
ओ री चिरइया …
आमीर खान के लोकप्रिय धारावाहिक ‘सत्यमेव जयते’ के ‘ओ री चिरइया’ के रुला देने वाले गीत में सदियों के संस्कार सन्निहित हैं। युगों से पितृसत्ता की दहलीज पर स्त्री परायेपन के पंखों के साथ चिड़िया बनी ठिठकी खड़ी है। हमारी सामाजिक संरचना ने स्त्री और पुरुष के लिए कुछ अलग-अलग बिंब गढ़े हैं जो परंपरा द्वारा इनके लिए निर्धारित किये गये गुणों के आधार पर निर्मित हैं। मनुष्यों का विभाजन जब लिंग के आधार पर किया गया तो उसके साथ ही गुणों का भी लैंगिक विभाजन कर दिया गया। साहस, पराक्रम, शौर्य, युद्ध आदि पुरुषों के हिस्से आए तो लज्जा, मर्यादा, पूजा, अर्चना आदि का भार स्त्रियों पर डाल दिया गया। इस प्रक्रिया में कुछ बिंब स्त्रियों लिए रूढ़ हो गये। इनमें से एक बिंब है चिड़िया का।
अपनी लघुता, कोमलता, दुर्बलता और सृजनशीलता के कारण चिड़िया स्त्री का पर्याय बन गयी। पर सबसे बड़ा साम्य जो स्त्री को चिड़िया के निकट लाता है, वह है इस आंगन से उस आंगन उड़ जाने की नियति – मुंडेर पर दाना चुगती, सतर्क, चैकन्नी, इस आंगन से उस आंगन उड़ जाने वाली चिड़िया जिसके परायेपन में स्त्री बंधनों के बीज निहित हैं। अपनी चोंच में नीड़ के निर्माण के लिए तिनका दबाए, सृजन को आतुर नन्हीं सी कोमल जान चिड़िया – स्त्री सृजनशीलता और विस्थापन में स्त्री का बिंब ही नहीं, प्रतीक बन गयी और लोकगीतों, कविताओं से लेकर फिल्मी गीतों में स्त्री संदर्भों के साथ उपस्थित होती रही।
हर बोली में ऐसे लोकगीत मिल जाते हैं जहां लड़कियों को चिड़िया की कहा गया है। ‘बाबा मैं तेरी अंगने की चिड़िया ,चुगत चुगत उड़ जइहैं’, ‘साडा चिड़िया दा चम्बा वे बाबुल असां उड़ जाना …’, ‘भैया तेरे अंगना की मैं हूं ऐसी चिड़िया रे, रात भर बसेरा है, सुबह उड़ जाना है…’ आदि अत्यंत प्रचलित गीत हैं। यही नहीं, स्त्री कविता में भी चिड़िया का बिंब बार बार आता है।
स्त्री कविता में चिड़िया उपस्थित होती रही है एक खास तरह के आत्मीय लगाव के साथ अपने नन्हें पंखों में आकाश का एक टुकड़ा और उड़ने की अभिलाष समेटे। महादेवी जब कहती हैं कि ‘कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो …’’ तो वे परम्परा के ही उसी तत्व से ही अपना शिल्प गढ़ रही होती हैं। सातवें आठवें दशक की कवयित्री सुनीता जैन लिखती हैं – ‘‘मैं गौरेया हूँ/ मेरे नन्हें-नन्हें पंख हैं/मैं उनसे बड़े से आकाश में/उड़ना चाहती हूँ’’।
जल्द ही उन्हें अपनी सीमाओं का भान हो जाता है और ईश्वर को उपालंभ देती हुई वे लिखती हैं – ‘‘तुमने मुझे चिड़िया बना दिया/बताओ नियंता/ इन पंखों से उड़कर/अब मैं कहां जाऊँ?’’ रश्मिरेखा की कविता में चिड़िया लम्बी उड़ान के लिए पांखें तोलती है पर शाम होते ही अपने घोंसले में सिमट आती है – ‘‘पर शाम होने बाद ही/दुर्बल पंखों को फड़फड़ाती/अपने उसी घोंसले में सिमट आयी/शायद इस दुख के साथ/कि हमारी किस्मत इतनी नपी तुली क्यों है?’’
वंदना देवेन्द्र स्त्री नियति को चिड़िया की नियति से जोड़ कर देखती हैं – ‘‘जब गौरैया होने को थी वह/उसके पंख कतर दिए गए/फिलहाल दो चूजें से रही थी’’। नयी सदी में चिड़िया का बिंब अपने साथ उन्मुक्तता लिए आता है। सुमन केशरी लिखती है – ‘’सुनो बिटिया/मैं उड़ती हूँ/खिड़की के पार/चिड़ियां बन/तुम आना’’।
सवाल यह है कि क्या आज स्त्री के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को चिड़िया के बिंब में बांधा जा सकता है? सवाल यह भी है कि क्या स्त्री को चिड़िया के बिंब में बांधना उचित है? नयी सदी की स्त्री की आंखों में जो आकाश है, उसके लिए आज चिड़िया के नाजुक पंख बहुत छोटे पड़ रहे हैं। अपनी पंखों में ताकत भरे बिना वह अपने हिस्से का आकाश नहीं पा सकती। आज जब वह अपने पांवों के मजबूत निशान बनाती अपनी पहचान अंकित कर रही है तो उसे इस आंगन से उस आंगन तक उड़ जाने वाली चिड़िया कहकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसलिए बहुत जरूरी है कि उसको आंकने वाले प्रतिमान बदले जाएं –