैसे सच्चे लोकतंत्र के प्रतिनिधि हम ही हैं। संवैधानिक मूल्यों के प्रति निष्ठा और समान सरोकार समूह का आधार है इसलिए अलग-अलग कार्यक्षेत्र के लोग उसमें शामिल हैं। यहाँ कोई किसी का अधीनस्थ नहीं कि ऊँचे पद वाले का अनुसरण नौकरी का तकाजा हो।
चंद दिनों के भीतर ही असली नज़ारा सामने आ गया। ऊँचे पद वाले ताकतवर लोगों की वाहियात सी बात को भी बढ़ावा दिया जाने लगा और अन्यों की दमदार और जरूरी बातों की भी उपेक्षा। समूह में चापलूसी की गंध भरने लगी। उच्चपदस्थ सदस्यों के इशारों से ही समूह की गतिविधि संचालित होने लगी। आदमियत के एहसास की जगह सिर्फ ताकत की अहमियत रह गयी।”
बढ़ते आवेश के कारण आस्था की आवाज भर्रा गयी तो उसके गले को राहत देने की गरज से मैंने उसी की पिछली बातों को दोहराना शुरू कर दिया। “अच्छा शांत हो जाओ। समझ गयी कि प्रेम तब तक एक असम्भावना है जब तक स्त्री अपना स्वत्व-बोध हासिल कर एक पूर्ण अस्तित्व न बने और मानी जाए। तब तक प्रेम ‘आधिपत्य’, ‘स्वामित्व’, ‘अधीनता’, ‘मातहती’, ‘मिल्कियत’, ‘कब्ज़ा’ इत्यादि बहुत कुछ है, लेकिन प्रेम नहीं। तुम पहले भी कह चुकी हो कि प्रेम आज के व्यक्ति के बूते की शय नहीं। शोषित प्रेम नहीं कर सकता तो शोषक भी नहीं। और वर्तमान व्यवस्था में हम हमेशा ही दोनों में से एक होते हैं। अधीनस्थ लोग तो ऊपर वालों के लिए अक्सर माध्यम भर होते हैं। फिलहाल हम सिर्फ समानता के मूल्यों को लाने की कोशिशों में भागीदारी कर अपना दायित्व निभा सकते हैं, चाहे हमारा योगदान कण भर ही हो। कभी समतामूलक समाज आया तभी इस शब्द के वास्तविक मायनों में प्रेम मुमकिन होगा। उसके लिए रास्ते खोलने की भूमिका में होना ही प्रेम के साथ होना है। अभी तो बस प्रेम से इतना ही संबंध हो सकता है।”
यह भी पढ़ें – ठिठकी हुई जिन्दगानियाँ
“मैं तुमसे कभी यह प्रश्न न पूछती अगर तुमने खुद न कहा होता कि तुम और अजय….”
अजय का नाम सुनते ही वह भड़क गयी।“ हाँ हो गयी मुझसे बेवकूफी। हाड-माँस की इंसान हूँ। ये तो जानती थी कि आधुनिक मूल्यों को जीने वाली स्वचेतन स्त्री न परम्परा को पसन्द आती है न आधुनिक कहलाने वाले पुरुषों को। सामंती विशेषाधिकारों को जेब में रखते हुए जब सफलता और उपलब्धियों का दोहन तेजी से किया जा सकता है तो वह क्यों जहमत उठाए सचमुच लोकतांत्रिक होने की? फिर भी प्रेम की आकांक्षा इतनी स्वाभाविक है कि अजय की आँखों में अपने लिए चाहत देख कर जग गयी। उसकी वैचारिकता और व्यक्तित्व मुझे भाते थे। दोस्ती गहराने के साथ यह एहसास तो मुझे हो गया था कि उसके साथ ऐसा घर बसाना संभव नहीं होगा जो दोनों की साझा जिम्मेदारी हो। पर फिर प्रेम के सहज बहाव ने अपनी निरंतरता के तर्क खोज लिए कि अगर समाजीकरण ने मुझे ऐसा बनाया तो वह भी तो एक सामाजिक-सांस्कृतिक उत्पाद है। धीरे-धीरे वैचारिकता आचरण में भी ढलने लगेगी। स्त्री-पुरुष समानता स्थापित होने में अभी सदियाँ लगेंगी। जेंडर विषमता सबसे जटिल है। इसके धागे सुलझते-सुलझते सुलझेंगे, मगर समानता के अन्य रूपों को लेकर वह प्रतिबद्ध होगा। वह इतना कमजोर साबित होगा वह तो उसके साथ सार्वजनिक स्पेस में भागीदारी करने के बाद पता चला।
एक बड़े समादृत लेखक का आपराधिक कृत्य सामने आने पर उसने मेरे सामने अपराधी पर इतना आक्रोश उगला लेकिन जब देखा कि सर्वानुमति लेखक की ओर है तो पहले चुप्पी ओढ़ी, फिर उसके पक्ष में बोलने-लिखने लगा। इससे मुझे झटका तो लगा, पर सोचा चेतना विकसित भी होती है। पर पाया कि उसकी बातें प्रभावी लोगों का ही अनुसरण करती या उनके अनुकूलन में ही होती हैं। उसे अपने सच के लिए खड़ा होना नहीं आता। उसके सारे कर्म लेन-देन की गिरोहबंदी या प्रतिष्ठित लोगों के विचार के साथ होते हैं। अगर मैं कोई निर्विवाद बात भी समूह में कहूँ जिस पर उसके वरिष्ठ सहयोगी चुप्पी साध लें तो उसमें इतनी भी प्रतिक्रिया देने का माद्दा नहीं कि उसने पढ़ लिया है। शेष पुरुष साथियों की तरह वह भी सार्वजनिक स्थलों पर चुप्पी ओढ़े रहता और एकांत में मेरा समर्थन करता। अपनी प्रेमिका के योगदान को भी सार्वजनिक महत्व देने में जो कतराता हो, जिसमें सही को सही कहने का साहस न हो, क्या उससे प्रेम मुमकिन है? सिर्फ लोगों को दिखाने के लिए तैयार होकर फोटो डाल दूँ? कितने अफसोस की बात है ना कि पूरी प्रतिबद्धता से प्रेम करने के बाद भी एक पुरुष भी हम ऐसा न पा सकें जो खुले कंठ से सार्वजनिक जगत में भी सराहना कर सके?”
मैं क्या कहती? मैं तो उन कल्पनाओं में खो गयी जब दो लोग ‘एक’ और ‘एक’ होंगे। यह होना इतना जरूरी है कि इसे सम्भव बनाने के लिए प्रेम के नाम पर चलते कार्य-व्यापार से दूरी बना कर जितना सम्भव हो उतना योगदान दिया जाए। प्रतिरोध की ताकत और सतत प्रयास के हौसले के लिए शक्ति के नए स्रोतों की तलाश की जाए। प्रेम की तो गुंजाइश फिलहाल नहीं दिखती।
.