
आदिवासी राजनीति की पिच पर भाजपा
झारखंड के इकलौते गैर आदिवासी पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास को उड़ीसा का राज्यपाल बनाया जाना झारखंड भाजपा में बड़ा फेर बदल तो है ही, यह झारखंड में भाजपा राजनीति के दूरदर्शी आयामों को भी तय करेगा। हालांकि रघुवर ने राज्यपाल बनाए जाने के फैसले का स्वागत किया है, कहा कि है उनके लिए इससे खुशी की बात कुछ और नहीं हो सकती, लेकिन राजनीति के खेल में उनके साथ खेला हो गया है। राज्यपाल जैसे सम्मानजनक पद का इस्तेमाल कई बार किसी को सक्रिय राजनीति से दूर रखने के लिए भी किया जाता है। रघुवर दास भी झारखंड की राजनीति से फिलहाल दूर कर दिए गए हैं, ताकि झारखंड की गतिविधियों में उनका दखल न के बराबर रहे।
रघुवर के राज्यपाल बनाए जाने को झारखंड भाजपा में हाल में हुए बड़े बदलावों से जोड़ कर देखे जाने की जरूरत है। भाजपा विधायक दल के नेता बाबूलाल मरांडी को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेवारी दी जाने के साथ ही यह साफ हो गया था कि पार्टी बाबूलाल के नेतृत्व में ही झारखंड में लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ेगी। निश्चित तौर पर राज्य में मुख्यमंत्री का चेहरा भी बाबूलाल ही होंगे। लेकिन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रघुवर दास का दखल व उनका प्रभाव बाबूलाल के अनुरूप नहीं होने पर नेतृत्व टकराव की स्थिति पैदा हो सकती थी। इसलिए रघुवर दास को ऐसी सम्मानजनक जिम्मेवारी दी गई, जिससे उनकी गरिमा भी बनी रहे और वे सक्रिय राजनीति से दूर भी रहें। शायद इसलिए भी प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें फोन कर व्यक्तिगत रूप से बधाई दी।
रघुवर दास के 5 सालों का कार्यकाल बेहद अच्छा रहा था। विकास कार्य से लेकर अन्य लगभग सभी मुद्दों पर सरकार ने बेहतर प्रदर्शन किया था। कोई बड़ा विवाद भी नहीं हुआ, जिस कारण सरकार ने बड़ी ही सुगमता से अपने पांच साल पूरे किए। लेकिन एंटी इन्कमबेंसी और कई अन्य कारणों से पार्टी दोबारा सरकार में नहीं आ पाई, जिसका ठीकरा स्वाभाविक तौर पर रघुवर दास के सिर पर फूटा। इससे भी बुरा यह हुआ कि रघुवर अपनी ही सीट नहीं बचा सके। उनके राजनीतिक करियर में यह सबसे बड़ी क्षति थी। अब भाजपा को किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी, जो न सिर्फ विपक्ष का चेहरा बन सके, बल्कि आगे की राजनीति में पार्टी का नेतृत्व भी कर सके। इसलिए परिणाम के ठीक बाद ही बाबूलाल भाजपा में शामिल हो गए। हालांकि यह उस समय ही साफ हो गया था कि बाबूलाल ही झारखंड भाजपा के सर्वे-सर्वा होंगे, लेकिन रघुवर दास को उड़ीसा भेजे जाने के बाद बाबूलाल को पार्टी में एकाधिकार मिल गया है।
भाजपा ने हाल में नई जिम्मेवारियों में जातीय समीकरण का ध्यान रखा है। आदिवासी नेता को प्रदेश अध्यक्ष के अलावा दलित नेता अमर बाउरी को नेता प्रतिपक्ष और ओबीसी नेता जेपी पटेल को मुख्य सचेतक बनाया गया है। गौर करने वाली बात है कि झारखंड में ओबीसी 46 प्रतिशत, दलित 12 प्रतिशत और आदिवासी लगभग 27 प्रतिशत हैं। इस हिसाब से प्रदेश में नेतृत्व की जिम्मेवारी में सभी वर्गों का खयाल रखा गया है। हालांकि यह पूरी तरह से तब स्पष्ट हो सकेगा, जब बाबूलाल कार्यसमिति का गठन करेंगे। देखना यह भी दिलचस्प होगा कि इस कार्यसमिति में रघुवर के करीबी कितने नेताओं को स्थान मिलता है, या किस गुट के कितनों को क्या जिम्मेदारी दी जाती है।
भाजपा के अंदरखाने भी इस फेर बदल से कुछ लोग अति प्रसन्न और कुछ नाराज हैं। जाहिर है, जिनकी नजदीकियां रघुवर से रही हैं, उन्हें पार्टी में साइडलाइन किए जाने का डर भी है। संभव है कि टिकट बंटवारे के दौरान यह नाराजगी और खुलकर सामने आए। लेकिन भाजपा के पास बाबूलाल पर पूर्ण भरोसे के अलावा दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था।
झारखंड से रघुवर की राजनीतिक विदाई की दूसरी सुई सरयू राय पर जाकर अटकती है। सर्व विदित है कि सरयू राय रघुवर दास के कारण पार्टी से अलग हुए थे, दोनों की व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता है। अब सरयू राय के लिए भाजपा में वापसी का रास्ता खुल चुका है। सरयू राय की ईमानदार छवि, गंभीर व्यक्तित्व और रणनीतिक कौशल की जरूरत भाजपा को तो है ही, सरयू को भी अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पार्टी के सहारे की जरूरत है। और फिर सरयू को भाजपा से कोई शिकायत भी नहीं रही है। हालांकि अब तक सरयू राय की तरफ से इसपर कुछ कहा नहीं गया है।
हाल के दिनों में झारखंड में भाजपा की राजनीति भी साफ हो गई है। भाजपा आदिवासियों को केंद्र में रखकर ही अपनी रणनीति बना रही है। किसी भी राजनीतिक रैली या कार्यक्रम में धरती आबा बिरसा मुंडा, सिदो-कानू, वीर बुधु भगत, जतरा टाना भगत, पोटो हो आदि का नाम लिए बगैर कोई संबोधन नहीं होता। केंद्र सरकार ने बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में घोषित कर दिया है। द्रौपदी मुर्मू को देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति बनाना भी इसी प्रयास में एक कदम है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि उत्तर के अन्य राज्यों की तरह झारखंड में हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा प्रभावी नहीं है। यहां आदिवासियों की बड़ी आबादी (जिनमें क्रिश्चन भी शामिल हैं) होने के कारण हिंदुत्व की राजनीति फेल हो जाती है। झारखंड में किसी भी पार्टी के लिए आदिवासी हितों की बात करना मजबूरी की तरह है। इसकी एक प्रमुख वजह है कि अन्य समुदायों की तरह आदिवासी वोट बिखरे नहीं हैं, उन्हें मुद्दों के आधार पर गोलबंद किया जा सकता है। यानी 27 प्रतिशत की आबादी को आप एक यूनिट मान सकते हैं। सत्ताधारी पार्टी झामुमो यह करने में सफल रही है, जिसका सुखद परिणाम हमारे सामने है। भाजपा यह बात जानती है और इसलिए आदिवासी चेहरा के तौर पर बाबूलाल को पुनर्स्थापित करने के लिए महँगे दाँव खेलने को तैयार है।
हालांकि झारखंड में आदिवासी केंद्रित राजनीति का पिच दरअसल हेमंत सोरेन का तैयार किया हुआ है, जिसपर भाजपा को मजबूरन आकर बैटिंग करनी पड़ रही है, जबकि आम तौर पर ऐसा होता नहीं है। हाल के दिनों में हेमंत सोरेन ने आदिवासी केंद्रित कई मुद्दों को हवा दी, जिसका भाजपा न तो खुलकर समर्थन कर पाई, न ही विरोध। मसलन सरना धर्म कोड और 1932 खतियान आधारित स्थानीय नीति। कथित तौर पर कई बार झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन की सरकार गिराने के भी कई प्रयास हुए हैं, जिसे हेमंत ने बड़ी सूझबूझ के साथ विफल कर दिया।
झारखंड भाजपा ने राज्य में अपनी राजनीति को लेकर भले ही नीयत साफ कर दी हो, लेकिन बाबूलाल के लिए यह सफर आसान नहीं होगा। 14 साल भाजपा से अलग होने और फिर वापस आने से उन्होंने जनता के बीच अपनी सांख गंवाई है। इसका प्रमाण राज्य में हुए 5 उपचुनाव हैं, जिनमें से 4 में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। रामगढ़ चूंकि आजसू का गढ़ रहा है, एनडीए की जीत संभव हो पाई। भले ही इन उपचुनावों के दौरान प्रदेश का नेतृत्व दीपक प्रकाश के हाथ था, लेकिन बाबूलाल भी पूरे दमखम के साथ लगे थे। जाहिर है, इस बीच हेमंत की छवि काफी बदली है, जिससे झामुमो को अप्रत्याशित मजबूती मिली है। और यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि हाल के परिदृष्य में हेमंत बाबूलाल से कहीं लोकप्रिय और बड़े कद के नेता बनकर उभरे हैं।
इधर बाबूलाल ने सरकार पर आरोप लगाते हुए जितने भी आंदोलन चलाए, उनमें से किसी को भी अंजाम तक पहुंचाने में सफल नहीं रहे, फिर चाहे वह भ्रष्टाचार के आरोप हों, बालू और पत्थर के अवैध खनन का मामला हो या फिर बोरोजगारी आदि मसले। सवाल तो यह भी है कि रघुवर दास के जाने से नाराज संगठन के एक धड़े को जोड़ कर बाबूलाल वह कौन सी रणनीति अपनाएंगे, जिससे वे भाजपा को सत्ता में वापस लाने में कामयाब हो सकें।
संभव है कि भाजपा झामुमो को एनडीए में शामिल होने के लिए दबाव बनाए, जिसकी भूमिका ईडी और अन्य एजेंसियों के माध्यम से बनाई जा रही है। लेकिन हेमंत जब आदिवासी नेतृत्व का बड़ा चेहरा बनकर राष्ट्रीय स्तर पर उभर रहे हैं, ऐसे में भाजपा के साथ जाकर अपना कद छोटा करना शायद उन्हें गंवारा न हो। लेकिन यह इसपर निर्भर करता है कि कांग्रेस किस हद तक झामुमो का साथ दे सकेगी। विधानसभा चुनाव के पहले संभव है कि राज्य में विभिन्न पार्टियों में और भी बदलाव देखने को मिले। बहरहाल सभी का फोकस 2024 के लोकसभा चुनाव पर है, जिसकी 14 में से 12 सीटें वर्तमान में एनडीए के पास है। बाबूलाल के नेतृत्व में भाजपा इन सभी सीटों को अपने पास रखना चाहेगी। यही भाजपा के नए नेतृत्व की पहली परीक्षा होगी।