मुद्दा बांग्लादेशी घुसपैठियों का
भाजपा ने झारखण्ड के आदिवासी वोटरों को अपने पाले में लाने के लिए जिस मुद्दे का चुनाव किया है, वह उनकी राजनीतिक विचारधारा के हिसाब के बिल्कुल सटीक बैठता है। बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ और उससे संताल परगना में कथित तौर पर बदलते डेमोग्राफी का मुद्दा पहली बार इतने वृहद स्तर पर उठाया जा रहा है। इसके पहले यह मुद्दा एकाध बार गोड्डा सांसद निशिकांत दूबे के संसद के भाषणों में सुनने को मिलता था, हालांकि पहली बार संताल परगना में मिनी एनआरसी की बात 2018 में रघुवर दास ने खुद की थी। इतने सालों तक इसपर कोई ठोस राजनीति नहीं हुई, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में पांचों आदिवासी सीटें हारने के बाद रणनीति के तहत भाजपा ने फिर से यह मुद्दा राष्ट्रीय फलक पर लाकर खड़ा कर दिया है।
भाजपा का आरोप है कि झारखण्ड के संताल परगना क्षेत्र में, विशेषकर पाकुड़ और गोड्डा जिले में बांग्लादेश से आये अवैध घुसपैठियों ने कब्जा कर लिया है। वे वहाँ घर बना रहे हैं, आदिवासी महिलाओं से किसी मकसद के तहत शादी कर रहे हैं और इस तरह वहाँ आदिवासी आबादी कम हो रही है। कई प्रकरण भाजपा नेताओं द्वारा ट्विटर पर उजागर किये गये हैं, जो देखने में सही मालूम पड़ते हैं, लेकिन किसी तरह की जांच के अभाव में कुछ कहा नहीं जा सकता।
झारखण्ड सहित पूरे देश में बांग्लादेशी घुसपैठ को नकारा नहीं जा सकता। बांग्लादेश के आस पास यह मुद्दा ज्यादा गम्भीर है, इस बात में भी सच्चाई है। लेकिन भाजपा की तरफ से डेमोग्राफी परिवर्तन का दावा झूठा है और वह इस मुद्दे का राजनीतिक इस्तेमाल करना चाह रही है। दरअसल 1951 से ही आदिवासियों की आबादी में लगातार गिरावट आई है। झारखण्ड की आबादी पर हुए शोध से पता चलता है कि 1951 में आदिवासियों की आबादी 35.38 प्रतिशत थी, जो 1991 तक घटकर 27.66 प्रतिशत हो गई थी। इसके विपरीत इन्हीं चालीस सालों में दलितों की आबादी 8.42 प्रतिशत से बढ़कर 11.85 प्रतिशत हो गयी। यानी अन्य जातियों की आबादी समय के साथ बढ़ती गयी, लेकिन आदिवासियों की आबादी घटती गयी रही। इसके कई कारण हैं– जन्म दर में कमी, कुपोषण, पलायन और सुदूर क्षेत्रों में (जहाँ आदिवासियों का निवास है) लचर स्वास्थ्य सुविधा। शोधार्थी भी इन कारणों को महत्वपूर्ण मानते हैं।
गौर करने वाली बात है कि 1991 तक झारखण्ड में बांग्लादेशी घुसपैठ कोई मुद्दा नहीं था। इसके सिर्फ बीस साल पहले ही बांग्लादेश आजाद हुआ था। इस लिहाज से यह कहना भी गलत है कि सिर्फ 20 सालों में ही आदिवासियों की आबादी 8 प्रतिशत घट गई। 1971 तक के आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं।
इस लिहाज से भाजपा द्वारा उठाया जा रहा घुसपैठ का मुद्दा जरूरी मगर राजनीतिक झूठ के साथ नजर आता है। दूसरी तरफ यह समस्या केवल हेमंत के पाँच सालों में उत्पन्न हुई, ऐसा भी नहीं है। जैसा कि आलेख के आरंभ में ही इस बात को उल्लेखित किया गया है कि झारखण्ड में मिनी एनआरसी (नेशनल रेजिस्टर ऑफ पॉप्यूलेशन) की बात सबसे पहले 2018 में रघुवर सरकार में की गयी थी। जाहिर है, यह कई सालों की लापरवाही और अनदेखी के कारण हुआ है।
लेकिन इस मुद्दे पर झामुमो की खामोशी उनके लिए ज्यादा बड़ी समस्या बन रही है। झामुमो का इस मुद्दे पर किसी तरह की प्रतिक्रिया न देना, भाजपा के आरोपों के सत्यापित करने जैसा है कि झामुमो तुष्टिकरण की राजनीति कर रही है। सम्भवतः हेमंत सोरेन को इस बात का डर है कि बांग्लादेशी घुसपैठ पर किसी तरह का बयान देने से संताल परगना के मुस्लिम उन्हें वोट नहीं देंगे। हो सकता है कि यह दबाव कांग्रेस की तरफ से भी हो, लेकिन कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बांग्लादेशी घुसपैठ पर बयान देने से आम मुस्लिम रहवासियों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यहाँ तक कि वे खुश ही होंगे, क्योंकि घुसपैठ से उनके भी संसाधनों पर अतिक्रमण हो रहा है।
बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा कितना कारगर होगा, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन भाजपा ने इसे एक चुनावी मुद्दे के रूप में खड़ा जरूर कर दिया है। इस मुद्दे का बनाने और भुनाने की जिम्मेवारी असम के मुख्यमंत्री और झारखण्ड के सह प्रभारी हिमंता बिस्वा सरमा को दी गई है। दरअसल जिस राज्य से हिमंता आते हैं, वहाँ बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा सबसे प्रभावी और सबसे बड़ा है। सबसे पहले एनआरसी की भी मांग यहीं हुई थी। असम एक आदिवासी बहुल राज्य है और वहाँ की राजनीति कर हिमंता लगातार मुख्यमंत्री हैं। ऐसे में झारखण्ड में भाजपा की नैया पार लगाने के लिए वे वाकई मजबूत व्यक्ति हैं। प्रभारी के तौर पर तैनात शिवराज सिंह चौहान भी मध्यप्रदेश में आदिवासी राजनीति करते रहे हैं।
लेकिन जिस बात की कमी भाजपा को खटक रही है, वो है प्रदेश में आदिवासी नेतृत्व के लिए मजबूत चेहरा। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी को प्रदेश में एकाधिकार दिये जाने के बाद भी लोकसभा में भाजपा पांचों आदिवासी सीटें हार गई। पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा भी खूंटी से अपनी सीट नहीं बचा पाये। शेष अन्य आदिवासी नेता इन दोनों से जूनियर हैं और उनकी स्वीकार्यता पार्टी में इस तरह की नहीं है। ऐसे में भाजपा के पास और कोई विकल्प नहीं है। इसलिए ऐसा लग रहा है कि इस वक्त प्रदेश नेतृत्व की कमान काफी हद तक हिमंता बिस्वा सरमा, लक्ष्मीकांत वाजपेयी और अन्य केंद्रीय नेताओं के हाथ में हैं।
रघुवर दास की वापसी को लेकर मीडिया में खबरें चल रही हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि भाजपा इतना बड़ा रिस्क लेगी। वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ चौधरी कहते हैं कि अगर भाजपा को रघुवर को मुख्यमंत्री बनाना ही होगा, तो वे चुनाव जीतने के बाद बना सकती है। अभी रघुवर दास को राज्यपाल की कुर्सी से वापस बुला लेने का संदेश भाजपा के खिलाफ जाएगा और पार्टी कई खेमों में बंट जाएगी। इसी तरह नेता प्रतिपक्ष अमर बाउरी में तमाम संभावनाएं होने के बाद भी उन्हें नेतृत्व नहीं दिया जा रहा है क्योंकि भाजपा किसी आदिवासी नेता को ही प्रदेश की कमान सौंपना चाह रही है, जो मौके की नजाकत के हिसाब से सही भी है।
इस बीच पूर्व मुख्यमंत्री और झामुमो के उपाध्यक्ष चंपाई सोरेन ने झामुमो से इस्तीफा दिया और अपने बेटे सहित भाजपा में शामिल हो गए। उनके बाद बोरियो से झामुमो के निष्कासित विधायक लोबिन हेंब्रम ने भी भाजपा का दामन थाम लिया। चंपाई सोरेन का पार्टी छोड़ना झामुमो के लिए बहुत बड़ा झटका है। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि चंपाई सोरेन कोल्हान के कम से कम 4-5 सीटों पर गहरा प्रभाव रखते हैं। इस बीच यह याद रहे कि भाजपा 2019 में कोल्हान की सभी 14 सीटें हार गई थी, जिसमें से 12 सीटें आदिवासी आरक्षित हैं। अगर चंपाई की मदद से भाजपा यहाँ 5 सीटें जीतने में कामयाब हो जाती है, तो फिर इस बात की पूरी संभावना है कि वह सरकार बना सकती है। चंपाई सोरेन के भाजपा में जाने की एक मात्र वजह उनकी नाराजगी थी, जिसका फायदा भाजपा ने उठाया।
भाजपा के लिए इस बार आजसू का साथ काफी अहम होगा। पिछली बार अति-आत्मविश्वास के कारण भाजपा और आजसू अलग लड़े थे, इस कारण कम से कम 5 सीटों पर उन्हें नुकसान हुआ। इस बार उन सीटों पर वापसी हो सकती है। यानी लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद झामुमो के लिए जितना आसान यह चुनाव लग रहा था, उतना आसान यह होगा नहीं। हेमंत सोरेन के जेल से बाहर आने के बाद उनके प्रति सहानुभूति की लहर स्वाभाविक तौर पर कम हो गई है। रोजगार आदि मसलों पर एंटी इनकमबैंसी नजर आने लगी है। चुनाव आयोग की प्रेस वार्ता के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि अभी चुनाव में लगभग दो महीने का समय और बाकी है। यह झामुमो के लिए परेशानी का सबब है।
भाजपा किसी भी कीमत पर यह चुनाव जीतना चाह रही है। आदिवासी राज्यों में झारखण्ड इकलौता राज्य है, जहाँ भाजपा को चुनौती मिल रही है। हाल के बैठकों में भाजपा ने तय किया है कि वह अपनी सभी आदिवासी नेताओं को चुनावी मैदान में उतारेगी। इसका साफ संदेश है कि भाजपा 28 में से कम से कम 8 आदिवासी सीटें जीतने पर जोर लगा रही है। संताल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठ का मुद्दा और कोल्हान में चंपाई सोरेन को भाजपा में शामिल करने से यह आंकड़ा फलीभूत होता नजर आ रहा है। यदि ऐसा होता है, तो भाजपा के लिए सत्ता में आना सम्भव हो जाएगा। हालांकि चुनाव नजदीक आने तक स्थितियां बदल सकती हैं।