झारखंड

संतालों का महान पर्व सोहराय

 

        संताल परगना के आदिवासी विभिन्न मौसमों में भिन्न-भिन्न पर्व-त्यौहार मनाते हैं। जिनमें ‘बाहा’ एवं ‘सोहराय’ यहाँ के संतालों का सबसे महत्वपूर्ण पर्व माना जाता है। संताल परगना में ‘बाहा’ पर्व बसंत ऋतु में तथा ‘सोहराय’ जनवरी माह के द्वितीय सप्ताह में बड़े ही धूम-धाम के साथ हर्षपूर्वक यहाँ के संतालों द्वारा मनाया जाता है। एक मान्यता के अनुसार संतालों का अत्याधिक माना जाने वाला पर्व ‘सोहराय’ है।

       आदिकाल में यहाँ के संताल जनजाति के लोग ‘सोहराय’ पर्व दीपावली के अवसर पर मनाते थे। परन्तु धीरे-धीरे इसका समय बदलता गया और इस तरह आजकल ‘सोहराय’ प्रत्येक वर्ष नये साल के आगमन के बाद फसल (धान) कटकर तैयार होकर खलिहान पहुँचने के पश्चात मनाया जाता है।

       इस अवसर पर देवी-देवताओं, पितरों तथा गोधन को संतुष्ट करने के अतिरिक्त सगे-संबंधियों को सम्मानित भी किया जाता है। यह पर्व वस्तुतः पाँच दिनों तक मनाया जाता है। प्रथम दिन स्नान के बाद ‘गोद टाण्डी’’ (बथान) में ‘जाहेर एरा’ का आह्वान किया जाता है। तत्पश्चात मुर्गे की बलि देकर सिर दर्द, पेट-दर्द एवं झगड़ों से मुक्ति के लिए समुदाय के सभी लोग प्रार्थना करते हैं।

इसके अतिरिक्त वे लोग इस दिन अपनी परंपरागत मदिरा (ताड़ी, हंडिया एवं पोचय) का जमकर पान भी करते हैं और तब आरंभ होता है इनके नृत्य-संगीत का सिलसिला जो प्रथम दिन से पांचवें दिन तक थमने का नाम नहीं लेता है। इस दिन घर की बेटियाँ अपनी माँ से मिन्नत करके पाँच दिनों तक घर के कार्यों से मुक्ति पाने के बाद माँ द्वारा दी गयी नयी साड़ी एवं श्रृंगार से अलंकृत होकर ‘सोहराय’ पर्व की पावन बेला के हर्षोल्लास में डूब जाती हैं। इस दिन आदिवासी युवक एवं युवतियां एक साथ नृत्य किया करती है। युवतियां मांदर की थाप पर कतार बद्ध होकर थिरकती हैं। इस प्रथम दिन के रात्रि में युवक-युवतियों का दल धूप-दीप, धान-चावल एवं दुर्वा घास लेकर गांव के प्रत्येक घर में गौ-पूजन हेतु जाते हैं।

       ‘सोहराय’ के दूसरे दिन ‘गोहाल-पूजा’ होती है। जिसमें गौशाला को अच्छी तरह से साफ करके उसे खरी-माटी की अल्पना (रंगोली) से सजाया जाता है। गायों के पैर धोये जाते हैं। उनकी सींगों पर तेल एवं सिन्दुर लगाया जाता है। पितरों तथा देवी-देवताओं को मुर्गे और सुअरों की बलि चढ़ाई जाती है। इस उपलक्ष्य में अन्य ग्रामों में विवाहित बेटियां भी अपने मायके आकर ‘सोहराय’ पर्व का आनंद लेती है।

       तीसरे दिन को ‘खुटाब मांहा’ कहते हैं। यह दिन संतालों में आपसी सौहार्द का दिन होता है। इस दिन ये लोग आपस में गले मिलते हैं। संतालों का अपने मवेशियों यथा – बैल एवं भैस इत्यादि के संग खेलना, उछलना-कूदना एवं इनके साथ तरह-तरह के आश्चर्यजनक कत्र्तव्य दिखाना इन लोगों का इस दिन महत्वपूर्ण माना जाता है। यह एक सदियों पुरानी परंपरा है, जिसे संताल आदिवासी आज भी निभाते हैं।

       चौथे एवं पांचवें दिन को ‘जाले-मांहा’ एवं ‘चैड़ी-मांहा’ कहते हैं। पर्व के अंतिम दो दिनों में गांव के युवक-युवतियों का दल गाँव-घर में घूमकर नाच-गाकर प्रत्येक घर से चावल, दाल, नमक एवं मसाले आदि इकट्ठा करते हैं और अंतिम पांचवें दिन ‘जोन-मांझी’ की देख-रेख में उपर्युक्त चीजों की खिचड़ी पकती है और सभी ग्रामवासी एक साथ मिलकर भोज का आनन्द लेते हैं। इस दिन हड़िया पी जाती हैं। इस प्रकार साल भर का पर्व सोहराय हर्षोल्लास के साथ संपन्न होता है

.

कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।
Show More

कैलाश केशरी

लेखक स्वतन्त्र टिप्पणीकार हैं। सम्पर्क +919470105764, kailashkeshridumka@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x