अंतरराष्ट्रीय

अरुणाचल की आँख से भारत-भूटान मैत्री

 

राजनितिक और कुटनीतिक मुहवारेदानी से भिन्न, धरातल पर बहुत-सी चीजें होती हैं। ये चीजें पुरखों की परम्परा को नई पीढ़ी के हाँथों बाँधती हैं और भविष्य की चेतना को पुनर्नवा करती हैं। यह स्वाभाविक है, इरादतन अर्जित और विकसित की हुई। इस अर्थ में भारतीय विद्वता की प्रखर चेतना कहती है- ‘एकम् सद विप्रः बहुधा वदंति’। यह बात भारत-भूटान ‘लैंडस्केप’ को देखते हुए सही जान पड़ता है। बुद्ध की ज्ञान-मेखला फैली हुई है जिनकी समिधा में भारत और भूटान का द्विपक्षीय सम्बन्ध आकार लेता है। तवांग जिले के रास्ते भी आवाजाही का मार्ग हैं। तवांग के लुमला से भूटान के रशिगंग को जोड़ने की पहल हो रही है। इसी तरह ब्लेटिंग (नामशेरिंग) और बोंग्खार का क्षेत्र भारत और भूटान को जोड़ने की कड़ी है।

भारत और भूटान के मिलते-जुलते गुणसूत्र भौमिकी में भिन्न होते हुए भी सांस्कृतिकी और सामाजिकी का एक वृहद् संकुल रचते हैं और सामरिक महत्त्व के अपने रिश्ते को मैत्रीपूर्ण और प्रगाढ़ बनाते हैं। तवांग भूटान के साथ 160 किलोमीटर की सीमा साझा करता है। इस साझेदारी में लगाव और सुवास है जो आपसी सम्बन्धों को अधिक सजीव और सरस बनाते हैं। तवांग के ही रहने वाले हैं, दोरजी लोंपु। वह अध्यापक और मोंपा जनजाति के पहले युवा कवि हैं। वह कहते हैं- “तवांग और भूटान का साथ और मेल-जोल का सम्बन्ध सदियों से अच्छा रहा है। लोकश्रुति में कुछ बातें भिन्न भी सुनने को मिलती है। लोग कहते हैं कि बहुत पहले भूटान के राजा और तवांग के राजा के बीच युद्ध हुए। सक्तेंग और मेराक एक जगह है भूटान में। ऐसा कहा जाता है कि वह जगह पहले तवांग का हिस्सा था, बाद में वह उनके अधीन हो गया।” इस अधीनता का सहज स्वीकार मोंपा जनजाति के भलमनसाहत का प्रमाण है। यह मोंपावासियों के सत्य और सचाई के अनुकूल अपने को विनम्र बना लेने के कारण अधिक हुआ। भूटान अरुणाचलवासियों के इस सहृदयता का फायदा उठाते हुए एक समय गुलाम की तरह व्यवहार करने लगा था, जिसे बहुत बाद में तवांग के लोगों ने विरोध किया और अन्ततः अपने को पड़ोसी शासन की मनमानी से मुक्त किया। अब भारत और भूटान के मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध में अरुणाचल प्रदेश मुख्य कड़ी है। दोनों देशों के आपसी रिश्ते अच्छे और प्रगाढ़ बहुत है।

भारत और भूटान का रिश्ता प्रगाढ़ और विश्वसनीय बहुत है। इन दोनों राष्ट्रों के बीच सैन्य कार्रवाई नहीं हुए, यह सचाई है। इन दिनों विवाद को तूल देना राजनीति और मीडिया ने सायास सीखा है। चीन और भारत के बीच अन्तरराष्ट्रीय कूटनीति और राजनीति आधारित डोकलाम प्रसंग तथा विवाद का मीडिया ट्रायल उदहारण है। अरुणाचल की आँख से देखें, तो दोनों जगह आदिवासी जीवन-यथार्थ की सामान लय-ध्वनियाँ गूंजती हैं। श्रम और प्रकृति सौन्दर्य के गीत गए जाते हैं। विकास और प्रगति के समानधर्मा आचरण देखने को मिलते हैं। स्त्री और पुरुष के एक जैसे नैन-नक्श और पहनावे है। लोक-जीवन में शामिल आध्यात्मिक मूल्य और बुद्ध दर्शन एकसमान है। पर्यटन के क्षेत्र में भूटान की तरह अरुणाचल का तवांग भी लोकप्रिय है। हाल ही में अरुणाचल प्रदेश के माननीय मुख्यमन्त्री श्री पेमा खांडू ने कहा था कि हमें भूटान के पर्यटन नीति से सीखने की जरूरत है। भूटान पर्यटन के क्षेत्र में आगे है और वहाँ आने वाले पर्यटकों को भूटान के लोग ‘अतिथि देवो भव:’ वाले भाव से आदर देते हैं। इस मामले में तवांग का पर्यटन भी प्रसन्न करता है, लेकिन इसको और उत्कृष्ट बनाया जाना अभी शेष है।

अरुणाचल प्रदेश की लोक प्रचलित कहानियों और गीतों में तिब्बत और भूटान मुख्य रूप से आते हैं। उस ज़माने में आवाजाही के पैदल मार्ग थे। अरुणाचल के मूल निवासी बताते हैं कि आवाजाही के सम्पर्क पहले और बाद में भी रहे हैं। पुराने समय में यहाँ के लोग तिब्बत और भूटान जाते थे। स्थानीय आभूषण एवं नमक लेने के लिए। पहले जमाने में वस्तु-विनिमय प्रणाली अधिक प्रचलन में थे। उस समय नकदी रुपए-पैसे का प्रयोग खरीद-बिक्री में नहीं होते थे। कुरुंग कुमै और तवांग जिले के लोग तिब्बत-भूटान की ओर स्थानीय आभूषण और पोशाक लेने जाते थे और बदले में यहाँ के लोग पशु-पक्षी के चमड़े, सूखे हुए केकड़े ले कर जाते थे। तिब्बती और भूटानी आभूषण भी कई तरह के होते थे- सिक्का, माजी, तालु, तासांग, रेजा इत्यादि। यह बात यहाँ के लोगों में प्रचलित थी कि तिब्बत और भूटान के आभूषण बेशकीमती और शुद्ध अधिक होते हैं, जबकि उनकी अपेक्षा स्थानीय आभूषण उतने मूल्यवान और शुद्ध नहीं माने जाते थे। उन दिनों तिब्बत या भूटान पहुँचना आसान काम नहीं था। जाने से पहले बहुत-सी तैयारी करनी पड़ती थी।

अरुणाचली लोक साहित्य में प्रचलित पुरा-कथाएं वाचिक इतिहास का सच्चा कोठार हैं जिनमें भारत-भूटान सम्बन्धों की बहुस्तरीय स्मृतियाँ हैं। इनका महत्त्व दीर्घकालिक हैं जिस वाचिकता को आज की पीढ़ी को जानना चाहिए। एक लोक-प्रचलित कथा की मानें, तो तिब्बत-भूटान जाने से छह-सात महीने पूर्व ही इस यात्रा से जुड़े साजो-सामान इकट्ठा करने होते थे। चूँकि इधर से माँस के चमड़े, दाव आदि प्रायः ले जाया करते थे। इसलिए शिकार करने हेतु बहुत पहले से तैयारी करनी होती थी। शिकार में मुख्य रूप से भालू, बंदर, शेर आदि को मारकर उनके चमड़े को सुखाना पड़ता था। केकड़े को मारकर उन्हें बहुत दिन तक सुखाना जरूरी होता है। इसके लिए वे आग के ऊपर जहाँ लकड़ियों को रखने की जगह है जिसे न्यीशी भाषा में ‘शबकी’ कहते हैं। इस प्रक्रिया में विशेष सावधानी बरतनी होती है। केकड़े के हाथ-पाँव सुखाने में नहीं टूटना चाहिए, अन्यथा वे किसी काम का नहीं होते हैं। इसी तरह स्थानीय दाव भी अच्छे ढंग से बनाना होता था, ताकि बाहरी बाज़ार में उसकी अच्छी कीमत मिल सके। इस यात्रा की तैयारी के दौरान खाने-पीने का भी इंतजाम करना होता था। वे जाने से पहले अपने लिए रास्ते में खाने के लिए दो-तीन बस्ता खाना अपने साथ बाँध लेते थें। इस यात्रा में जगह-जगह झोपड़ियाँ भी तैयार करनी पड़ती थी, ताकि यात्रा में निकलें तो वहाँ आराम कर सकें। पहले के ज़माने को लेकर एक पुराना न्यीशी गीत मिलता है जो ‘आची आची’ शीर्षक से है। हाल के दिनों में यह गाना खूब लोकप्रिय हुआ है जिसे दारो मीना, माकी तालो और मिशिंग ने गाया है। इस गीत में यात्रा के दौरान क्या-क्या नहीं करना चाहिए, ऐसे परहेज़ बताएँ हैं। इसके बोल महत्त्वपूर्ण एवं लोकप्रिय है-‘‘आची-आची या/दिमीन-दिमीन पाई-पाई य़ा/दिमीन दिमीन दिमुम लगने आ/दिमीन-दिमीन कापा रीकु में/दिमीन दिमीन तेले न्योदी है/दिमीन दिमीन तेये रूमने तो/दिमीन-दिमीन नके आने गें/दिमीन-दिमीन रूमने आयींग दो/दिमीन-दिमीन आची आची या/दिमीन दिमीन भरमे याके नङ/दिमीन दिमीन भरमे यारे नङ/दिमीन-दिमीन निमुम कारी मा/दिमीन-दिमीन राहगे मावे का/दिमीन-दिमीन तोले न्दी गे/दिमीन-दिमीन वादे रन्मने ते/दिमीन-दिमीन आने कु गे/दिमीन-दिमीन रूङने कु ने/दिमीन-दिमीन भरमे भरमे नग।।/दिमीन-दिमीन आची आची या/दिमीन-दिमीन…’’

   यह बहुत सुंदर गीत है। यह पडोसी देशों की सुदूर यात्रा के दौरान गाया जाता है। इसमें एक पुरानी घटना का जिक्र है जिसका मुख्य संदेश यही है कि यात्रा के दौरान बेहद सतर्क एवं सावधान होना आवश्यक है यानी बहुत एहतियात बरतने की जरूरत होती है। ऐसी सावधानी नहीं रखने से कुछ भी अनहोनी घटित हो सकती है। दरअसल, पुराने ज़माने में ऐसा होता था कि पड़ोस के देशों में जाते वक्त बहुत शांतिपूर्ण ढंग से जाना पड़ता है। क्योंकि रास्ते दुर्गम और जंगल से घिरे हुए हैं। यात्रा के दौरान इधर-उधर की बातें नहीं करनी होती, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ये जगहें बुरी आत्माओं से घिरी हुई हैं। यह भी कहते सुना गया है कि पुराने ज़माने में अगर कोई यात्री ‘न्योदिक’ को देख लेता था तो उसके आँखों की रोशनी चली जाती है। वह यात्री अंधा हो जाता था। इसलिए वहाँ से गुजरने वाले यात्री किसी प्रकार की कोई लापरवाही नहीं बरतते थे।

   ऐसी कहानियाँ दो देशों की पारिस्थितिकी को भी बताते हैं जिन जगहों पर सामान्य जीवन भी बेहद कठिन और चुनौतीपूर्ण रहा है। अरुणाचल प्रदेश की ऐतिहासिक वाचिकता भारत-मैत्री सम्बन्ध का महत्त्व बतलाते हैं। राजनितिक और वैश्विक मनोभूमि पर जो कुछ घटित हो रहा है उस समकालीनता के परिमाप को विस्तार प्रदान करते हैं। ऐसे समय में जब विश्व समाज मूल्य बोध और मूल्य चेतना के संकट के दौर से गुजर रहा है, तब अरुणाचल की आँख से भारत-भूटान सम्बन्ध को जानना एक अलग अहसास से भर देता है। ये स्मृतियाँ पृथ्वी को ग्लोब बनने से रोकती हैं और कई तरह के संवेग और संवेद द्वारा भारतीय ज्ञान परम्परा और भारत-बोध को जिन्दा रखती हैं, अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं को ही नहीं परस्पर दिलों को भी जोड़ती हैं। कवि दोरजी लोम्पु के शब्दों में कहें, तो ‘भूटान और तवांग के बीच/रिश्ता काफी अच्छा है/यहाँ तक कि /खान-पान, पूजा-पाठ आदि/लगभग एक है/क्योंकि दोनों ही बुद्ध का देश हैं’

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राजीव रंजन प्रसाद

लेखक राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश के हिन्दी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +916909115086, rajeev.prasad@rgu.ac.in
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