अंतरराष्ट्रीय

भारत पाक सम्बन्धों में कश्मीर की गाँठ

 

1947 के विभाजन के बाद बने दो राष्ट्र भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर की गाँठ 77 साल बाद भी उलझी हुई है। जैसा कि कहा गया था कि सिरदर्द दूर करने के लिए सिर काट दिया जाए लेकिन वैसा करने के बाद भी सिरदर्द दूर नहीं हुआ। उपमहाद्वीप में तनावपूर्ण शान्ति और समय समय पर होने वाले युद्ध इसके प्रमाण हैं। 1947, 1965, 1971 और 1999 के युद्ध यह साबित करते हैं कि अगर द्विराष्ट्र का सिद्धांत एक हकीकत तो है लेकिन वह इस उपमहाद्वीप की समस्याओं का समाधान नहीं है। समाधान के लिए इतिहास के कुछ बड़े सूत्र और भविष्य की कुछ रोशनी ही मददगार हो सकते हैं। भारत के महान नेताओं जैसे कि महात्मा गाँधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू को यह उम्मीद थी कि यह दोनों देश लम्बे समय तक अलग अलग नहीं रह सकते क्योंकि इतिहास में कभी धर्म आधारित विभाजन हुआ नहीं। इसलिए देर सबेर उनके बीच वैसा ही रिश्ता बनेगा जैसा पहले था या फिर जैसा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप के तमाम देशों ने आपस में एक दूसरे से कायम किया।

इसी सिलसिले में महात्मा गाँधी के पोते और प्रसिद्ध लेखक राजमोहन गाँधी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक `कान्फ्लिक्ट एँड रिकानसिलेशन’ में कहते हैं कि इस उपमहाद्वीप के आसमान में विभाजन में मारे गये दस लाख लोगों की अतृप्त आत्माएँ मंडरा रही हैं। उपमहाद्वीप को तब तक शान्ति नहीं मिलेगी जब तक उन आत्माओं को शान्ति नहीं मिलेगी। लेकिन वास्तव में उपमहाद्वीप उन अतृप्त आत्माओं की शान्ति के लिए उपाय करने के बजाय महाशक्तियों के हाथ की कठपुतली या उनकी विदेश नीतियों का अखाड़ा बना हुआ है। भारत और पाकिस्तान उन्हीं महाशक्तियों के हाथ में खेलते हुए कश्मीर पर अपनी राजनीति करते हैं और अपने अपने क्षेत्रीय हितों को साधते हैं। इसी के साथ भारत और पाकिस्तान इस उपमहाद्वीप की दो महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ बन गयी हैं और अब दोनों देशों में एका होने की उम्मीद भी जाती रही है।

पाकिस्तान के विदेश मन्त्री रहे खुर्शीद महमूद कसूरी की मशहूर पुस्तक है- नाइदर ए हॉक नार एक डोव (एन इनसाइडर अकाउंट ऑफ पाकिस्तान्स फारेन रिलेशन्स इनक्लूडिंग डिटेल्स ऑफ द कश्मीर फ्रेमवर्क)। सन 2005 में आई यह पुस्तक बताती है कि किस तरह अफगानिस्तान में आतंकवाद का विरोध करने के कारण पाकिस्तान अब एक नये भूराजनीतिक धरातल पर भारत के साथ संवाद के लिए तैयार है। वह पिछली सरकारों, उनके विदेश विभागों और पाकिस्तान की सेना की भूमिका  का विस्तार से जिक्र करते हैं। इसी के साथ वे यह भी बताते हैं कि किस प्रकार दोनों देशों के सम्बन्धों में कश्मीर महत्त्वपूर्ण है और हर समझौते से पहले वह अवरोध बनकर अटक जाता है। मुम्बई में हुए इसी किताब के विमोचन के दौरान बवाल हुआ था।

आज जब कश्मीर में अनुच्छेद 370 समाप्त हो चुका है और उस क्षेत्र का राज्य का दर्जा भी खत्म किया जा चुका है तब पाकिस्तान अपनी राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक दिक्कतों में बुरी तरह से उलझा हुआ है। जबकि भारत में 2024 के चुनाव के बाद एक स्थिर सरकार, खिला हुआ लोकतन्त्र और बढ़ती अर्थव्यवस्था अपना काम कर रही है। भारत एक बड़ी भूराजनीतिक शक्ति बन चुका है और इस उपमहाद्वीप में अमेरिका और चीन के बीच सन्तुलन कायम करने की भूमिका निभा रहा है। बल्कि अमेरिका से भारत की बढ़ती राजनीतिक नजदीकी के कारण अब वह चीन की विस्तारवादी नीति को रोकने वाली एक ताकत बना है। जबकि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं के वापस जाने और वहाँ तालिबान के शासन के फिर से कायम होने के बाद अमेरिका के लिए पाकिस्तान का महत्त्व घटा है।

पाकिस्तान की चीन से नजदीकियाँ जहाँ भारत के साथ कोई संवाद कायम होने में अड़चन डालती हैं वहीं अमेरिका के लिए उसके महत्त्व को घटाती हैं। इन स्थितियों में भारत पाकिस्तान के साथ वार्ता जारी रखने में कोई रुचि नहीं दिखाता। वास्तव में भारत का मुद्दा सीमा पार से होने वाली आतंकवादी गतिविधियों को रोकने का है। भारत साफ शब्दों में कहता है कि जब तक आतंकी गतिविधियाँ नहीं रुकेंगी तब तक किसी वार्ता का कोई मतलब नहीं होगा।

पाकिस्तान कश्मीर के मुद्दे को सीने से चिपकाए बैठा है और जब मौका मिलता है तब उसे अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहता है। उसने 1972 में शिमला समझौता तो कर लिया था और यह तय किया था कि दोनों देश दोतरफा मसलों को मिल बैठकर सुलझाएँगे लेकिन वह उसकी भावना के मुताबिक काम नहीं करता। वह चाहता है कि इस बीच कोई तीसरा हस्तक्षेप करे जबकि भारत को यह गँवारा नहीं है। लेकिन अमेरिका का समर्थन घटने और खाड़ी के इस्लामी देशों में भारत का प्रभाव बढ़ने के कारण वह अब वैसा असर नहीं डाल पाता जैसा कि पहले डालता था।

वास्तव में भारत की मजबूत मोदी सरकार ने फरवरी 2019 में पुलवामा में सुरक्षा बलों के काफिले पर हुए आतंकी हमले और 40 सुरक्षा जवानों की मौत के बाद आक्रामक विदेश नीति अपनायी है। उसके बाद हुए सर्जिकल स्ट्राइक ने पाकिस्तान को बता दिया है कि अब कोई आतंकी हमला बर्दाश्त नहीं किया जाएगा बल्कि उसका मुँहतोड़ जवाब दिया जाएगा। भारत की इस नीति का उसकी सरकार को कश्मीर को छोड़कर देश के बाकी हिस्सों में व्यापक समर्थन मिला है। इसलिए भारत सरकार की प्राथमिकता उस समर्थन को बनाए रखने और पाकिस्तान को उपेक्षित किए रहने की है।

लेकिन भारत ने ऐसा सदैव नहीं किया है। भारत के मौजूदा प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने सन 2015 में सारे प्रोटोकाल तोड़कर अचानक अफगानिस्तान से लौटते हुए अपना विमान लाहौर में उतार दिया। उन्होंने 25 दिसम्बर 2015 को न सिर्फ वहाँ के प्रधानमन्त्री को उनके जन्मदिन पर बधाई दी बल्कि उनकी पोती की शादी में भी गये। उसके बाद पूरे उपमहाव्दीप में शान्ति और नये राजनय की लहर सी उठ गयी। आमतौर पर अनुदार समझे जाने वाले संघ परिवार के नेता भी भारत पाक महासंघ की चर्चा चलाने लगे। भारत पाक महासंघ का सपना समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने देखा था और उनके साथ इस सपने में जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय शामिल थे। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी  सत्ता में आने के बाद यह कह रहे थे कि हम दोनों देश सेना पर जितना खर्च करते हैं उसका बड़ा हिस्सा अगर लोगों की गरीबी मिटाने, उन्हें शिक्षा देने और उनके स्वास्थ्य पर खर्च करेंगे तो इस इलाके को आगे बढ़ने से दुनिया रोक नहीं सकती।

लेकिन वह उत्साह ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सका। उसका बड़ी वजह पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति रही है। नरेंद्र मोदी की यह पहल और उससे ज्यादा पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ की विशाल हृदयता सेना को पसन्द नहीं आयी। सेना के तत्कालीन प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा ने उन्हें घेर लिया और न सिर्फ उन्हें इस प्रकार के किसी राजनयिक पहल करने से रोक दिया बल्कि 2018 में उन्हें सत्ता से हटा ही दिया। इस बीच 2016 में उरी में सेना के शिविर पर आतंकी हमला करवा दिया। इस तरह पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति वहाँ के किसी राजनीतिज्ञ को भारत के साथ शान्ति स्थापित करने और समस्याओं के हल में बड़ी बाधा बनकर उपस्थित होती है।

यह स्थिति तब भी हुई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमन्त्री थे और बस लेकर लाहौर पहुँच गये थे। अपने राजनयिकों के मना करने के बावजूद वाजपेयी लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान पर भी गये। वही स्थल है जहाँ पर पहली बार 1940 में पाकिस्तान की माँग की गयी थी। उस वक्त भी पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ थे। वाजपेयी ने बड़ा दिल दिखाते हुए यहाँ तक कहा था कि आप सब कुछ बदल सकते हैं लेकिन अपना पड़ोसी नहीं बदल सकते। एक तरह से उन्होंने शान्ति का प्रस्ताव देने और सम्बन्धों को सुधारने की गम्भीर पहल की थी। उसके नाते वाजपेयी की छवि पाकिस्तान में बहुत अच्छी थी। एक हिन्दुत्ववादी नेता की पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश में ऐसी छवि होना अपने में आश्चर्य की बात मानी जाएगी। लेकिन वाजपेयी के प्रति ऐसा आदर उनकी शान्ति की पहल के नाते था। बल्कि वाजपेयी के प्रति सहानुभूति जताते हुए एक बार नवाज शरीफ के पिता ने कहा था कि पाकिस्तान ने उस अच्छे दिल वाले नेता के साथ अच्छा सुलूक नहीं किया।

वाजपेयी ने कश्मीर के लोगों से वार्ता शुरू करने के लिए भी बड़ा दिल दिखाया था और कहा था कि हम संविधान के दायरे में नहीं मानवता के दायरे में बात करने को इच्छुक हैं। उनकी यह बात हुर्रियत के लोगों को भी पसन्द आयी थी। लेकिन पाकिस्तानी सेना के तत्कालीन प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ को कश्मीर मुद्दे का समाधान और पाकिस्तान से अच्छे होते रिश्ते पसन्द नहीं आए। उन्होंने कारगिल में सेना की घुसपैठ करा दी और वाजपेयी का वह प्रयास बेकार गया। बाद में जब नवाज शरीफ की सरकार को हटाकर वही मुशर्रफ पाकिस्तान के स्वयंभू राष्ट्रपति बने तो उन्होंने भी दुनिया को दिखाने के लिए अटल विहारी वाजपेयी के साथ आगरा में शिखर वार्ता का आयोजन करवाया।

सन 2001 में हुई उस शिखर वार्ता के बारे में बहुत सारी कहानियाँ हैं। भारत की ओर से कहा जाता है कि परवेज मुशर्रफ कोई समझौता नहीं करना चाहते थे बल्कि अपने को शान्ति की पहल करने वाले एक स्टेट्समैन नेता के तौर पर दिखाना चाहते थे। वे न तो आतंकवाद को खत्म करने की बात कर रहे थे और न ही घुसपैठ को। इसलिए वह वार्ता टूट गयी। जबकि पाकिस्तानी मीडिया, परवेज मुशर्रफ और कुछ स्वतन्त्र सूत्रों का कहना है कि तत्कालीन गृहमन्त्री लालकृष्ण आडवाणी और संघ परिवार के अनुदार रवैए के कारण वार्ता टूट गयी वरना समझौते के प्रपत्र पर हस्ताक्षर होने ही वाले थे। कश्मीर के साथ लगी नियन्त्रण रेखा को अन्तरराष्ट्रीय सीमा मान लेने की तैयारी थी और अनाक्रमण संधि वगैरह भी होने वाली थी।

परवेज मुशर्रफ ने बाद में एक प्रेस कांफ्रेस में कहा कि उस समझौते को बिगाड़ने में एक कश्मीरी अधिकारी जो कि उस समय भारत के विदेश सचिव थे, विवेक काटजू की बड़ी भूमिका थी। उनकी कश्मीरी पंडित की भावना किसी भी समझौते में आड़े आ रही थी। जबकि एक कहानी यह भी है कि उसी साल यानी 2001 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव होने वाले थे और भाजपा उसे हर हाल में जीतना चाहती थी। इसलिए समझौता नहीं होने दिया। हालांकि भाजपा बाद में वह चुनाव हार गयी।

डॉ. मनमोहन सिंह दस साल तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे लेकिन वे वाजपेयी और नेहरू जैसे राजनीतिज्ञ नहीं थे। वे एक अर्थशास्त्री थे और चाहते थे कि दोनों देशों के बीच आर्थिक रिश्ता कायम हो। वह हो भी रहा था और इसमें ईरान गैस पाइप लाइन के साथ पहल कर रहा था। वह पाइप लाइन पाकिस्तान और अफगानिस्तान से होते हुए भारत आनी थी। अगर वैसा होता तो मध्यपूर्व और दक्षिण एशिया के बीच एक अलग ही सम्बन्ध कायम होता। लेकिन अमेरिकी दबाव में उसे टाल दिया गया और अमेरिका से परमाणु करार कर लिया गया। इस बीच 26 नवम्बर 2008 को मुम्बई पर आतंकी हमला हुआ और भारत पाकिस्तान के रिश्तों में गहरी खाई पैदा हो गयी। दो नाभिकीय देशों के बीच युद्ध जैसी स्थिति बन गयी थी। लेकिन दुनिया की ताकतों ने हस्तक्षेप करके उसे रुकवाया। बाद में डॉ. मनमोहन सिंह ने शर्म अल शेख में पाकिस्तान के साथ फिर विदेश सचिवों के स्तर की बात शुरू करने की पहल की। लेकिन बात बनी नहीं।

आज जरूरत है दोनों देशों के बीच ऐसी पहल की जो अमेरिका और चीन के दबाव से मुक्त हो। लेकिन यह तभी हो सकता है जब पाकिस्तानी सेना को या तो विश्वास में लिया जाए या फिर उसका हस्तक्षेप न हो। लाख टके का सवाल है कि क्या ऐसा सम्भव है? क्या दोनों देशों में ऐसे बड़े कद के राजनेता उभर सकते हैं? इसका उत्तर भविष्य के पास ही है लेकिन मानव इतिहास में कुछ भी असम्भव नहीं है। क्योंकि शान्ति का कोई मार्ग नहीं होता बल्कि शान्ति अपने आप में ही मार्ग है

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अरुण कुमार त्रिपाठी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तम्भकार हैं। सम्पर्क +919818801766, tripathiarunk@gmail.com
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