![खामोश कुर्बानियाँ](https://sablog.in/wp-content/uploads/2022/04/rashmi-rawat-AP.jpg)
खामोश कुर्बानियाँ
आज भी हम कमोबेश गुलाम ही हैं। हमारे तन-मन न जाने कितनी तरह की जकड़नों में हैं। पहले से विभक्त समाज में उग्र पूँजीवाद की गिरफ्त ने विषमता की खाई को इतना चौड़ा कर दिया है कि अब शायद ही कोई ऐसा उपक्रम हो जिससे दो अलग वर्गों के हित एक साथ सध सकें। वह कितना गरीब और पराजित समाज होगा जहाँ व्यक्ति का ऐसा कोई शुभ न सोचा जा सके, जिसमें किसी दूसरे को अपनी हानि न दिखती हो। किसी भी समाज को आपस में जोड़ने वाले ऐसे कुछ बुनियादी मानवीय तत्व होते ही हैं जिनकी दरकार समाज के सभी सदस्यों को हो। उसी धरातल पर सारा समाज एक साथ खड़ा हो सकता है।
उन बुनियादी अस्तित्वगत आधारों पर भी समाज बँटा हुआ हो तो ऐसे विषम समाज में आजादी कहाँ? फिर भी मानवीय चेतना तमाम गुलामियों के बीच सिर उठाती ही है। हर समय ऐसे लोग भी खासी तादाद में होते हैं जो व्यापक मानवीय सरोकारों के लिए, अपने मूल्यों के लिए जान कुर्बान करने के लिए तत्पर रहते हैं। ‘सब लोग’ के मार्च अंक के लिए प्रस्तावित विषय पढ़ते ही शहादत के भाव वाले वे तमाम चेहरे जेहन में कौंध गये जिन्होंने परहित और स्वहित में कोई फर्क नहीं देखा और जीवन को दाँव पर लगाने में कोताही नहीं की। इस महत कार्य में जिन्होंने जीवन गंवाया.. उन्हें तो याद करते ही हैं हम। आज उनकी बातें जो जीवित हैं मगर उनके प्राण वृहत्तर उद्देश्यों के लिए समर्पित रहते हैं।
एक श्रेणी उनकी है, जिनके सामान्य जीवन में भले ही ‘स्व’ की संकुचित सीमा के अतिक्रमण की प्रवृत्ति न दिखे, उनकी शहादत खास लम्हों की कौंध में उजागर हो जाती है। ऐसे ही एक शख्स हैं भोपाल के मुहम्मद महबूब। गत 5 फरवरी को देर शाम भोपाल के बरखेड़ी में सिहरन पैदा करने वाली यह घटना घटी। रेलवे ट्रैक पर एक बच्ची गिर गई। मालगाड़ी उसकी ओर तेजी से आ रही थी और उसके पास खड़े होकर बचने का समय नहीं था। प्लेटफॉर्म पर खड़े पेशे से कारपेंटर 37 साल के मुहम्मद महबूब उसकी जान पर खतरा देख कर तत्काल अपनी जान की परवाह किए बिना ट्रैक पर कूद पड़े और बच्ची को भी पटरियों के बीच खींच कर लिटा दिया और उसका सिर नीचे दबा रखते हुए ट्रेन के गुजरने तक संयम और धैर्य से निश्चल पड़े रहे। वह पत्थरों की चुभन के कारण सिर उठाने की कोशिश कर रही थी। शरीर का कोई भी अंग ऊपर उठता तो मृत्यु निश्चित थी। मगर महबूब की संयत सजगता, हिम्मत, धीरज और प्रत्युत्पन्नमति के कारण दोनों की जान बच गई। मालगाड़ी की 28 बोगियाँ उन दोनों के ऊपर से निकल गईं और वे सुरक्षित रहे। प्लेटफॉर्म पर हतप्रभ खड़े लोगों ने इस घटना का वीडियो बना लिया और सोशल मीडिया के जरिए लोग उनके साहस से परिचित हुए।
इससे इतर एक अन्य किस्म के लोग हैं जिनकी उत्सर्ग भावना पल विशेष में उजागर हो, यह जरूरी नहीं। यूँ भी ऐसे पल अनायास उपस्थित होते हैं, रचे नहीं जाते। उनके उपस्थित होने पर ऐसी त्वरा और साहस की कूवत प्रकट हो यह जरूरी भी नहीं, मगर उनके जीवन की पूरी लय अन्य प्राणों से जुड़ी होती है। वे सर्वजन से कटे स्व-हितों के किसी निजी द्वीप में नहीं रहते। एक विषमतामूलक समाज में ऐसी सोच रखने वाले अकेले पड़ जाते हैं। उन्हें अपने परिवेश से सहयोग और सहूलियतें नहीं मिलतीं। इन दुश्वारियों को सहते हुए खुद अपने दम पर समानता के मूल्यों पर टिके रहने के लिए संकल्पबद्ध लोगों में भी कुर्बानी की भावना निरन्तर देखी जा सकती है।
ऐसी ही एक शख्स है एक पढ़े-लिखे, सभ्य, साधारण मध्यवर्गीय परिवार की शालिनी। हमारे समाज में हर परिवार एक छोटी सामन्ती रियासत जैसा ही होता है जहाँ सम्पर्कों और सम्बन्धों का ताना-बाना घर के राजा के इर्द-गिर्द बुना होता है। ऐसे ही एक परिवार की शालिनी दबी अभिव्यक्ति की लड़की थी। उसे यही पता था कि उसके घर में भरपूर बराबरी और आजादी है। उसे भाइयों जितनी ही सुविधा और मौके मिलते हैं, मगर उसमें ही योग्यता नहीं है। नतीजतन आत्मविश्वास रहित शालिनी कमतरी और ग्लानि के भाव से घिरी रहती थी। अनुभवों का दायरा बड़ा होने के साथ उसने क्रमशः जाना कि समाज में जातिगत, वर्गगत विषमता कितनी प्रचण्ड है और समानता की पक्षधरता उसके लिए सर्वोच्च होती गई। वह उन मूल्यों के लिए प्राण-पण से संघर्ष करने में जुट गई। उसके परिवेश में कुछ संवैधानिक मूल्यों के विरूद्ध होता तो वह उसका प्रतिरोध करती। वैज्ञानिक चेतना के प्रसार का काम भी वह किया करती। शताब्दियों से चले आते रीति-रिवाज न अपनाने पर परिवार के लोग उस स्त्री को सहयोग करना, स्वीकार करना बन्द कर देते हैं। हमारे समाज में यूँ भी सोचने और बोलने वाली स्त्री किसी को नहीं भाती है।
ऐसा ही शालिनी के साथ हुआ। सामाजिक न्याय के लिए अपने दम भर संघर्ष में लगी वह जीवन में अकेली होती गई। उसके काम के बारे सब खामोशी बरतते लेकिन अन्य पारम्परिक दायित्व अधिकाधिक सौंपे जाते और उसके लिए खुद को उनके सामने सही साबित करने की कसौटियाँ भी कठिनतर होती गईं। उन्हें पूरा करने में दौड़ती-हाँफती शालिनी के पास न अपने विकास का समय रहता, न समानधर्मा लोगों का कोई सहयोग तन्त्र ही वह बना सकी। ऐसा न होने में सबसे कारगर भूमिका शैक्षिक संस्थाओं और कर्मक्षेत्र में व्याप्त पितृसत्तात्मक संरचना की रही। वे भी घर की तरह छोटी-मोटी रियासत ही हैं।
वहां भी ‘राजा’ के हित और मूड. मिजाज, इच्छा सर्वोपरि होते हैं और कमतर लोग उनकी मर्जी की पूर्ति करने के साधन भर। अपनी आवाज में बोलती, एसर्ट करती स्त्रियाँ उन्हें भी नहीं भातीं। स्त्री से मुफ्त सेवाएँ लेने की आदत इतनी पुरानी है कि उसकी सार्वजनिक सेवाओं का भी मोल नहीं आँका जाता। सराहना और प्रोत्साहन तो दूर, अक्सर सार्वजनिक स्वीकार तक उन्हें नहीं मिलता। बन्द चारदीवारी में ही उनका काम गुड़ुप हो जाता है। इस कारण उसे कोई सार्वजनिक महत्त्व भी नहीं मिला। घर या बाहर कहीं भी महत्व या पहचान न मिलना, न सुने जाना जिन्दगी को बहुत कठिन कर देता है। अन्यथा होने पर खुद की जिन्दगी की कीमत बढ़ जाती है और काम करना सहज हो जाता है।
तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद स्त्री होने के नाते निरन्तर अधीनस्थता के दवाब झेलने का अनुभव उसे अपने वर्ण के पुरुषों के बजाय हाशिए के समाज के अधिक नजदीक महसूस कराता है। अगर आप संयोगवश ( जन्मना ) वर्ण व्यवस्था में वहाँ अवस्थित हैं जिन्हें वर्ग या जाति का अत्याचार नहीं झेलना पडा तो संभव है कि अधीनस्थ समुदायों की ताकत भी न मिले। शायद हर जगह ऐसा होना जरूरी नहीं। मगर शालिनी जिस दायरे में है, उसके साथ मैंने यही होते पाया। वर्ण-वर्ग-धर्म में विभक्त स्त्री-समुदाय खुद को एक सामूहिक ताकत में बदलने में अभी कामयाब नहीं हुआ है। इस तरह शालिनी और उस जैसे कई लोग हैं जो किसी संगठन या समूह की ताकत के बिना भी खुद को मिलने वाली सुविधाएं नकार कर समाज से कट जाते हैं और इस तरह तमाम असुविधाएँ, बाधाएँ, पराजय झेलते हुए अपने मूल्यों के लिए कुर्बान होते हैं। उनके लिए स्वहित और परहित में बुनियादी अंतर नहीं होता।
ऐसे ही एक परिवार से वास्ता रखने वाला रमेश है जो पुरुषों से अपेक्षित जेंडर रोल का उल्लंघन कर बराबरी के मूल्य को जीता है। ‘बराबरी’ को एक सिद्धांत के रूप में स्वीकार कर चुके प्रगतिशील पुरुष भी अक्सर जेंडर बराबरी के लिए तत्पर नहीं दिखते। मगर वह स्त्री-पुरुष में भी समता का हामी है और अपने विचारों को व्यवहार में जीने के कारण उसे घर-बाहर अतिरिक्त काम तो करने ही पड़ते हैं, समाज से बहुत कुछ प्रतिकूल सुनना भी पड़ता है। ऐसे कोमल दिखने वाले, बात-बात पर ‘झुकने वाले’ पुरुष को समाज हीन समझता है। उसे अपने पुरुष समकक्षों के मुकाबले कम मिलता है क्योंकि अन्य लोगों की सफलताओं और उपलब्धियों में तो अधीनस्थों की ऊर्जा का भारी निवेश होता है। इस तरह के नई चेतना के पुरुषों को अपनी सुविधाएँ और विशेषाधिकार छोड़ते हुए बराबरी और आजादी के मूल्यों पर टिके हुए देखती हूँ तो लगता है कि शायद नामालूम सी लगती ऐसी साधारण कुर्बानियां ही भविष्य का वह समाज रचें जहाँ मुक्तिबोध की ये पंक्तियाँ लागू न होती हों :
बताओ तो किस–किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत–बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत–बहुत कम ।