स्त्रीकालहाँ और ना के बीच

पंख तो है मगर आसमाँ नहीं

 

राष्ट्रीय सीमाओं पर घटित हलचल से दिलों में विक्षोभ है। देश में चुनावों का माहौल गरमाया हुआ है। जन-आन्दोलनों से व्यापक तौर पर जुड़ी हस्तियों की चुनावों में हार ने चिन्ता को और भी गहरा दिया है। ऐसे समय में भी ध्यान रह-रह कर चन्द रोज पहले घटी घटना पर चला जा रहा है। देश जिन दिनों तरह-तरह की उठापटकों से तरंगित है, उस समय मेरी चेतना में उस मासूस की हैरान आँखें और यह सवाल खुबा  पड़ा है कि अब वह कौन सा रास्ता अपनाए। इससे मैं कम जिम्मेदार नागरिक हो जाती हूँ क्या?

मेरी एक मित्र है। पहली बार उससे मिलने पर लगा था कि लड़की है कि आग की लपक। अपनी शर्तों पर जीने वाले खरे लोगों में एक अलग तरह का सौन्दर्य होता है। आज से दो-ढाई दशक पहले एक छोटे शहर में अकेली लड़की का भरपूर जीना मेरे लिए एक नया अनुभव था। अकेले रहने और अकेली छोड़ दी जाने वाली स्त्रियों की तो वर्तमान समय में खासी बड़ी संख्या है। पर अक्सर अकेली रहने वाली स्त्रियाँ समाज से जोड़ने वाली अनेक राहों से खुद को काटती जाती हैं। घर के भीतर भी खुद अपने आप को मान से, लाड़ से पालना कहाँ सम्भव हो पाता है। लेकिन जरूरी नहीं कि हर कोई दिए गए साँचों के हिसाब से खुद को काटे-छीले ही। मेरी मित्र तो ऐसी ही है कि उसकी लौ से साँचे खुद-ब-खुद पिघल कर राह छोड़ते जाते हैं।

नौकरी के चन्द सालों बाद नदी किनारे सुनसान सी जगह में जमीन ली। तिनका-तिनका जोड़ कर बड़े जतन से घर बसाया। भीतर की साज-सज्जा, रहन-सहन देख कर लगता था कि पूरे माहौल में हाथों की ऐसी छुअन है, जो कोई सिर्फ अपने प्रिय के लिए ही कर सकता है। इस जीवन-शैली से यह मेरा पहला सामना था कि अपने लिए हर काम ऐसे करना जैसे अपने किसी अपने के लिए कर रहे हों। काफी समय तक तो मैं काफी चौंकती रही थी। फिर धीरे-धीरे एहसास होने लगा कि हाँ ठीक तो है, हम भी तो अपने-अपने हैं। स्त्रियों को तो आत्म-साक्षात्कार भी पर के रास्ते से ही होता है।

कम बसी हुई, शहर से अलग-थलग उस जगह पर घर लेना उसके उठान को रोक मगर नहीं पाया था। फर्राटे से स्कूटर चलाते हुए ऑफिस और शहर के किसी भी कोने में जाती, जहाँ भी उसके द्वारा किए जाने वाले जन सरोकार के तमाम काम उसे ले कर जाते। अपने हाथ से लिखे अखबार तक बाँटते हुए उसे पाया। संस्थाओं, स्त्री-संगठनों से जुड़ कर स्त्री-सरोकारों की दिशा में भी वह सक्रिय रही। सामाजिक दायरा भी उसका खासा बड़ा है। रात-बेरात किसी की जरूरत में, किसी के सुख-दुख में शामिल होने के लिए सहर्ष तत्पर रहती है। उसका अकेली होना, स्त्री होना, शहर से दूर शान्त जगह पर रहना कभी न आचरण में किसी को दिखा, न किसी के शब्दों में उसकी कोई गूँज सुनी।

अपने आप में खुद पूर्ण व्यक्तित्व। विवाह के बारे में पूछे जाने पर उसका उत्तर होता था कि सबको जागृत कर रही हूँ और खुद पितृसत्तात्मक शक्तियों के अधीन हो जाऊँ? कभी कोई मन का मीत मिला, कोई जो साथ चल सके तो ऐसा सम्बन्ध बनाएँगे कि एक-दूसरे के साथ एक-दूसरे के लिए हों न कि अन्य किसी कारण से। प्रेम आधारित परिवार में जीना और अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करते हुए समाज की बेहतरी के लिए योगदान देते हुए जिन्दगी गुजारना क्या इतना बड़ा सपना है, कि उसे सपना ही रह जाना पड़े?

अभी हमारे समाज में लोकतांत्रिक मिजाज के पुरुषों की संख्या इतनी नहीं है कि ऐसे दो लोगों के आपस में मिलने की सम्भावना अधिक हो। पढ़ी-लिखी, सुन्दर, नौकरीपेशा लड़की के लिए रिश्तों की तो कमी होती नहीं। कुछ साल तो उसके घर वालों ने कई प्रस्तावों को लेकर उस पर दवाब डालने की कोशिश की। फिर बीतते समय के साथ रिश्ते के लिए न मानने पर खुद भी उससे रिश्ता लगभग तोड़ लिया। परिवार की, समाज की अपेक्षाएँ पूरी न कर पाने पर वह न्यूनतम सहारा भी छीन लेता है। इसी तरह तो पारम्परिक संस्थाएँ अप्रांसगिक हो जाने पर भी अपना दबदबा कायम रखती हैं। लेकिन रगड़ खा कर उसका व्यक्तित्व सुदृढ़ ही हुआ। चोटें पा कर कोई टूटे न तो वह और मजबूत हो जाता है। 

पाँच साल पहले उसने एक बच्ची गोद ली। समाज अभी इतना विकसित नहीं हुआ कि सिर्फ सार्वजनिक सरोकारों में अपने जीवन की सार्थकता कोई पा ले। स्त्रियों के लिए तो और भी अधिक क्योंकि पारम्परिक तरह का परिवार न बसाने पर भी पितृसत्ता से मुक्ति कहाँ। बाहर भी तो इसी मानसिकता के लोग हैं। जीवन के किसी पड़ाव पर  लगता होगा कि पूरी दुनिया में कोई तो अपना हो। हर ऐसे एहसास की पूर्ति के लिए उसने अपनी खुद की राहें खोजी। अपने व्यक्तित्व के विरूद्ध जा कर बने-बनाए सुविधाजनक रास्ते नहीं चुने, जिनमें सहारों की कमी नहीं होती। बच्चा पालना कोई आसान काम तो होता नहीं। समाज के बहाव से अलग रास्ता लेने पर तो वह काम नितान्त आपका अपना होता है। सब कुछ बड़ी गरिमा से निभाया उसने।

कुछ दिन पहले उसके घर किसी ने चोरी की कोशिश की। चोर फाटक को लाँघ कर अहाते में घुस गया फिर भीतरी दरवाजे को पेचकसनुमा किसी चीज से खोलने की कोशिश की जो सफल नहीं हो पायी। बाउंड्री के अन्दर पूरे 15-20 मिनट चोर ने बिताए। ये सब पड़ोस की कोठी के सीसीटीवी कैमरे में साफ दर्ज है। अगले दिन मेरी मित्र पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करने गयी। जाहिर है कि बच्ची भी साथ थी। वह जहाँ भी जाती है, बच्ची तो अक्सर ही साथ होती है, उसे कहाँ छोड़े? पुलिस ने उसकी सारी बात सुन कर कहा कि “अगली बार ऐसा हुआ तो आप चुपचाप उन्हें सामान दे देना। आप बच्ची के साथ अकेली रहती हो इसलिए उनसे उलझने का जोखिम मत लेना।”

यही तो हम सब भी एक-दूसरे से कहते हैं कि चाकू की नोक पर जो माँगा जाए दे देना। कुछ महीने पहले मेरे एक सहकर्मी के भाई को गुड़गाँव और दिल्ली के बीच रास्ते में चाकू दिखा कर गुण्डों ने कहा कि कार दे दो और नीचे उतर जाओ, उसने थोड़ा सा प्रतिवाद किया तो चाकू से गोद कर उसे बुरी तरह घायल कर दिया। पूरे रास्ते चाकू की नोंक पर वे इधर-उधर गाड़ी दौड़ाते रहे और कई घंटे बाद अधमरी हालत में सुनसान जगह उन्हें फेंक कर चले गए। हमारे डर और चुपचाप सामान दे देने के फैसले के लिए तो ये घटनाएँ ही काफी होती हैं। ये तो हमारा समय हमें सिखा ही रहा है। हम इस डर से, असुरक्षा के माहौल और असुरक्षा की मनोस्थिति से पार पाने के लिए ही तो अपने सब काम रोक कर, समय की हवाओं को परे धकेल कर उन तक जाते हैं, जिन पर सुरक्षा की जिम्मेदारी है, जिन्हें तंत्र ने सुरक्षित रखने के लिए तमाम तरह की सुविधाओं और शक्तियों से लैस किया हुआ है।

इस तरह की घटनाएँ इस व्यवस्था में झोल रहने पर ही घटित होती हैं। उनके मुँह से भी ये सुनकर कहाँ जाएँ, क्या करें? उस प्यारी सी अबोध बच्ची के चेहरे के हाव-भाव तो भुलाए नहीं भूलते। हक्की-बक्की हो कर पूछ रही है कि मम्मी क्या ये सचमुच की पुलिस है? क्या पुलिस भी ऐसी होती है? इनके पास बन्दूक किस काम के लिए होती है? पिक्चर में क्या कोई और पुलिस होती है। वह डर गयी है कि कभी हमारे साथ होगा तो हमें कौन बचाएगा? सबके पास तो पापा होते हैं। दादा-दादी, नाना-नानी होते हैं। हमारे पास तो वह भी नहीं हैं।

पहले धर्म और सामाजिक संस्थाओं से समाज के आचरण नियन्त्रित  होते थे और सुरक्षा भी इन्हीं संस्थाओं से मिलती थी। अब हम लोकतान्त्रिक समाज में जी रहे हैं। संविधान की, कानून की ताकत हमारे साथ है। आज धर्म की आवश्यकता समाज में नहीं रह गयी है। अब तो आवेदन में भरने के लिए भी उसकी जरूरत नहीं रही। अगर ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती जाए तो हम कैसे मानेंगे कि तन्त्र  है हमारे साथ, हमारे लिए, हमारी सुरक्षा में। रास्ते में, कार्य-स्थल में, भीड़-भाड़ में कहीं स्त्री सुरक्षित नहीं है।

अपने खुद के घर में भी कोई पशुबल के साथ जबरन प्रवेश कर सकता है। तो क्या पूरी जिन्दगी  दम-खम से अपने बूते पर जी कर अब पति पहन लिया जाए? अपनी जिन्दगी  की रोशनी की कीमत पर खुद को काँट-छाँट कर अपने लिए सुरक्षा का बन्दोबस्त किया जाए या फिर अब तक नौकरी से बचा हुआ जो समय सामाजिक, रचनात्मक कामों में जाता था, उसका रुख मोड़ कर सारा ध्यान सिर्फ पैसा कमाने में केन्द्रित कर लिया जाए? कर दें अपने समय और ऊर्जा को बाजारी शक्तियों के हवाले? अर्थ ही एकमात्र आश्वासनकारी शक्ति बची है जो सुरक्षा दे सके? सीसीटीवी कैमरे सहित तमाम आधुनिक सुविधाओं से घर को लैश करना हो तो बेशुमार पैसा तो चाहिए ही न? एक ओर परदों के पीछे छिपा हुआ सामन्तवाद है दूसरी ओर बाजारवाद और पितृसत्ता का गठजोड़। दोनों में ही आदमियत को बचाए रखना दुष्कर है। सवाल तो यह भी है कि डर से वसूली सहज होने पर तो चाकू की नोक पर क्या-क्या नहीं पा लिया जाएगा?

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रश्मि रावत

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित लेखन करती हैं। सम्पर्क- +918383029438, rasatsaagar@gmail.com
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