ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं का कमज़ोर ढांचा
झारखण्ड की स्थापना के 21 वर्ष बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की लचर स्थिति बनी हुई है। कई स्तर पर योजनाओं के संचालन के बाद भी स्थिति और आंकड़े निराशाजनक हैं। जनसंख्या के प्रतिफल में स्वास्थ्य और विकास के संकेतक अन्य राज्यों की तुलना में कमजोर हैं। स्वास्थ्य और विकास एक दूसरे के पूरक हैं। ऐसे में एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिये उसके नागरिकों को सेहतमंद होना जरूरी है। लेकिन आदिवासी बहुल झारखण्ड के अधिकतर गांवों में अब तक स्वास्थ्य सेवा पूरी तरह से नहीं पहुंची है।
दरअसल किसी भी क्षेत्र के बेहतर स्वास्थ्य के लिए कई आयाम होते हैं। केवल उन्नत अस्पताल ही बेहतर स्वास्थ्य सुविधा की निशानी नहीं होता है बल्कि अच्छी सड़क, गांव से मुख्य सड़क तक की कनेक्टिविटी, अस्पताल तक पहुंचने के लिए एम्बुलेंस वाहन और गांव से अस्पताल की दूरी भी महत्वपूर्ण कारक होते हैं। लेकिन झारखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में इन्हीं मुख्य बिंदुओं का अभाव देखा जाता है। जहाँ अच्छी सड़कें या फिर कनेक्टिविटी की कमी के कारण आज भी मरीज़ को खाट पर बांध कर सैकड़ों किमी दूर अस्पताल लाया जाता है। ऐसे में सबसे अधिक कठिनाई प्रसव पीड़िता को होती है, जिसे समय पर आपातकालीन चिकित्सा नहीं मिलने के कारण उसकी मौत तक हो जाती है।
झारखण्ड में दलितों और आदिवासियों की बहुत बड़ी आबादी निवास करती है। राज्य के दुमका जिला स्थित शिकारीपाड़ा प्रखण्ड के सीमानीजोर पंचायत, गांव चायपानी, नवपहाड़, हरिनसिंहा, मोहुलबना समेत कई गांव में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति बेहद कमजोर है। जहाँ सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य सुविधा नहीं पहुंची है। इन गांव में जेसुइट सोसायटी ऑफ़ इंडिया स्वास्थ्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य कर रही है। इस सम्बन्ध में संस्था के दुमका प्रभारी फादर मनु बेसरा ने बताया कि ग्रामीणों को स्वास्थ्य के क्षेत्र में हर स्तर पर लगातार मदद दी जा रही है। सामाजिक कार्यकर्ता हाबील मुर्मू ने बताया कि इन गांवों में पीने का शुद्ध पानी भी नहीं मिल रहा है, जो अमूमन आधारभूत सुविधा से वंचित हैं। कोरोना काल में भी राज्य की स्वास्थ्य सेवा इस क्षेत्र के ग्रामीणों को आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने में नाकाम रहा है। ऐसे में संस्था द्वारा द्वारा ग्रामीणों को मास्क, विटामिन सी का टैबलेट, पेरासिटामोल और हैंड वाश उपलब्ध कराये गए थे। जिसे ग्रामीणों को काफी लाभ मिला है।
इस सम्बन्ध में ग्रामीण सुकोल टुडू, एनिमेटर, मंटू मरांडी, उर्मिला मरांडी, दुलाड हाँसदा, प्रेमशीला सोरेन बताती हैं कि कोरोना काल में आदिवासी समाज परंपरागत होडोपैथी दवा का सेवन करते थे। इस दौरान आदिवासी पानी को गर्म करके पीते थे और घरों की साफ़ सफाई के साथ साथ सामाजिक दूरी का भी पूरी तरह से पालन करते थे। कोरोना के तीसरे लहर में ओमीक्रोन से बचने के लिए प्रकृति प्रेमी आदिवासी समाज ने भी कई नए तरीके अपनाए थे। ग्रामीण मताल मुर्मू, उर्मिला मरांडी, रूबी मरांडी, मकू टुडु, सिलवंती हाँसदा, चुडकी मरांडी ने कोरोना काल में एक दूसरे की मदद की। इस दौरान संस्था की ओर से ग्रामीणों को चार किलो आटा, आलू, सरसों तेल, सोयाबीन, दाल और हरी सब्जी भी उपलब्ध कराया गया।
ग्रामीण महिला गर्भावस्था में सरकारी सहायता से वंचित रही। सीमानीजोर पंचायत से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की दूरी लगभग 5 किमी है और सड़क भी बदहाल है। ऐसे में अस्पताल जाना संभव नहीं है। प्राथमिक उपचार की सुविधा भी गांव में नहीं है। लॉकडाउन के दौरान आदिवासी गांव की स्थिति अत्यंत नाजुक थी। सब कुछ बंद था, ऐसे समय में आदिवासी ग्रामीण परंपरागत चिकित्सा के सहारे अपना इलाज करते थे। इस सम्बन्ध में सिविल सर्जन डा ए के झा ने बताया कि कोरोना काल में जहाँ तक संभव हुआ सुदूर आदिवासी गांव में स्वास्थ्य सुविधा मुहैया करायी गई।
झारखण्ड में 28 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति और 12 प्रतिशत दलित समुदाय रहते हैं। यहाँ की लगभग 78 प्रतिशत जनसंख्या लगभग 32 हजार गांवों में निवास करती है जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव है। राज्य में 33 जनजातियां निवास करती है, जिनमें संताल, उरांव बहुलता में पाये जाते हैं। दलितों की आबादी चतरा, पलामू, गढ़वा और लातेहार जिला में अधिक है। इसके अलावा हजारीबाग, गिरिडीह, धनबाद, बोकारो और देवघर जिला में भी उनकी संख्या अधिक है। इन सभी ज़िलों में साक्षरता का प्रतिशत भी राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। इसके विपरीत राज्य में मातृ मृत्यु दर अधिक है। प्रसव के 42 दिन के भीतर समुचित इलाज नहीं मिलने के कारण महिला की मृत्यु हो जाती है। गर्भावस्था के दौरान महिलाएं प्रसव पूर्व आवश्यक जांचें नहीं कराती हैं। राज्य में होने वाले प्रसवों में लगभग 10 में से 9 अस्पताल की बजाए घरों में ही बच्चे को जन्म देती हैं। संस्थागत प्रसव अस्पताल में नहीं कराती हैं।
उचित पोषण की कमी के कारण अधिकतर दलित और आदिवासी महिलाएं एनीमिया से ग्रसित पायी जाती हैं। इसके कारण अधिकतर बच्चे भी कुपोषण के शिकार होते हैं। झारखण्ड में कुपोषण सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती रही है। राज्य में बच्चों में प्रतिरक्षा की स्थिति बहुत चिंताजनक है। ग्रामीण क्षेत्रों के आदिवासी बच्चे अधिकतर कुपोषण के शिकार होते हैं जिनका उपचार कुपोषण केंद्र में होता हैं। राज्य में कुपोषण से ग्रसित बच्चों में विकास, बुद्धि तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी पायी जाती हैं। गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों में खसरा, निमोनिया और श्वास लेने में परेशानी पायी जाती है। आंगनबाड़ी केन्द्रों में सरकार की ओर से व्यवस्था की गयी है, जहाँ उन्हें समुचित आहार दिया जाता है। कुपोषण एक गंभीर समस्या है, इसके दुष्परिणाम आगे जाकर दूर नहीं किये जा सकते हैं। झारखण्ड में बच्चों में एनीमिया की स्थिति चिंताजनक स्तर तक है। महिलाओं और बच्चों में पोषण की स्थिति ठीक नहीं है। महिलाओं में कुपोषण का एक मुख्य कारण खून की कमी का होना है। उनमें हीमोग्लोबिन की मात्रा कम पाई जाती है, इस अवस्था में शरीर के अंदर खून की अत्यधिक कमी हो जाती है।
गरीबी और आर्थिक स्थिति बेहद कमज़ोर होने के कारण गर्भवती महिलाएं न तो उचित पौष्टिक आहार ले पाती हैं और न ही वह समय समय पर प्रसव पूर्व जांच कराने में सक्षम होती हैं। घर में दो वक्त की रोटी की खातिर वह नवें महीने में भी खेतों में या मज़दूरी जैसे काम करती हैं और बासी भात खाकर अपना काम चलाती हैं। उनके पति दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, ऐसे में वह उन्हें पोषणयुक्त भोजन कहाँ से उपलब्ध करा पाएंगे? एक आंकड़ों के अनुसार झारखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में तीन चौथाई से अधिक प्रसव असुरक्षित होते हैं। इनमें अधिकतर अप्रशिक्षित और गैर मान्यता प्राप्त दाइयों की संख्या होती है। यहाँ महिलाओं का विवाह कम उम्र में होने से और जल्द माँ बन जाने से भी उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पडता है। राज्य में उच्च शिशु एवं बाल मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर का एक मुख्य कारण यह भी है।
राज्य में निरक्षर, निम्न व मध्यवर्गीय परिवारों की बहुतायत है। ग्रामीण क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है, वे कालाजार सहित कई संक्रामक रोगों से ग्रसित होते हैं। हालांकि राज्य के मुख्यमंत्री की ओर से स्वास्थ्य की दिशा में कई महत्वपूर्ण प्रयास किये जा रहे हैं। ऐसे में यह देखना है कि स्थिति में सुधार कब तक होता है। झारखण्ड जैसे आदिवासी बहुल राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था को सुधारना और उसे ग्रामीण क्षेत्रों तक सुगम बनाना एक बड़ी चुनौती है। जिसके लिए हर स्तर पर प्रयास किये जाने की ज़रूरत है। (चरखा फीचर)