सामयिक

दख़ल ज़रूरी है आह्लादिनी का

 

सृष्टि की उत्पत्ति से, सृजन की वेदिका से, अक्ष के केन्द्र से, धर्म के आचरण से, कर्म की प्रधानता से, कृष के आकर्षण से, सनातन के सत्य से, चेतन के अवचेतन से, जो ऊर्जा का ऊर्ध्वाधर प्रभाव पैदा होता है, वह निःसंदेह सृजन के दायित्वबोध के कारण संसार की आधी आबादी को समर्पित है। ब्रह्माण्ड  की समग्र अवधारणा के केन्द्र में जो भाव स्थायी रूप से विद्यमान है, उन भावों के पोषण, पल्लवन और प्रवर्तन के लिए सृष्टि की प्रथम सृजक को पूजनीया के साथ-साथ पालक और पोषक की भूमिका का निर्वहन भी करना चाहिए।

भगवत सत्ता द्वारा सृजन की परिकल्पना को संसार में साकार करने वाली आधी आबादी इस सनातन संसार की प्रथम सृजक है। पुरुष कितना भी चाह ले परंतु सृजन का पहला और मौलिक अधिकार संसार में किसी के पास है तो वह नारी है। आधी आबादी के वजूद का केन्द्र किसी धुरी के इर्द-गिर्द घूमता भी है तो वह धुरी सृजन की कहलाती है, उसी केंद्र के अक्षांश और देशांतर की भाँति स्त्रियाँ अपने सृजन से संसार को रोशन कर रही हैं। अपने अस्तित्व को चार दीवारी और चूल्हे-चौके के साथ अथवा उससे बाहर निकल कर समाज को जागरुक कर रही हैं। ऐसी अधिकारिणी और गंगनाचल का दख़ल ज़रूरी है समाज के प्रत्येक क्षेत्र में।

वर्तमान समय की परिस्थितियों और स्त्रीवादी आन्दोलन की जड़ों में जिस सशक्तिकरण का राग अलापा जा रहा है, उसके भी इतर स्त्रियाँ सशक्तता के साथ-साथ सक्षमता बोधक हैं। समान अधिकार, समान विचार, समान कार्य और व्यवहार तो मौलिक अधिकार हैं, जो उस आबादी को मिल भी रहे हैं पर अब भी निर्णायक भूमिका में आह्लादिनी का हस्तक्षेप अनिवार्य है। संसार के कई बड़े फ़ैसले आज भी पितृ सत्तात्मकता के अधीन हैं जबकि सुकोमल मन में वात्सल्य, ममत्व और करुण के साथ-साथ निर्णायक भाव भी रहता है जो उस आह्लादिनी को निर्णयों में पारंगत बनाता है।

वर्तमान दौर में शिक्षा से लेकर राजनीति और शास्त्र से लेकर शस्त्र तक की सभी विधाओं में महिलाएँ अव्वल हैं, कॉरपोरेट घरानों में भी महिलाओं की भागीदारी बहुत प्रभावी है। और भारत तो उस संस्कृति का पोषक रहा है, जिसने लोकमाता अहिल्या के शासन को स्वीकार कर उत्कृष्टता के नए आयामों का भी दर्शन किया है। शासन व्यवस्थाओं की उत्कृष्टता, कूटनीतिक कदम, स्वातंत्र्य समर में झाँसी की रानी के शौर्य का भी यह भारत साक्षी रहा है तो आज़ादी की लड़ाई के पूर्व मुगलों के दमन का प्रतिकार करने वाली क्षत्राणियों के शूर का भी समय गवाह रहा। भारत ने दुनिया को यह भी दिखलाया कि किस तरह आईसीआईसीआई की चंदा कोचर, रिलायंस फ़ाउंडेशन की नीता अंबानी, जीवा मी की ऋचा कौर तक कैसे महिलाओं के नेतृत्व में कॉरपोरेट ने प्रगति के सौपान चढ़े हैं।

इसके बावजूद भी कॉरपोरेट में अन्य देशों की तुलना में भारत में स्थिति थोड़ी कमज़ोर है। कुछ समय पूर्व में क्रेडिट सुइस नामक स्विस संगठन ने कॉरपोरेट जगत में महिलाओं की स्थिति पर एक विस्तृत रिपोर्ट जारी की थी। रिपोर्ट की मानें तो भारत में महिलाओं के लिए कॉरपोरेट की दुनिया अब भी बेहद सिमटी हुई है। दुनिया भर के 56 देशों की तीन हज़ार कंपनियों का सर्वेक्षण किया गया है, जिसमें भारत को 23वें पायदान पर रखा गया है। रिपोर्ट बताती है कि पिछले पाँच सालों में कंपनी की बोर्ड टीम में महिलाओं की भागीदारी में केवल 4.3 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है। वरिष्ठ प्रबंधन में महिलाओं की भागीदारी 2016 में महज़ 6.9 फ़ीसदी थी। लेकिन, थोड़े इज़ाफ़े के साथ अब वह 8.5 फ़ीसदी हो गई है।

राजनैतिक क्षेत्र में महिलाओं के दख़ल का प्रभाव अपेक्षाकृत कम ज़रूर है किन्तु कुछ एक राजनैतिक दलों की प्रत्याक्षी चयन प्रक्रिया में महिलाओं के लिए आरक्षित स्थान होने के कारण ऊर्जा की स्थिति निर्मित हो सकती है। इस क्षेत्र में महिलाओं को आगे आना चाहिए क्योंकि उनकी नेतृत्व और निर्णायक क्षमता का राष्ट्र को लाभ मिलता है। स्त्री नेतृत्व के मुद्दे पर हमारे पिछड़ेपन का एक आईना है। दूसरी ओर समाज और पारिवारिक स्तर पर भी महिलाओं की दयनीय स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है।

ऐसे दौर ने महिलाओं को अपने पंख ख़ुद विस्तारित करने का हौंसला दिया है। राजनैतिक रूप से विश्व की पहली महिला प्रधानमंत्री श्रीमाओ भंडारनायिका और देश की प्रथम प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी दोनों ही आधी आबादी की सक्षमता और नेतृत्त्व क्षमता का जीता जागता उदाहरण है। वर्तमान दौर में पत्रकारिता, सिनेमा, लेखन, उद्योग, कॉरपोरेट सहित राजनैतिक, प्रशासकीय और सुरक्षा मामलों में भी हस्तक्षेप जारी है।

हाल ही में रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध जारी है, दोनों ही देशों की राजनीतिक समझ और संवैधानिक ढाँचे को देखेंगे कि महिला नेतृत्वकर्ताओं की कमी के चलते रशिया से समझौता वादी पहल भी नहीं हो पाई, जबकि युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है। इसी के साथ, दूसरी ओर देखें तो राजधानी कीव की महिलाएँ पूरे यूक्रेन में सबसे सुंदर कही जाती हैं। यहाँ लड़कियों को अपनी पसंद से ज़िंदगी जीने की आज़ादी है। हालांकि, बात जब देश की आन-बान-शान की हो, तो वे मोर्चे पर भी डटे रहने में पीछे नहीं रहती हैं। इतिहास गवाह है कि यूरोप का सबसे बड़ा नारीवादी संगठन 1920 में आज के पश्चिमी यूक्रेन यानी गैलिसिया में ही बना था। इसका नाम था ‘यूक्रेनियन वुमंस यूनियन’। इसकी लीडर मिलेना रूडनिट्स्का थीं। बाद में भी यूक्रेन में फ़ेमिनिस्ट ओफेनजाइवा, यूक्रेनियन वुमंस यूनियन, फ़ेमेन जैसे बड़े संगठन रहे। इसमें फ़ेमेन जैसे संगठनों को अपनी लीडर्स की जान की परवाह करते हुए देश छोड़ना पड़ा।

कोयला खनन और लोहे के लिए मशहूर यूक्रेन में घर के काम से लेकर संसद तक महिलाएँ पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं। 2019 के यूक्रेनी संसदीय चुनाव में 87 महिलाएँ चुनकर संसद पहुँचीं। चुनाव में चुने गए कुल सांसदों में से करीब 50 फ़ीसदी महिलाएँ थीं।

यूक्रेन की जनसांख्यिकी के आँकड़ों के मुताबिक महिलाओं का देश की आबादी में हिस्सा 54 फ़ीसदी है। देश में 60 फ़ीसदी से ज़्यादा महिलाओं ने कॉलेज लेवल या इससे ज़्यादा पढ़ाई की है। आज जब पूरी दुनिया यह देख रही है कि यूक्रेनी महिलाओं के हाथों में हथियार हैं, वे रूस जैसे विशाल अट्टालिका से लड़ रही हैं तो इसके पीछे भी बड़ा कारण है। यूक्रेन 1993 से अपनी सेना में महिलाओं को नियुक्त कर रहा है। सेना में महिलाओं की भागीदारी 15 प्रतिशत है। सैन्य अधिकारियों के रूप में कुल 1100 महिलाएँ तैनात हैं। युद्ध के मैदान में 13000 से अधिक महिलाएँ मौजूद हैं। वर्तमान में, यूक्रेन की महिला सैनिक देश के अशांत पूर्वी हिस्से में रूसी समर्थित विद्रोहियों से मुक़ाबला कर रही हैं। रूस ने डोनबास के दोनों क्षेत्रों को एक अलग देश के रूप में मान्यता दी है और सेना को तैनात करने के आदेश भी दिए हैं। आज यूक्रेनी सेना सहित वहाँ की आम महिलाएँ भी आक्रामक तेवर में रूस का जवाब दे रही हैं।

विश्व के अन्य देशों में भी जब हम महिलाओं के दख़ल को देखेंगे तो यही पाएँगे कि महिलाओं के पास सुकोमल तन-मन के अतिरिक्त कई ऐसे गुणों की खदान हैं, जो उनके नेतृत्वकर्ता होने की पुष्टि करती हैं।

विश्व में तमाम तरह के आंदोलनों जैसे जलवायु परिवर्तन, असमानता, हिंसा, भ्रष्टाचार, आर्थिक संकट, राजनीतिक स्वतंत्रता, एलजीबीटीक्यूएआई अधिकार जैसे मुद्दे दुनिया के सभी हिस्सों में सिर उठा रहे हैं। इस दशक में बड़ी संख्य़ा में ऐसी महिलाएँ भी देखी गई हैं, जो विभिन्न मुद्दों पर अपनी चिंताओं का झंडा बुलंद करने के लिए सड़कों पर उतरीं। भारत में समानता के लिए महिलाओं की समानता की दीवार बनाने से लेकर चिली में सड़कों पर बलात्कार के ख़िलाफ़ नारे लगाने तक, सक्रियता की इस शैली ने तानाशाही, भ्रष्ट या पक्षपाती सरकारों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन और बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की स्थापना पर आपत्ति जैसे मुद्दे भी पुरज़ोर तरीके से उठाए हैं। गरिमा और सुरक्षा के सिर्फ़ महिला केंद्रित मुद्दों के लिए लड़ाई में बदलाव आया है और अब इसमें व्यापक नीतिगत मुद्दे भी शामिल हो गए हैं।

आंदोलनों की इस शैली की ही तरह, विश्व राजनीति के परिदृश्य में भी व्यापक बदलाव आया है, जिसमें बड़ी संख्या में महिलाएँ नेतृत्वकारी भूमिका में हैं। फ़िनलैंड में दुनिया की सबसे कम उम्र की महिला प्रधानमंत्री बनने और न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री के मातृत्व अवकाश लेने के साथ, राजनीति में दबदबा बढ़ाते हुए महिलाएँ प्रगतिशीलता की दिशा में आगे बढ़ी हैं। 1 जनवरी 2019 तक 50 देशों में 30 फ़ीसदी या अधिक महिला सांसद हैं। रवांडा, क्यूबा और बोलीविया शिखर पर हैं, जहाँ निचले सदन में क्रमशः 61.3 फ़ीसद, 53.2 फ़ीसद और 53.1 फ़ीसद सीटों पर महिला सांसद हैं। जबकि भारत में स्थिति थोड़ी गंभीर भी है।

राजनीति में महिलाओं की वैश्विक रैंकिंग में 191 देशों में भारत 149वें पायदान पर है। 16वीं लोकसभा में सिर्फ़ 11.3 फ़ीसद सांसद महिलाएँ थीं, जो 2019 में 17वीं लोकसभा में बढ़कर 14 फ़ीसद हो गईं। यह संख्या विश्व औसत से काफ़ी कम है। भारत अपने पड़ोसी देशों अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल में भी सबसे पीछे है। हालांकि, भारत में आंदोलनकारी के रूप में राजनीतिक क्षेत्र में आने वाली महिलाओं की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है, जो निजी जीवन में बड़ा बदलाव है, जिसे उन्होंने घरों तक सीमित कर दिया था।

हालांकि दुनिया में स्त्रियाँ केवल अपने अधिकारों के लिए ही नहीं लड़ रहीं बल्कि समाज की संरचना, एकरूपता, समानता और अन्याय के विरुद्ध भी उसी जोश से सड़कों पर आन्दोलन कर रही हैं और संसदों में अपना पक्ष भी रख रही हैं। अन्याय के ख़िलाफ़ दुनिया भर में महिलाओं के आंदोलन की क़ामयाबी 20वीं सदी में देखी जा सकती है, जब संयुक्त राष्ट्र ने उत्तरी अमेरिका और यूरोप में महिलाओं के प्रयासों की सराहना की, जो अपने अधिकारों की लड़ाई जीतने में कामयाब रही थीं। पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 1911 में मनाया गया था। लेकिन भारत में काफ़ी देर से 1975 में सरकार ने संयुक्त राष्ट्र के अनुरोध पर समानता को लेकर एक रिपोर्ट में महिलाओं की स्थिति का पता लगाया।

आज हालात इस तरह हो चुके हैं कि महिलाओं को अपना दख़ल समाज के प्रत्येक क्षेत्र में रखना चाहिए। पत्रकारिता, शिक्षा, चिकित्सा, लेखन, व्यवसाय, उद्योग, राजनीति, सामाजिक नेतृत्व इत्यादि सहित दुनिया के तमाम क्षेत्रों में महिलाओं के आने से, उनके दख़ल रखने से, उनके द्वारा नेतृत्व करने से समाज में बड़ा बदलाव सम्भव है। और समय इस बात का भी गवाह बनेगा कि महिलाओं के नेतृत्व में सफलता का सेहरा बंधना तय है। इसीलिए दख़ल ज़रूरी है आह्लादिनी का।

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अर्पण जैन 'अविचल'

लेखक पत्रकार, स्तंभकार एवं राजनैतिक विश्लेषक हैं एवं मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। सम्पर्क +919893877455, arpan455@gmail.com
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