स्थानीय नीति पर हेमंत के विकल्प
झारखण्ड गठन के 22 साल पूरे होने के बाद भी अब तक यहाँ की स्थानीय नीति तय नहीं हो सकी है। यानी यह तय नहीं हो सका है कि इस राज्य में रहने वालों में से कौन झारखण्डी है और कौन नहीं। स्थानीय नीति तय हो जाने से झारखण्ड की सरकारी नौकरियों में नियोजन की नियमावली स्पष्ट रूप से तय हो सकेगी और स्थानीय लोगों को तीसरे और चौथे ग्रेड की सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता मिलेगी। देश के लगभग सभी राज्यों में स्थानीय नीति के आधार पर ही नौकरियों में नियोजन की नियमावली बनी हुई है।
स्थानीय नीति को लेकर झारखण्ड में तीसरी बार विवाद शुरू हो गया है। 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति तय करने की मांग आन्दोलनों के रूप में सड़क से भी उठ रही है और सदन से भी। सड़कों पर मुख्यमन्त्री हेमन्त सोरेन के खिलाफ नारे लग रहे हैं, वहीं सत्ताधारी पार्टी झामुमो और काँग्रेस के कुछ-एक पूर्व विधायक व नेता पार्टी से इस्तीफा भी दे चुके हैं। मुख्यमन्त्री की भाभी और जामा से झामुमो की विधायक सीता सोरन खतियान के विषय पर राज्यपाल से मिल चुकी हैं। झामुमो के कद्दावर नेता लोबिन हेम्ब्रम अपनी पार्टी के लगभग खिलाफ जाते हुए राज्य भर में खतियान आधारित स्थानीय नीति के लिए रैलियाँ कर रहे हैं। इसके अलावा आजसू पार्टी पूरी तरह से खतियान आधारित स्थानीय नीति के समर्थन में उतर आयी है।
इन सबके बीच हेमन्त सोरेन ने सदन के पटल पर साफ कह दिया है कि वे खतियान के आधार पर स्थानीय नीति लागू नहीं कर सकते हैं। लेकिन दिलचस्प बात है कि 2019 के विधानसभा चुनाव में 1932 के खतियान का मुद्दा झामुमो के घोषणापत्र में भी था और इसे चुनावी भाषणों में खुद हेमन्त सोरेन ने भी खूब भंजाया था। इसके पहले 2013 में भी हेमन्त सोरेन खतियान आधारित स्थानीय नीति की बात कर चुके हैं। दिशोम गुरू शिबू सोरेन भी इस विषय पर मुखर रहे हैं। तो अब सवाल उठता है कि जो पार्टी चुनाव से पहले कई बार खतियान आधारित स्थानीय नीति की घोषणाएँ कर चुकी है, वो सरकार बनने के बाद इससे मुकर क्यों रही है? ऐसा करने से झामुमो को कितना फायदा या नुकसान होगा?
सबसे पहले तो यह समझना होगा कि 1932 के खतियान का नारा दरअसल एक सांकेतिक नारा है। इसका आशय वास्तव में जमीन के अन्तिम सर्वे से है, जो राज्य के अलग-अलग जिलों में अलग-अलग वर्षों में हुआ है। बकौल मुख्यमंत्री झारखण्ड में पहला सर्वे 1911 में हुआ है और अंतिम सर्वे 2005 में। इस दरम्यान 1918, 1932, 1964, और 1993 में भी जमीन का सर्वे हुआ है। सर्वे के बाद गजट का प्रकाशन भी हुआ है। इन्हीं सर्वे के आधार पर जमीन के मालिकों के नाम खतियान में दर्ज किये गये थे। अब इन्हीं खतियान को स्थानीय नीति का आधार बनाए जाने की मांग हो रही है। दिलचस्प बात है कि संयुक्त बिहार में स्थानीयता का आधार इन्हीं सर्वे को बनाया गया था। देश के अन्य राज्य भी स्थानीयता का आधार जमीन के सर्वे को ही मानते हैं।
लेकिन विधानसभा के पटल पर हेमन्त ने साफ कर दिया है कि वे खतियान के आधार पर स्थानीय नीति तय नहीं कर सकते हैं। उन्होंने पूछा है कि वे कैसे किसी एक सर्वे को आधार बना कर बाकी सर्वे को दरकिनार कर सकते हैं। 1911 के सर्वे को आधार बनाया जाए तो 2005 को क्यों नहीं? ऐसे में साफ है कि चुनाव से पहले हेमन्त ने भले ही खतियान के मुद्दे को पुरजोर रूप से उठाया हो, लेकिन फिलहाल सरकार स्थानीय नीति निर्धारण के विषय पर बैकफुट पर है। विपक्ष का कहना भी लाजिमि है कि हेमन्त को इस व्यवधान की जानकारी क्या चुनाव से पहले नहीं थी? यदि थी, तो माना जाना चाहिए कि तमाम अड़चनों के बावजूद हेमन्त ने सिर्फ वोट के लिए खतियान का मुद्दा छेड़ा और अब पेंच बताकर मुँह मोड़ रहे हैं?
किसी भी राज्य में स्थानीय नीति का मसला लोगों की भावनाओं से जुड़ा होता है, यह आपके अपने या पराये होने का प्रमाण है। ऐसे में जब भी स्थानीय नीति का मुद्दा उठा है, पूरे राज्य में इसे लेकर बवाल हुआ है। हेमन्त से पहले दो और मुख्यमन्त्रियों ने राज्य की स्थानीय नीति तय करने की कोशिश की थी, लेकिन दोनों को अपने कदम पीछे लेने पड़े थे। राज्य गठन के लगभग तुरन्त बाद पहले मुख्यमन्त्री बाबूलाल मराण्डी ने इसी प्रकार खतियान के आधार पर स्थानीय नीति तय की थी, जिसका जबरदस्त विरोध हुआ। मामला हाईकोर्ट पहुँचा और कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। विरोध इतना प्रभावी था, कि अन्य पहलुओं पर सफल होने के बाद भी बाबूलाल मराण्डी को कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। इसके बाद कई बार शिबू सोरेन और 2013 में हेमन्त सोरेन भी मुख्यमन्त्री बने, लेकिन स्थानीय नीति सिर्फ बयानों में रही। 2014 में रघुवर दास की सरकार बनी और उन्होंने 1985 के कट-ऑफ डेट के आधार पर झारखण्ड की स्थानीय नीति तय की, जिसका विरोध हुआ और उन्हें भी अपने कदम पीछे लेने पड़े। माना जाता है कि 2019 में जो वे अपनी सीट भी नहीं बचा पाए, इसकी एक वजह उनका स्थानीय नीति का फैसला भी थी।
हेमन्त अतीत से सबक ले चुके हैं। उन्हें पता है कि वे अपने कैबिनेट से 1932 के आधार पर स्थानीय नीति पास भी कर दें, तो कोर्ट में वे टिक नहीं पाएँगे। इसका असर उनके वोट बैंक पर भी पड़ेगा। इसलिए अपने ही विधायकों की नाराजगी, जबरदस्त आन्दोलन और खुद की घोषणाओं के बावजूद वे स्थानीय नीति लागू करने से बच रहे हैं।
दूसरी बड़ी वजह है कि यहाँ कई ऐसे मूल निवासी हैं, जिनके पास जमीन से सम्बन्धित कागजात नहीं हैं। मसलन भूमिहीन किसान व मजदूर। कई ऐसे भी हैं, जिन्होंने अँग्रेजों के खिलाफ जंग किया और उनकी जमीनें उनसे छीन ली गयी थीं। बाद में उन्हीं जमीनों की रजिस्ट्री तत्कालीन सरकारी अधिकारियों के नाम से कर दी गयी थी। उनके पास भी जमीन सम्बन्धित कोई प्रमाण नहीं है। कई अन्य कारण भी हैं, जिस वजह से यहाँ के मूल निवासी खुद को स्थानीय प्रमाणित नहीं कर पाएँगे और वे स्थानीयता की सूची से बाहर हो जाएँगे। सरकार को उनके लिए विकल्प तलाशने की अवश्यकता है।
तो सवाल है कि हेमन्त या किसी भी सरकार के पास झारखण्ड की स्थानीय नीति लागू करने को लेकर क्या विकल्प है? इसे लेकर झारखण्ड हाईकोर्ट के अधिवक्ता विश्वजीत शाहदेव कहते हैं कि स्थानीय नीति जैसे संवेदनशील विषय को कैबिनेट से पास करने के बजाय सदन से पारित कराना चाहिए। सरकार एक विशेष सत्र बुलाए और तीन चौथाई बहुमत से बिल को पास कराए। यदि सरकार ऐसा करती है तो हाईकोर्ट इसे खारिज नहीं कर सकती है, क्योंकि विधानसभा विधायिका का अंग है। चुँकि झारखण्ड आदिवासी बहुल राज्य है और पाँचवीं अनुसूची के क्षेत्र में आता है, ऐसे में इस राज्य के पास विशेषाधिकार भी हैं। विश्वजीत शाहदेव कहते हैं कि या तो मुख्यमन्त्री को इन पहलुओं की जानकारी नहीं है, या उन्हें जानबूझकर अन्धेरे में रखा जा रहा है। लेकिन राज्य की स्थानीय नीति लागू करने के लिए सरकार के पास विकल्प मौजूद है। बशर्ते उन्हें अन्य दलों के विधायकों को अपने विश्वास में लेना होगा।
राज्य में सक्रिय कुछ अन्य पत्रकार और जानकार भी इस पक्ष में हैं कि सरकार सर्वदलीय बैठक बुलाए, जिस कट ऑफ डेट पर बहुमत हो, उसे सदन से पारित करवाया जाये। चुँकि यह राज्य हित में लिया जा रहा फैसला है, इसलिए इसे दलगत राजनीति से उठकर देखने की जरूरत है। राज्य का जो भी मुख्यमन्त्री ऐसा करने में कामयाब होगा, उसका फैसला कोर्ट में टिकेगा भी और उसे स्वीकार्यता भी मिल सकेगी। हालाँकि सदन में दिए अपने भाषण में मुख्यमन्त्री ने कहा भी है कि इस विषय पर समग्र चिन्तन की आवश्यकता है। इसके बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है।
दैनिक जागरण के राँची ब्यूरो चीफ और राजनीतिक मामलों के जानकार प्रदीप सिंह कहते हैं “स्थानीय नीति असल में राजनीतिक मुद्दा है,जिसे अलग-अलग राजनीतिक समूह अपने नफा-नुकसान के आधार पर उठाते हैं। इसमें जटिलता कतई नहीं है। ज्यादातर लोगों की मानसिकता पूर्वाग्रह से ग्रसित है। वे राज्य के हित-अहित से अधिक अपना, खुद का हित-अहित देखते हैं और नियम-कानून से अधिक खुद के प्रति स्वार्थी हो जाते हैं।”
यह बात तर्कसंगत है कि झारखण्ड के संसाधन, भूमि, नौकरियों आदि पर सबसे पहला हक झारखंडियों का है। लेकिन सबसे पहले झारखण्डी की परिभाषा तय करनी पड़ेगी, जो अब तक नहीं हो सका है। दृढ़ संकल्प के अभाव और व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण झारखण्ड अबतक स्थानीय नीति से महरूम है।