वह और समाज का ‘मैं’
अपने इर्द-गिर्द किसी व्यक्ति के साथ घटित, दिल-दिमाग को बेतरह झकझोर जाने वाले सच्चे अनुभव हर महीने इस स्तम्भ में दर्ज होते रहे हैं। वर्तमान समय का परिवेश कुछ ऐसा है कि मन को व्यथित-विचलित कर देने वाली घटनाओं का सिलसिला और अधिक बढ़ गया है। इन पीड़ाओं को आकार देने की कोशिश में अभिव्यक्ति लाचार महसूस करती है। लफ्ज़ कहने लगे हैं – “जब कोई जुल्म या अन्याय होता है, तब तुम हमें खोजते हो, तुम्हारे कष्ट को वहन करने के लिए, संवेदना व्यक्त करने के लिए। न आतताइयों और जालिमों को कमजोर करने की किसी ठोस कार्यवाही के लिए हमें पुकारते हो, न आम इंसान की ताकत और हौसला बढ़ाने के लिए।
हाशिए के लोग, जो अन्याय और हिंसा का आसान शिकार होते हैं, उनकी सुरक्षा की किसी कार्यवाही में ही हमारा सहयोग ले लिया करो। जहाँ बचाने को कुछ शेष रहता ही नहीं, वहाँ पन्नों और हवाओं में बिखराने के लिए हमें पुकारते हो, गम और वेदना को व्यक्त करने में हमारा सहयोग चाहते हो। उस इंसान की यातना का कोई ओर-छोर है, जिसे अनंत पीड़ा सहनी पड़ती है? असमय दुनिया छोड़ कर जिन मनीषाओं, रोहितों, निर्भयाओं, पायलों, आरिफाओं, जुनैदों को जाना पड़ा, वे बचे रहने पर दुनिया में क्या-क्या करते, कैसे-कैसे रंग बिखेरते, क्या वह सब कह पाना हमारी सामर्थ्य में है? ऐसी त्रासदियों या विपदाओं के घटने से पहले ही उनका रोकने की कोशिशों में हमारा अधिकाधिक इस्तेमाल क्यों नहीं करते?
काफी समय से शब्द कानों में यही सब फुसफुसा रहे थे। मगर वे कहना क्या चाहते हैं, यह तब समझ में आया जब एक अत्यंत संभावनाशील और आत्मविश्वासी अल्ट्रा मैराथनर युवती ने समानता के लिए प्रतिबद्ध युवाओं के मंच Vidu’s Baton फेसबुक पेज और यू ट्यूब चैनल के साथ साक्षात्कार के दौरान अपने अनुभव और इरादे साझा किये। (42 किमी से अधिक दूरी की मैराथन को अल्ट्रा मैराथन कहते हैं।)
विश्व रिकॉर्ड बनाने वाली इस माउंटेन गर्ल को पर्वत शिखरों की ऊँचाइयाँ चढ़ते-उतरते उसके पैरों ने बहुत कुछ सिखा दिया है। वह कहती है कि “मैं इसलिए नहीं दौड़ती कि मुझे किसी से फर्स्ट आना है, कोई रिकॉर्ड बनाना या जीतना है। दौड़ते वक्त मैं बात नहीं करती। मेरे लिए रनिंग मेडिटेशन है, कंपीटिशन नहीं है। अल्ट्रा रनिंग से ज्यादा मैडिटेशन मुझे मिल नहीं सकता। इतना टाइम मैं अकेले बिताती हूँ लम्बे रास्तों पर। दौड़ने के दौरान मुझे अपने सवालों के जवाब मिल जाते हैं। मुझे दौड़ना अच्छा लगता है सो मैं दौड़ती हूँ। मुझे फर्क नहीं पड़ता कि फर्स्ट, सैकंड आऊँ। बस पापा ने एक चीज सिखाई है कि कुछ भी करो फिनिश लाइन तक करो।”
फिनिश लाइन तक चीजें करना हमारे समाज में आसान है क्या, खासतौर पर लड़कियों के लिए? जितना वे कर पाती हैं, वह भी अपने वैयक्तिक जोर से, जिसकी एक स्वस्थ समाज में जरूरत नहीं होनी नहीं चाहिए। इस अस्वाभाविक अतिरिक्त बल में परिवार वालों का बल शामिल होता है तो लड़कियों को प्रतिकूलता के विरूद्ध हाथ-पैर मारने के लिए साथ मिल जाता है। उसका हौसला बढ़ता है। सामर्थ्य में इज़ाफा हो जाता है। यह माउंटेन गर्ल खुशकिस्मत है कि पहाड़ों की अनछुई चोटियों को अपने पैरों से नाप आने की यात्रा में उसके परिजनों का सहयोग शामिल था। अगर न होता तो?
अनुमान करके देखते हैं कि तब क्या होता। सुबह के नीम अंधेरे में एक कमसिन लड़की शरीर को सहज लगने वाले कपड़े पहनकर सड़क में दौड़ लगा रही होती। चुस्त कपड़ों में आत्मविश्वास से भरे खुले-चौड़े डग भरते देख कर कुछ लोग उसे वैसी नज़रों से देखते जैसे वे बैडमिंटन और टेबल-टेनिस तारिकाओं को देखते हैं – खेल देखते हुए नहीं, जिस्मों का जायजा लेते हुए । पर नजरों की बात जाने देते हैं। ऐसे परिवेश में जिन्दगी के 12-13-14 बसंत पार कर लेने पर लड़कियां इन नजरों को उसी तरह नजरअंदाज करना सीख लेती हैं जैसे हवा में समाई धूल को।
मगर कोई मनचला पीछे से उस पर धौल जमाता हुआ तेजी से बाइक में छूमंतर हो जाता। दो-चार बार ऐसा होता तो स्त्रियों पर होने वाले अपराधों की खबरें माँ-बाप के कानों में इतनी अधिक डरावनी हो कर पहुँचतीं कि अंततः उसका दौड़ना रोक दिया जाता। 111 किमी, 222 किमी की पहाड़ी दूरियाँ नियत समय में पूरी करने की इवेंट्स में भाग लेने के लिए प्रतिदिन दौड़ने का जितना अभ्यास करना होता है, कौन उसके साथ हमेशा हो सकता है भला। अनगिनत लड़कियों में इस धावक गर्ल जितनी संभावना मौजूद रही होगी लेकिन अनुकूल माहौल न मिल पाने पर भीतर ही कुचल दी गयी होगी।
ऐसा होते हम अक्सर देखते हैं। इस जुझारू, बहादुर और कामयाब लड़की के अनुभव भी कहाँ इससे अलग हैं। एक ओर वह लोगों की नजरों से त्रस्त रहती है, दूसरी ओर शारीरिक हिंसा की आशंका से। पीछे से उसे मार कर भागने वाले लड़के की घटना उसने सार्वजनिक मंच से उस साक्षात्कार में सुनाई थी कि चाहे हम शारीरिक रूप से कितने भी मजबूत हों। मगर जब ऐसा कुछ होता है तो हम उतने ही बेबस और वनरेबल होते हैं जितना कोई भी आम लड़की। वह भी इस घटना से निरूत्साहित हुई थी और फिक्रमंद भी कि लम्बे, सुनसान रास्तों में अभ्यास कैसे कर पाएगी। मगर उसके पापा ने कहा कि तुम खुद फैसला करो कि तुम्हें हार कर, इसी को नियति मानकर बैठना है या जूझने की शक्ति बढ़ाने की जरूरत को समझ कर अपनी लौ ऊँची करने में जुट जाना है।
उसने दूसरा रास्ता चुना। उसके निर्णय ने इस बोध तक उसे पहुँचाया कि समाज में यथास्थितिवादी शक्तियों से जूझते रहना है तो हमारे पक्ष में कार्यरत संविधान और कानून का भी सहारा लेना चाहिए। दृढ़ कदम उठाने के लिए बलात्कार होने का इंतजार करना तो बेवकूफी ही होगी। नागरिक होने के नाते यह हमारा कर्त्तव्य भी है। लड़की को पीछे से मार कर भाग जाना भी एक अपराध है। लिहाजा उसने पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई। वह लड़का पकड़ा भी गया और उसे अपने किये की सजा भी मिली। छोटे अपराधों को नजरअंदाज करना ही तो बड़े अपराधों की पीठिका बनता है ।
इवेंट में भाग लेने के लिए यह धाविका अकेली लम्बी-लम्बी यात्राएँ करती है, तो क्या अपनी सुरक्षा को लेकर उसे फिक्र नहीं होती? इस प्रश्न के जवाब में उसने कहा कि
“अब मैंने अपना मन बना लिया है, अपनी माँ को भी समझा दिया है कि मेरी कोई गलती नहीं होगी फिर भी मेरे साथ कुछ भी हो सकता है। मैं खुद को बदल सकती हूँ या ज्यादा से ज्यादा खुद को चाहने वाले आस-पास के लोगों को। बाकी सब मेरे वश से बाहर है। मेरे साथ कभी कुछ भी बुरा घट सकता है, जिसे रोकना मेरी सीमा से बाहर है। इसलिए मैं मान कर चलती हूँ कि मेरे भीतर की जो मैं है उसे और-और मजबूत बनाती चलूं कि अगर कुछ अघट घटा और मैं जिंदा बच गयी तो भी चोट खाए मेरे शरीर के भीतर की मैं को साबुत बचाना मुझे आना चाहिए और घर वालों से भी कहती हूँ कि उस भीतर वाले की ताकत कम नहीं पड़नी चाहिए। उसकी शक्ति बढ़ाना और उसे अक्षुण्ण रखना ही हमारे हाथ में है।”
प्रकृति की शांति में अपने खुद के साथ होने ने, उसकी सर्वदा गतिमान कोशिकाओं ने जिन्दगी के कितने सारे अनमोल सूत्र उसके हाथ में थमा दिये हैं। खुल कर-खिल कर जीने का मौका मिले तो ये लड़कियाँ दुनिया को बहुत ही खूबसूरत बना देती हैं।
उसकी बात सुनने के बाद से ही दिमाग में चल रहा है कि समाज का भी तो कोई ‘मैं’ होता होगा। उसका भीतरी बल, आंतरिक तत्व। क्या वह यह जान कर सिकुड़ता नहीं कि उसमें रहने वाली मासूम, चंचल, जीवन-रस से भरी छलकती-उमगती जिंदगानियाँ उसके डर से खुद को सूखी रेत बनाए रखती हैं या इस आशंका के साथ दहलीज लाँघती हैं कि इसी भरी-पूरी दशा में वे घर नहीं भी लौट सकतीं? अभी तो उसने जिन्दगी के 19 बसंत पार किये हैं, अभी उसके खाते में इतनी उपलब्धियाँ हैं।
क्या समाज इन पंखों की भरपूर उड़ान के लिए सुरक्षित स्पेस नहीं बना सकता? अगर सब अपनी उड़ान, अपने रंगों को सिकोड़ कर एक रसहीन काया में खुद को तब्दील करने के लिए मजबूर हों तो क्या समाज का ‘मैं’ चूर-चूर नहीं होता होगा? कैसे बचाया जाया उसके ‘मैं’ को। उसे बचाए बिना हममें से भी किसी का ‘मैं’ नहीं बचेगा। शब्द भी चाहते हैं कि इस पर कुछ संवेदनशील तरीके से सोचने-समझने के लिए उनका इस्तेमाल किया जाए।
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