शख्सियत

एक दिन आएगा जब हमारी खामोशी उन आवाजों से भी ज्यादा ताकतवर साबित होगी जिन्हें तुम आज दबा रहे हो

 

कम्युनिस्ट घोषणापत्र की शुरुआती पंक्तियों में मजदूर वर्ग के महान शिक्षकों कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने लिखा था कि, यूरोप को एक हौवा सता रहा है – कम्युनिज्म का हौवा। ये शब्द 1848 में लिखे गए थे। तब से लेकर अब तक, एक क्रांतिकारी ताकत के रूप में मजदूर वर्ग के सूझ-बूझभरे संगठन का हौवा दुनियाभर में शोषक वर्गों को सताता रहा है।

जब मजदूर वर्ग ने 1917 में सोवियत संघ में लुटेरे जार की सत्ता को खत्म करके अपना राज कायम किया, उसके पहल तक कारखाना मालिकों और धन्ना सेठों के पैरोकार यह कहकर कम्युनिज्म का मजाक उड़ाते थे कि यह आतंकवादी है और ऐसी कल्पना है जो कभी लागू नहीं हो सकती है। 1917 की रूसी क्रांति के बाद, पूंजीवाद शासन कें हिमायती इस कोशिश में जुट गए कि सोवियत संघ के भीतर की कमियों का इस्तेमाल करके यह साबित किया जाए कि कम्युनिज्म तो चल ही नहीं सकता। और जब सोवियत संघ टूट गया, तब तो चारो और ढिंढोरा पीटा जाने लगा कि कम्युनिज्म एक ऐसी हवाई कल्पना है जो कभी सच नहीं हो सकती।

कम्युनिज्म को नाकाम ठहराने की ये सारी कोशिशें मजदूर वर्ग के जबर्दस्त डर से पैदा होती हैं। दुनियाभर के क्रांतिकारियों ने रूस, चीन, कोरिया, वियतनाम, क्यूबा और तमाम दूसरे देशों में यह दिखा दिया है कि पूंजीवादी राज सुरक्षित नहीं है। मजदूर जीत सकते हैं।

हर साल, पहली मई का दिन दुनियाभर के शासक वर्गो को यह याद दिला जाता है कि उनका अंत होना ही है और उनकी कब्र खोदने वाले, यानी मजदूर वर्ग की ताकत कितनी बड़ी है। एक मई को, दुनिया का मजदूर वर्ग जुलूसों, विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों के जरिए अपनी ताकत दिखलाता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस मई दिवस शासक वर्गों को यह चेतावनी देता है कि उनके दिन गिने-चुने रह गये हैं। पहली मई को दुनिया भर के मजदूर वर्ग की छुट्टी के दिन, सभी देशों के मजदूरों की एकजुटता के दिन के तौर पर कैसे मनाया जाने लगा? बड़े-बड़े धन्ना सेठ और कारखानेदार अब भी मई दिवस मनाने से क्यों डरते हैं?

मई दिवस आठ घंटे काम के दिन के लिए हुए संघर्ष से जन्मा था और यह संघर्ष मजदूर वर्ग के जीवन का एक हिस्सा बन गया। मेहनतकश वर्ग करीब दस हजार साल पहले, खेती के विकास के समय से ही मौजूद रहे हैं। दास, अर्द्घदास, दस्तकार और दूसरे मेहनतकशों को अपने मेहनत के फल शोषकों को सौंपने के लिए मजबूर होना पड़ता है। लेकिन आधुनिक मेहनतकश वर्ग मुक्त श्रमिकों का वर्ग, कुछ सौ साल पहले ही पैदा हुआ। इस वर्ग का शोषण मजदूरी की व्यवस्था की आड़ में ढका होता है, लेकिन यह कम क्रूर नहीं होता। आदमियों, औरतों और बच्चों को दो जून की रोटी के लिए बेहद खराब परिस्थितियों में दस-दस, बारह-बारह घंटे तक खटना पड़ता है।

जहां शोषण है वहां उसका प्रतिरोध भी होता है

पूंजीवाद के विकास के समय मजदूरों को बारह से चौदह घंटे काम करना पड़ता था। कहीं-कहीं तो काम के घंटे तय ही नहीं थे। मजदूर तब तक खटते रहते थे जब तक वे बेदम होकर गिर नहीं जाते थे। इन हालात में यह मांग उठने लगी कि काम के घंटे तय होने चाहिए।

इंग्लैंड के काल्पनिक समाजवादी राबर्ट ओवेन ने 1810 में ही दस घंटे काम के दिन की मांग उठाई थी। उन्होंने अमेरिका के न्यू लेनार्क नाम की जगह पर समाजवादी ढंग से चलने वाला कारखाना और मजदूरों की बस्ती बसाई थी। वहां उन्होंने दस घंटे काम का दिन लागू किया था। लेकिन इंग्लैंड के बाकी मजदूरों को इसके लिए काफी इंतजार करना पड़ा। 1847 में औरतों और बच्चों के लिए दस घंटे काम के दिन का कानून बना।

1848 की फ्रांसीसी क्रांति के बाद फ्रांसीसी मजदूरों ने बारह घंटे काम के दिन का अधिकार हासिल कर लिया। अमेरिका में जहां मई दिवस का जन्म हुआ, फिलाडेल्फिया के बढ़इयों ने 1791 में दस घंटे के दिन के लिए हड़ताल की। 1830 आते-आते, यह सारे मजदूरों की मांग बन गई। फिर 1835 में, फिलाडेल्फिया के मजदूरों ने आयरलैंड से आकर बसे कोयला खदान मजदूरों की अगुआई में बड़ी हड़ताल की। उनके बैनरों पर लिखा था, छह से छह तक, दस घंटे काम के और दो घंटे आराम के। दस घंटे के आंदोलन का मजदूरों के जीवन पर काफी असर पड़ा। 1830 से 1860 तक काम का औसत दिन बारह घंटे से घटकर ग्यारह घंटे रह गया था।

इसी बीच, आठ घंटे के दिन की मांग उठनी शुरू हो गई थी। 1836 में, फिलाडेल्फिया में दस घंटे के दिन की मांग मनवाने में कामयाबी हासिल करने के बाद मजदूरों की यूनियन नेशनल लेबर ने घोषणा की, दस घंटे का दिन जारी रखने की हमारी बिलकुल इच्छा नहीं है क्योंकि हम मानते हैं कि रोजाना आठ घंटे मेहनत करना किसी भी इंसान के लिए काफी है। 1863 में मशीन बनाने वालों और लोहा मजदूरों के सम्मेलन में आठ घंटे काम के दिन की मांग सबसे ऊपर रखी गई थी। अमेरिका के गृहयुद्ध ने आठ घंटे के दिन की मांग को और तेज कर दिया।

जिस समय यह आंदोलन चल रहा था उसी समय अमेरिका में गृहयुद्ध भी छिड़ा हुआ था। अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में अफ्रीका लाये गये काले लोगों से गुलामी कराई जाती थी। इस प्रथा को खत्म करने को लेकर उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के बीच घमासान लड़ाई छिड़ गई। अब्राहम लिंकन की अगुआई में अमेरिकी संघ की जीत हुई और दक्षिणी राज्यों की गुलाम प्रथा खत्म हो गई। इससे उन इलाकों में भी मुक्त श्रम वाले पूंजीवाद की शुरुआत हुई। यानी अब मजदूरों को कहीं भी जाकर मजदूरी करने की छूट थी। गृहयुद्ध के बाद फिर से तमाम चीजों को खड़ा करने और निर्माण के काम में गुलाम रहे हजारों मेहनतकशों को रोजगार मिला। इसके साथ ही आठ घंटे का आंदोलन तेजी से फैला। मार्क्स ने इसके बारे में लिखा है, गुलामी के अंत से एक नये जीवन की शुरुआत हुई।

गृहयुद्ध का पहला असली फल आठ घंटे काम का आंदोलन था जो कि रेल के फैलाव के साथ ही अंटलांटिक सागर से प्रशांत महासागर तक, न्यू इंग्लैंड से लेकर केलिफोर्निया तक फैल गया। इस बात का सबूत बाल्टीमोर शहर में 1866 में हुई मजदूरों की आम सभा की इस घोषणा से भी मिलता है, इस देश को पूंजीवादी गुलामी से आजाद करने के लिए आज पहली और सबसे बड़ी जरूरत ऐसा कानून पास करना है जो पूरे अमेरिका में आठ घंटे काम का दिन लागू करे।

इसके छह साल बाद, 1872 में, न्यूयार्क शहर के एक लाख मजदूरों ने हड़ताल की और आठ घंटे के दिन का अधिकार हासिल किया। लेकिन यह ज्यादातर भवन निर्माण मजदूरों के लिए था। आठ घंटे के इसी उफनते ज्वार के बीच मई दिवस का जन्म हुआ।

1884 में अमेरिका और कनाडा के मजदूर यूनियनों के महासंघ (फेडरेशन) के सम्मेलन में आठ घंटे काम के दिन का एक मई की तारीख से जोड़ा गया। तीन साल पहले बना यही फेडरेशन आगे चलकर अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर बन गया। बढ़इयों और मिस्त्रियों के संगठन की नींव डालने वाले मजदूर जार्ज एडमंसटन ने सम्मेलन में एक प्रस्ताव रखा जिसका उद्देश्य था आठ घंटे काम के दिन के लिए मजदूरों का समर्थन पक्का किया जाए। इस प्रस्ताव में कहा गया था, हम संकल्प लेते हैं कि एक मई, 1886 से आठ घंटे के काम को कानूनी तौर पर एक दिन का काम माना जाएगा और हम इस पूरे जिले के सभी मजदूर संगठनों से भी कहते हैं कि वे बताई गई तारीख इस प्रस्ताव को लागू करने का संकल्प लें।

उस समय अमेरिका के मजदूर आंदोलन की तीन मुख्य धाराएं मौजूद थीं। सबसे बड़े संगठन का नाम था आर्डर ऑफ दि नाइट्स ऑफ लेबर, यानी मजदूर सूरमाओं का संगठन। 1886 में इसके लगभग सात लाख सदस्य थे। यह संगठन काले मजदूरों और महिला मजदूरों को संगठित करने सहित कई प्रगतिशील विचार रखता था और इसने 1878 में अपने पहले संविधान में आठ घंटे काम के दिन की मांग को शामिल किया गया था। लेकिन उन्होंने कभी भी इस मांग पर कोई जुझारू संघर्ष नहीं छेड़ा। इसके बजाय वे अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में नेताओं को राजी करने पर जोर देते थे।

नाईट्स ऑफ लेबर के सदस्यों ने 1881 में एफओटीएलयू नाम का संगठन बनाया। इसमे सैमुअल गोम्पर्स जैसे नेता और कई मार्क्सवादी भी शामिल थे। हालांकि शुरू में उन्होंने आठ घंटे काम के दिन के अधिकार के लिए कानूनी तरीकों का समर्थन किया, लेकिन ज्यादा जुझारू तत्वों ने समाजवादियों के प्रभाव में इस मांग पर जीत हासिल करने के लिए एक आम हड़ताल के विचार पर जोर दिया। एक मई, 1886 के कार्यक्रम की तैयारी का ज्यादातर व्यावहारिक काम फेडरेशन की ओर से किया जा रहा था जो कि नाइट्स ऑफ लेबर और दूसरे मजदूर संगठनों को अपनी ओर खींचने के लिए भी कोशिश कर रहा था।

मजदूर आंदोलन की दूसरी धारा अराजकतावादियों की थी, जिन्होंने 1883 में इंटरनेशनल वर्किंग पीपुल्स एसोसिएशन (आईडब्लूपीए) यानी मेहनतकश लोगों का अंतर्राष्ट्रीय संघ बनाया। इससे पहले लंदन के अराजकतावादी मजदूर भी इसी नाम से अपना संगठन बना चुके थे। हालांकि इस संगठन के भीतर कई अलग-अलग धड़े मौजूद थे, लेकिन वे कानूनी और चुनावी अभियानों के बजाय जुझारू तौर तरीकों के पक्ष में थे। इनमें वर्ग संघर्ष पर आधारित हड़तालों से लेकर व्यक्तिगत आतंकवादी कार्रवाईयां तक शामिल थीं।

एक मई, 1886 के लिए चल रहे अभियान में इन तीनों धाराओं के सभी हिस्से शामिल थे। नाइट्स ऑफ लेबर के नेताओं ने फेडरेशन द्वारा आंदोलन में शामिल होने की बार बार अपीलों को ठुकरा दिया और घोषणा की कि वे किसी भी तरह की हड़ताल के खिलाफ हैं। लेकिन नाइट्स की स्थानीय कमेटियों ने एक मई आंदोलन में शामिल होने के लिए राष्ट्रीय नेताओं पर दबाव डालना शुरू कर दिया। बढ़ते दबाव के कारण और मजदूरों के जुझारू मूड से डरकर नाइट्स ने पहली मई के लिए गोलबंदी शुरू कर दी। शिकागो में नाइट्स के नेता जॉर्ज शिलिंग उस दिन की तैयारी में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन के साथ शामिल हो गए। नाइट्स ने सिनसिनाटी और मिलवाकी में भी संगठन करने में अहम भूमिका निभाई।

बढ़ते समर्थन के बावजूद फेडरेशन वास्तव में राष्ट्रीय पैमाने की कार्रवाई करने के लिए अभी बहुत छोटा था। इसके बजाय स्थानीय कमेटियों ने एक मई की हड़तालें और प्रदर्शनों की तैयारी करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। आठ घंटे के आंदोलन की बढ़ती ताकत ने शासक वर्गों में हड़कम्प मचा दिया। अखबारों की सुर्खियों में ऐसी चेतावनियां मोटे-मोटे अक्षरों में छपने लगीं कि इस आंदोलन में कम्युनिस्ट घुसपैठिए आ गए हैं। कुछ मालिक तो घबराकर पहले ही तैयार हो गए। अप्रैल 1886 तक तीस हजार से ज्यादा मजदूरों को आठ घंटे के दिन का अधिकार मिल गया।

मालिक लोग बार-बार डरा रहे थे कि पहली मई को हिंसा होगी लेकिन दुनिया का पहला मई दिवस एक शानदार सफलता थी। उस दिन लाखों मजदूर शांतिपूर्ण हड़तालों और प्रदर्शनों में शामिल हुए। सबसे बड़ा प्रदर्शन शिकागो में हुआ, जहां 90 हजार मजदूरों ने जुलूस निकाला। इनमें से 40 हजार मजदूर हड़ताल करके आए थे। शिकागो के मांस पैक करने वाले कारखानों के 35 हजार मजदूरों ने उस हड़ताल के बाद आठ घंटे काम का अधिकार हासिल कर लिया और उनकी तनख्वाह भी नहीं काटी गई।

न्यूयार्क में 10 हजार मजदूरों ने यूनियन स्क्वायर तक जुलूस निकाला। डेट्रायट में 11 हजार लोगों का जुलूस निकला। लुईसविले, केंटकी और बाल्टीमोर में विरोध प्रदर्शन करने वाले काले और गोरे मजदूरों के बीच एकजुटता देखते ही बनती थी। कुल मिलाकर पूरे अमेरिका में मेन से टेक्सास तक, न्यू जर्सी से अलाबामा तक, लगभग 5 लाख मजदूरों ने मई दिवस के जुलूसों और प्रदर्शनों में हिस्सा लिया।

यूनियन स्क्वायर में बोलते हुए मजदूरों के नेता सैमुअल गोम्पर्स ने कहा, पहली मई को आज के बाद आजादी की दूसरी उद्घोषणा के रूप में याद किया जाएगा। लेकिन जिस घटना ने मई दिवस को मजदूर वर्ग के इतिहास में अमर कर दिया वह एक मई को नहीं, बल्कि तीन दिन बाद शिकागो के हे मार्केट चौक में हुई।

आठ घंटे का आंदोलन शिकागो में सबसे मजबूत तो था ही, साथ ही यह शहर अराजकतावादी आईडब्लूपीए के सिंडिकेटवादी हिस्से का केंद्र भी था। यह हिस्सा मानता था कि मजदूर यूनियनों से ही आगे चलकर वर्गविहीन समाज बनेगा। शिकागो की आईपीडब्लूए के पास अल्बर्ट पार्सस और ऑगस्ट स्पाइस जैसे तेज तर्रार नेता थे। उसके कई हजार सक्रिय सदस्य थे और वह तीन भाषाओं में पांच अखबार निकालता था। तीन मई, 1886 तक शिकागो में हड़ताली मजदूरों की संख्या बढ़कर 65 हजार पहुंच गई थी। पूंजीपतियों ने घबराकर यह तय किया कि अब मजदूरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई जरूरी हो गई है।

तीन मई की दोपहर को उन्होंने हमला किया। स्पाइस हड़ताली लकड़ी मजदूरों के सामने भाषण दे रहे थे जो कि आठ घंटे काम के दिन के लिए मालिकों से बातचीत की तैयारी में थे।

रैली के दौरान सैकड़ों लकड़ी मजदूर वहां से करीब चौथाई मील दूर मैकार्मिक हार्वेस्टर कारखाने के मजदूरों का साथ देने चले गए, जो तालाबंदी के कारण बाहर थे। मैकॉर्मिक के मजदूरों को तालाबंदी करके तीन महीने के लिए बाहर कर दिया गया था। कारखाना गद्दारों के दम पर चलाया जा रहा था और लकड़ी मजदूर तालाबंदी के शिकार मजदूरों का साथ देने गए थे, ताकि पाली बदलने के समय गद्दारों को मुंह तोड़ जबाव दिया जा सके।

15 मिनट के अंदर सैकड़ों पुलिसवाले वहां पहुंच गए। स्पाइस और बाकी लकड़ी मजदूर भी गोलियों की आवाज सुनकर अपने साथियों का साथ देने के लिए मैकॉर्मिक की ओर बढ़े। लेकिन उन्हें पुलिस की एक टुकड़ी ने रोक लिया और उन पर लाठियों से हमला किया तथा भीड़ में गोलियां चलाईं। कम से कम चार मजदूर मौके पर ही मारे गए और बहुत से घायल हो गए। स्पाइस ने तुरंत अंग्रेजी और जर्मन भाषा में दो पर्चे जारी किए। एक का शीर्षक था, मजदूरों! बदला लो, हथियार उठाओ, और इस अत्याचार का जिम्मेदार मालिकों को ठहराया। दूसरे पर्चे में पुलिस द्वारा की गई हत्याओं की निंदा करने के लिए हेमार्केट चौक में एक रैली (जनसभा) बुलाई गई थी।

रैली वाले दिन, चार मई को, पुलिस ने हड़ताली मजदूरों पर जगह-जगह हमले किए। इन हमलों के बावजूद, शाम को होने वाली रैली में 3 हजार मजदूर इकट्ठा हुए। शहर का मेयर भी वहां था जो चाहता था कि रैली शांतिपूर्ण रहे। पहले स्पाइस ने भाषण दिया और एक दिन पहले पुलिस द्वारा की गई हत्याओं का विरोध किया। पार्संस ने अपने भाषण में आठ घंटे के दिन की मांग उठाई। इन दो नेताओं के चले जाने के बाद, सैमुअल फील्डेन ने बची हुई भीड़ को संबोधित किया।

मेयर के चले जाने के कुछ ही मिनट बाद, जब फील्डेन बोल रहे थे, तो एक सौ अस्सी पुलिस वालों ने मंच को घेर लिया और मांग की कि रैली भंग कर दी जाए। फील्डेन ने विरोध किया और कहा कि रैली तो शांतिपूर्ण है। पुलिस कप्तान अभी पुलिसवालों को आदेश दे ही रहा था कि तब तक भीड़ से पुलिसवालों की तरफ एक बम फेंका गया। 65 पुलिसवाले घायल हुए जिनमें से 7 की बाद में मौत हो गई। पुलिस ने मजदूरों पर गोलियों की बौछार कर दी जिससे दो सौ मजदूर घायल हुए और अनेक मारे गए।

अखबारों और मालिकों ने जुझारू मजदूरों, खासकर अराजकतावादी नेताओं के खिलाफ अंधाधुंध प्रचार किया और उन्हें पकडऩे का अभियान छेड़ दिया गया। कुछ ही दिनों में सात नेता – स्पाइस, फील्डेन, माइकल श्वाब, एडॉल्फ फिशर, जॉर्ज एंजेल, लुईस लिंग्ग और आस्कर नीबे को गिरफ्तार कर लिया गया। पार्संस को पुलिस नहीं पकड़ पाई लेकिन मुकदमें वाले दिन वे खुद ही अपने मजदूर साथियों के साथ कठघरे में खड़े होने के लिए अदालत पहुंच गए।

जिस तरह से मुकदमा चला उससे बिलकुल साफ था कि मालिकों और सरकार ने हर कीमत पर मजदूर नेताओं को फंसाने की ठान ली है। सरकारी पक्ष ऐसा कोई सबूत नहीं पेश कर पाया कि उन आठ लोगों में से किसी ने भी बम फेंका है या उनमें से कोई भी बम फेंकने की साजिश में शामिल था। जैसाकि सरकारी वकील जूलियस ग्रिनेल ने अपनी आखिरी दलील में कहा कि, इन लोगों को इसलिए चुना गया है और दोषी ठहराया गया है क्योंकि वे नेता थे। ये भी उन हजारों लोगों जितने ही निर्दोष हैं जो कि इनके पीछे चलते हैं… इन लोगों को सजा दीजिए, उन्हें एक मिसाल के तौर पर पेश कीजिए, उन्हें फांसी पर लटकाइए और हमारी संस्थाओं को, हमारे समाज को बचाइए।

नीबे के अलावा बाकी सबको मौत की सजा सुनाई गई। फील्डेन और श्वाब ने मौत की सजा माफ करने की याचिका दायर करके अपनी सजा को आजीवन कारावास में बदलवालिया। 21 साल के लिंग्ग ने अपने मुंह में डायनामाइट का विस्फोट करके जल्लाद को यह मौका ही नहीं दिया कि उसे फांसी पर चढ़ा सके। शेष चार, अल्बर्ट पार्संस, स्पाइस, एंजेल और फिशर को 11 नवंबर 1887 को फांसी दे दी गई।

छह वर्ष बाद, इलिनॉय राज्य के गवर्नर जॉन एल्टजेल्ड ने नीबे, और फील्डेन को आजाद कर दिया और मौत की सजा पाने वाले पांचों लोगों को करने के बाद बरी करते हुए यह बताया कि उनके खिलाफ पेश किए गए ज्यादातर सबूत फर्जी थे और मुकदमा एक नाटक था। लेकिन नुक्सान तो हो चुका था। सिर्फ हेमार्केट के बाद गिरफ्तार आठ लोगों का नहीं, बल्कि पूरे मजदूर आंदोलन को भारी नुकसान हुआ।

मजदूर आंदोलन के खिलाफ जबर्दस्त हमले तेज कर दिये गए। आठ घंटे की मांग पर होने वाली हड़तालें टूट गईं और जिन मजदूरों ने आठ घंटे दिन का अधिकार हासिल कर लिया था उनमें से भी लगभग एक तिहाई से हेमार्केट की घटना के बाद एक महीने के अंदर इस अधिकार को छीन लिया गया।

हेमार्केट की घटना और मजदूर नेताओं को फांसी के बीच के एक वर्ष के दौरान, पूरी दुनिया का मजदूर आंदोलन दोषी ठहराए गए नेताओं की रक्षा के लिए सामने आया। हालांकि नाइट्स ऑफ लेबर के बड़े नेताओं ने तो अपने जुझारू प्रतिद्वंदियो पर हमला करने के लिए इस मौके का फायदा उठाया, लेकिन उनके बहुत से स्थानीय संगठनों ने सजा माफ करने की मुहिम में बढ्-चढ़कर हिस्सा लिया। इनमें शिकागो की कमेटी भी थी। गोम्पर्स की अगुआई में नई-नई बनी अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर (एएफएल यानी अमेरिकी मजदूर महासंघ) ने सजा माफ करने की अपील जारी की।

अमेरिका के बाहर इंग्लैंड, हालैंड, रूस, इटली, फ्रांस और स्पेन में लाखों मजदूर नेताओं को बचाने की मांग पर रैलियां निकाली और पेसे इकट्ठा किए। जर्मनी के प्रधानमंत्री ऑटो फॉन बिस्मार्क ने हेमार्केट के नेताओं के बचाव में मजदूर आंदोलन से घबराकर मजदूरों की सभाओं पर रोक लगा दी। हेमार्केट की घटना ने अमेरिकी मजदूर वर्ग, खासकर आठ घंटे के दिन के लिए अमेरिका में चलने वाले आंदोलन को दुनिया के मजदूर आंदोलन में सबसे आगे कर दिया। इसलिए जब 1888 में एएफएल के सम्मेलन में यह घोषणा की गई कि पहली मई 1890 का दिन एक ऐसा दिन होगा जब मजदूर वर्ग हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों के जरिए आठ घंटे काम के दिन को लागू करवाएगा, तो पूरी दुनिया ने इस बात को गौर से सुना।

अगले साल, 1889 में, फ्रांसीसी क्रांति की सौवीं वर्षगांठ पर अंतर्राष्ट्रीय मार्क्सवादी-समाजवादी कांग्रेस में चार सौ प्रतिनिधि पेरिस में इकट्ठा हुए। इसी कांग्रेस में दूसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का गठन किया गया। गोम्पर्स ने पहली मई, 1890 को होने वाली कारवाई के बारे में बताने के लिए अपना एक प्रतिनिधि भेजा। कांग्रेस ने फ्रांस के प्रतिनिधि लाविंए द्वारा प्रस्तुत एक प्रस्ताव पास किया। इसमें कहा गया कि पहली मई, 1890 को आठ घंटे के दिन की मांग पर एक विशाल अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शन, आयोजित किया जाएगा, क्योकि अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर ने ऐसे प्रदर्शन के लिए पहले ही संकल्प ले लिया है।

इस आव्हान को जबर्दस्त सफलता मिली। एक मई 1890 को अमेरिका और यूरोप के ज्यादातर देशों में मई दिवस के प्रदर्शन हुए। चिली और पेरु जैसे दक्षिण अमेरिका के देशों में भी प्रदर्शन हुए। क्यूबा की राजधानी हवाना में दुनिया के पहले मई दिवस के मौके पर मजदूरों ने आठ घंटे काम के दिन, काले-गोरों के लिए बराबर अधिकार और मजदूर वर्ग की एकजुटता का आह्वान करते हुए जुलूस निकाला। मजदूर वर्ग के महान शिक्षक फ्रेडरिक एंगेल्स लंदन के हाइड पार्क में तीन मई को हुए पांच लाख मजदूरों के प्रदर्शन में शामिल हुए। उन्होंने लिखा है कि जिस वक्त में ये पंक्तियां लिख रहा हूं, यूरोप और अमेरिका का सर्वहारा वर्ग अपनी ताकत आंक रहा है। पहली बार यह एक सेना के रूप में, एक झण्डे के नीचे गोलबंद हुआ है और एक तात्कालिक लक्ष्य के लिए लड़ रहा है, यानी आठ घंटे काम के दिन के लिए।

हालांकि 1889 के प्रस्ताव में एक मई को एक बार प्रदर्शन करने का आह्वान किया गया था, लेकिन जल्दी ही यह एक हर साल होने वाला कार्यक्रम बन गया। पूरी दुनिया में ज्यादा से ज्यादा देशों में मजदूर मई दिवस को मजदूर दिवस के तौर पर मनाने लगे।

रूस, ब्राजील और आयरलैंड में पहली बार 1891 में मई दिवस मनाया गया। 1904 तक, दूसरे इंटरनेशनल ने हर देश के समाजवादियों और ट्रेड यूनियनों को आह्वान किया कि वे आठ घंटे काम के दिन को कानूनी मान्यता दिलाने, सर्वहारा की वर्गीय मांगों के लिए और दुनिया में शांति के लिए हर साल पहली मई को पूरी ताकत के साथ प्रदर्शन करें। रूस की समाजवादी क्रांति के बाद, चीन के मजदूरों ने 1920 में पहला मई दिवस मनाया। 1927 में भारत के मजदूरों ने कलकत्ता, मद्रास और बंबई में प्रदर्शनों के साथ मई दिवस मनाया। उस समय तक मई दिवस वाकई दुनिया के मजदूरों का दिन बन चुका था।

एक ओर जहां मई दिवस पूरी दुनिया में जोर-शोर से मनाया जा रहा था, वहीं अपने जन्म के देश, अमेरिका में यह कमजोर पड़ता जा रहा था। अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर ने तो हेमार्केट की घटना के बाद उठे बवंडर के बाद से ही उल्दी दिशा में पलटना शुरू कर दिया था। 1905 तक उसने मई दिवस से पूरी तरह नाता तोड़ लिया। इसके बजाय वह सितंबर के पहले सोमवार को श्रम दिवस मनाने लगा जिसे 1894 में अमेरिकी सरकार ने लागू कराया था।

उस समय से, अमेरिका में मई दिवस मजदूर आंदोलन के वामपंथी हिस्से द्वारा मनाया जाने लगा जबकि ज्यादा रूढ़िवादी यूनियनों की नौकरशाही इसके खिलाफ थी। उदाहरण के लिए 1910 में सोशलिस्ट पार्टी ने न्यूयार्क शहर में साठ हजार लोगों का जुलूस निकाला जिनमें कमीज बनाने वालों की यूनियन की दस हजार महिलाएं भी थीं। 1911 में मई दिवस पर पांच लाख मजदूरों ने जुलूस निकाला।

सोवियत संघ में मजदूरों और किसानों की जीत के बाद, 1919 में अमेरिका में कम्युनिज्म को लेकर जबर्दस्त आंतक फैल गया। मई दिवस की रैलियों पर हमले किए गए, सीधे-सीधे भी और अखबारों में गलत प्रचार के जरिये भी। 1919 के बद से अमेरिका में मई दिवस की सफलता इस बात पर निर्भर थी कि कम्युनिस्ट आंदोलन को वहां कितनी सफलता मिलती है।

मजदूरों की कतारबद्ध फौजों की तनी हुई मुट्ठियों और लाल झंडों के ऊपर ऑगस्ट स्पाइस के ये अंतिम शब्द गूंजते रहते हैं : एक दिन आएगा जब हमारी खामोशी उन आवाजों से भी ज्यादा ताकतवर साबित होगी जिन्हें तुम आज दबा रहे हो। हेमार्केट के शहीदों के नाम बने स्मारक पर ये शब्द पत्थर में तराशे हुए आज भी दुनिया के मजदूरों को प्रेरणा दे रहे हैं

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शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
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