हाँ और ना के बीच

ठिठकी हुई जिन्दगानियाँ

 

इस विकट वर्तमान में इतना कुछ अकल्पनीय अब तक देखा, सुना, कहा। वही चेतना पर बहुत भारी था। भूख, थकान, पस्ती, गर्मी के अनवरत सिलसिलों से निढाल पड़ती- कभी बचती, कभी टूटती जानें। घरेलू हिंसा और स्त्री पर होने अत्याचारों में लगातार बढ़ोतरी। मगर आशंकाओं के बीहड़ होते जाने पर भी यह अनुमान लगाना असम्भव था कि अमानवीयता इस हद तक जा सकती है। अभी हाल में पटना अस्पताल के आइसोलेशन वार्ड में 15 साल की किशोरी के साथ सुरक्षाकर्मी द्वारा बलात्कार करने की जघन्य घटना सामने आयी है।

अप्रैल में गया में भी मानवता को शर्मसार करने वाली ऐसी घटना घटी थी। कोरोना जैसे लक्षणों के कारण एक गर्भवती स्त्री को अस्पताल के अलग वार्ड में रखा गया था। स्वास्थ्यकर्मी ने उसे अपनी कुत्सित वासना का शिकार बनाया। बलात्कार के कारण हुए रक्तस्राव से बच्चे के साथ-साथ स्त्री की भी मृत्यु हो गयी। दोनों ही स्त्रियों की जाँच के परिणाम कोरोना निगेटिव आये। मगर इन्तजार के दौरान का यह आइसोलेशन उन पर कहर ढा गया। कोरोना की आशंका में उन्हें अपनों से अलग कर  में रखा गया, उसमें उन्हें जो वहशीपन झेलना पड़ा, जिन्दगियों को लीलने और चेतना को लुहलुहान करने वाले इस महारोग का कोई निदान ही सभ्यता खोज नहीं पा रही है।

कोमल और असहाय इंसानों के साथ ऐसी भीषण हिंसा करने से तो इन अत्याचारियों को कोई गुरेज नहीं ही है, इनकी दुष्प्रवृत्तियों पर संक्रामक बीमारी भी असर नहीं डाल रही है। इस विडम्बना का क्या किया जाये कि जिस बीमारी का जरा भी संदेह अपनों से दूर छिटका देता है,  उसका खौफ भी दुराचारियों को दूर नहीं रख पा रहा है? दोनों ही स्थितियों में रक्षक ही भक्षक की भूमिका में थे। ऐसे में अनजान लोगों के बीच में स्त्री कितनी सुरक्षित होगी, सोचा जा सकता है। इन घटनाओं से स्त्री की असल स्थिति उघड़ कर साफ हो गयी है कि वह सामान्यतः कैसी विषम स्थिति में रहती है। उसके लिए परम्परा चालित समाज में लगा हुआ ‘कोरोना’ कहीं अधिक मारक है।How neighbours can help victims of domestic violence during ...

सदियों से स्त्री को अधीन रखने वाली सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था में बदलाव आने में काफी समय लगता ही है पर गति अपेक्षा से बहुत कम ही नहीं उल्टी होती दिख रही है। बदलाव हो रहा है लेकिन बेहद धीमी गति से। ऐसी स्थिति में भी स्त्रियाँ बहुआयामी विकास करती जा रही हैं और सार्वजनिक परियोजनाओं में उनकी भागीदारी बढ़ी है। अफसोस! सुरक्षा उनकी अब भी खतरे में है और ‘इज्जत’ एवं ‘मान-अपमान’ की अवधारणाएँ भी कम ही बदली हैं। इसलिए उनकी सम्भावनाओं को उनकी सुरक्षा पर मँडराते हुए खतरे बुरी तरह प्रभावित करते हैं और उनका भरपूर विकास अवरुद्ध रहता है- इस यथार्थ से हम अनभिज्ञ नहीं हैं। फिर भी यह कैसे हजम हो कि ‘मैला आँचल’ सरीखी रचना में समाहित 40 के दशक के भारतीय ग्रामीण परिवेश की स्त्री की जो अवस्था थी, वह इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में महानगर की स्त्री के लिए भी बदली नहीं है।

‘मैला आँचल’ में एक ब्राह्मण पात्र जोतखी की 18 साल की पत्नी बिना इलाज के दम तोड़ देती है क्योंकि जोतखी के जड़ संस्कारों को तीन पत्नियों की मृत्यु के बाद चौथी पत्नी की भी मौत तो मंजूर थी मगर उसके जिस्म पर पुरुष डॉक्टर का संस्पर्श नहीं। यहाँ समस्या मानसिक जड़ता और अज्ञानता की थी कि लोगों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शक्तियों का बोध नहीं था। मध्यकालीन मूल्य भी बोध पैदा होने की राह में बाधक हैं। इसीलिए ये मूल्य जिनके विरोध में जाते हैं, वे लोग नवीन ज्ञान धाराओं से जुड़ने में अधिक तत्पर होते हैं। मगर अब जब वैज्ञानिक बोध का काफी विकास हो चुका है, बीमारियों के कारण और निदान के लिए लोग अंधविश्वासों के बजाय चिकित्सा शास्त्र पर भरोसा करते हैं, ऐसे में उचित समाधान जानते हुए भी आगे बढ़ने में हिचकने की मजबूरी को हम कैसे देखें?

स्त्री की सुरक्षा को प्राथमिकता न दिए जाने का उसके व्यक्तित्व के विकास में और जीवन की गुणवत्ता में तो नकारात्मक असर होता ही है, उसकी जिन्दगी के अनेक आयाम बाधित होते हैं। सुदूर, नीरव स्थलों पर जाकर अज्ञेय की तरह सन्नाटे की आवाज स्त्री सुनना चाहे तो? साथी लेखकों की तरह प्रकृति के निविड़ एकान्त में चंद पल गुजारना चाहेया रात को चाँद-तारे निहारना हो तो? तो भी पुरुष साथी या स्त्री समूह की दरकार होती है, जो मिलना सहज नहीं है। सौंदर्य बोध सम्बन्धी अपनी आकांक्षाओं को वह भीतर ही कुचल देती है। सदियों से वह जिस लॉकडाउन में है, उससे बाहर निकलने की और उसी में रहते हुए कुछ महत्वपूर्ण कर दिखाने की कोशिशें वह अपने बूते कर लेती है। इस बाड़े बन्दी से बाहर निकलने के रास्ते और इस चौहद्दी में रहते हुए परिवेश को अपनी मौजूदगी से सार्थक बनाना वह सीख रही है, और सीख भी लेगी।Domestic Violence Calls Rise During Stay At Home Orders – NBC Los ...

स्त्री के हाथ अक्सर एक थोपा हुआ एकान्त ही आता है। अब जब कोरोनाग्रस्त या कोरोना संदिग्ध स्त्री का आइसोलेशन उसकी अपनी और समाज की भी जरूरत है तो वहाँ जाने से उसका अस्तित्व संकट में घिर रहा है। इसकी प्रतिक्रिया जो समाज में देखने को मिली, इसने मुझे स्तब्ध कर दिया है। लड़कियों को लोग वैसे भी अपनी नजरों के दायरे से ज्यादा दूर नहीं जाने देते। कोरोना के इलाज की प्रक्रिया कुछ ऐसी है कि मरीज को अपनों की आँख से ओझल रहना है। सिर्फ अपने और व्यवस्था के भरोसे। इसके लिए लोग अब कलेजा पक्का नहीं कर पा रहे हैं। जो समर्थ हैं उन्होंने अपने घरों में कई ऐसी व्यवस्थाएँ की हैं कि हालत अधिक न बिगड़ें तो स्थिति को सम्भाला जा सकता है और खाने-पीने आदि का भी वे अतिरिक्त ध्यान रख रहे हैं। मगर स्त्री को आइसोलेशन वॉर्ड में भेजने को ले कर उन्हें इतनी शंकाएँ हैं कि वे जीवन का जोखिम तक उठाने को तैयार हैं।

एक ओर बुनियादी सेवाओं का ढाँचा ऐसा बदहाल है कि जरूरतमन्दों को भी इलाज और जगह नहीं मिल पा रहे हैं। उस पर स्त्री के लिए हिंसा के जोखिम ने उसकी स्थिति और भीषण बना दी है। मेरी एक परिचिता है जो नौकरी के सिलसिले में माँ-बाप का घर छोड़ कर शहर आई थी। उसके बुजुर्ग माँ-बाप उड़ीसा में रहते हैं और वह शहर में किराए के मकान में अकेली। तीन ही लोग हैं परिवार में। कभी वे लोग उसके पास आ जाते थे, कभी वह उनके पास उड़ीसा चली जाती थी।

इस तरह से एक-दूसरे का सहयोग पा कर उनकी आराम से गुजर-बसर होती थी। अकेली रहने के कारण सुरक्षा की अतिरिक्त फिक्र तो बनी ही रहती है। हर बुरी खबर के साथ माँ-बाप की हिदायतें बढ़ती जाती थीं। मगर फिर भी जीवन उस तरह से सामान्य था कि जिन आकांक्षाओं के लिए सुरक्षा का घेरा तोड़ना जरुरी हो, उन्हें वह अंकुरित ही न होने दे और सीमित आयामों को ही अपनी मुकम्मिल जिन्दगी समझ ले। बुखार हमेशा बना रहने पर महसूस होना बन्द हो जाता है। सो मान लिया जाए कि उसके माँ-बाप और उसकी जिन्दगी सामान्य चल रही थी।

फिर अचानक लॉकडाउन होने से वे लोग उधर और यह इधर ही की हो कर रह गयी। परिजनों की निकटता की ऊष्मा से वंचित अकेले पड़ गये दोनों तरफ के लोग। महामारी और उसके दुष्परिणामों में वृद्धि होती गयी तो उसकी नौकरी चली गयी। आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा से वह अकेले जूझ ही रही थी। कोरोना-काल की जरुरी सावधानियाँ भी बरत रही थी। पर कोशिका से हजार गुना छोटा सा यह जीव-अजीव के बीच का वायरस तो कहीं से भी सेंध लगा देता है, लगा सकता है, इसलिए इसकी आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। कई दिनों से उसका बुखार उतर नहीं रहा है। दवाइयाँ और थर्मामीटर जैसी बुनियादी चीजों की किट का बन्दोबस्त उसने पहले ही कर लिया था। फिर भी हालत नहीं सुधरी तो ऑक्सीमीटर भी ले लिया। मेडिकल उपकरणों और दवाइयों से घिरी वह कमजोर काया इन दिनों नितान्त अकेली है।

कई दिनों के बुखार से पस्त लड़की अपने खाने-पीने का बन्दोबस्त भी ठीक से नहीं कर पा रही है। बस किसी तरह खुद को जीवित बनाए हुए है। उसे खाने-पीने, लाने-ले जाने में किसी तरह का कोई सहयोग कहीं से नहीं मिल रहा है। कैसे मिलेगा? इन दिनों तो खाँसी-बुखार में अपने लोग तक अकेला छोड़ दे रहे हैं तो बाहरी कौन व्यक्ति भला सामने आएगा। जिस तरह के उसके लक्षण और कष्ट हैं, अस्पताल जाना ही एकमात्र रास्ता है। पहले तो लड़की की खुद भी हिम्मत नहीं थी अस्पताल जाने की।

मगर इतने दिनों की बीमारी ने उसके संकल्प-विकल्प और उसकी आकांक्षाओं के बाद अब उसकी आशंकाओं को भी कमजोर बना दिया है। उसमें डरते रहने की ऊर्जा भी मानो न बची हो। मगर उसके माँ-पिता उसे अस्पताल जाने ही नहीं दे रहे हैं। महामारी और शारीरिक पीड़ा से कहीं अधिक हौवा उन्हें मानवीय हिंसा से है। ऐसी अजीबोगरीब स्थिति है कि सहयोग के रास्ते बन्द हैं मगर हिंसा के रास्ते खुले हुए हैं।

यह सब सुन कर मेरी जुबान तो खामोश है। दिमाग ठप्प है। स्त्री के व्यक्तित्व के भरपूर विकास के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने के बदले इन तौर-तरीकों को समाज ने तरजीह दी कि स्त्री खुद को कछुए की तरह किसी मजबूत (?) पीठ के नीचे अपने को सिकोड़ कर रखे। लोकतान्त्रिक आधुनिक तर्कों के अनुकूलन में औचित्य-बोध विकसित नहीं किया समाज ने। न ही स्त्री की जान व्यक्ति की जान की बराबरी पर स्थापित हो पाई। मतलब पुरुष की जिन्दगी का जितना महत्व है, उतना स्त्री का नहीं।

अब जब लोकतन्त्र के तत्वों को सामन्ती साँचों में भर कर जैसे-तैसे चिथड़ा-चिथड़ा इस्तेमाल करके कुछ किनारे लगते, कुछ बीच में दम तोड़ते, भय के निरन्तर माहौल में जीते-जिलाते यहाँ तक हम आ गये हैं कि जीवन रक्षक सुविधाएँ हासिल करने के लिए भी फिलहाल सुरक्षित महसूस करती हुई स्त्री को खुद के लिए खुद की गयी किलेबन्दियों से बाहर आना होगा तो जिन्दगी बचाने के लिए भी स्त्री के कदम नहीं उठ पा रहे हैं। इन ठिठके कदमों की कोई व्याख्या है आपके पास? इस बार अस्तित्व ही खतरे में है। व्यक्तित्व नहीं, अब तो जिन्दगी ही ठिठकी है। जिन्दगी की इस ठिठक पर ठण्डी चुप्पी बरतने वाले समाज में क्या कुछ भी शुभ और सुन्दर हो सकता है? श्रेयस्कर हो सकता है? उत्कर्षकारी हो सकता है?

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रश्मि रावत

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन और प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में नियमित लेखन करती हैं। सम्पर्क- +918383029438, rasatsaagar@gmail.com
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