अंतरराष्ट्रीय

भारत-चीन सम्बन्ध: वर्तमान प्रश्न और सम्भावनाएं

 

पिछले कई दशकों में भारत और चीन के बीच सम्बन्धों में उतार-चढ़ाव रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तक ये दोनों देश अपने अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोणों को तीसरी दुनिया की सहभागिता से जोड़ कर साथ चला पाए, लेकिन सीमारेखा के विवाद के चलते हुए 1962 के युद्ध के साथ यह साथ बहुत जल्दी ख़त्म हो गया। तब से, दोनों देश तनाव और यथास्थिति के बीच झूलते रहे हैं। नई सदी की शुरुआत के साथ ऐसा प्रतीत हुआ कि दोनों देश अपने बढ़ते आर्थिक सम्बन्धों से लाभ उठाने के लिए अपने सीमा विवाद को अलग रखने के इच्छुक रहेंगे क्योंकि दोनों के लिए आर्थिक विकास प्राथमिक राष्ट्रीय उद्देश्य रहा है। परन्तु सीमा से जुड़ा संप्रभुता और सुरक्षा का मुद्दा उनके सहयोग के लक्ष्यों को कमजोर करता आया है। साथ ही दोनों की वैश्विक -क्षेत्रीय अगुवाई की महत्तवाकांक्षा सहयोग की सीमा को संकुचित करती है।

चीन अपनी विस्फोटक आर्थिक वृद्धि और आश्चर्यजनक सैन्य आधुनिकीकरण की बदौलत वैश्विक राजनीति में मुखर होता गया। भारत के साथ चीन के सम्बन्धों में उसके सैन्य आधुकीकरण के सिद्धान्त से भी दरार पड़ी क्योंकि चीन तिब्बती पठार पर सैन्य ढांचे का विस्तार ध्रुव गति से करता जा रहा है। प्रत्युत्तर में, 2010 के दशक में भारत ने सीमा के पास अपने परिवहन के बुनियादी ढांचे में सुधार करना शुरू कर दिया, जिससे चीन को सामरिक खतरा दिखने लगा। सीमा पर शांति में दरार आने लगी और चीन ने सीमा पर घुसपैठ शुरू कर दी। सीमा पर दोनों देशों की प्रतिस्पर्धी सुरक्षा नीतियों का चक्र 2020 में लद्दाख में एक साथ कई बिन्दुओं पर चीनी घुसपैठ के साथ चरम बिन्दू पर पहुंच गया, इससे भारतीय और चीनी-नियन्त्रित क्षेत्र को अलग करने वाली वास्तविक नियन्त्रण रेखा (एलएसी) पर एक नई यथास्थिति स्थापित हुई है। बीते चार सालों में दोनों देशों ने सैन्य वार्ताओं के कई दौर किये जिनमें धीमी प्रगति रही। अभी हाल में 12 सितम्बर 2024 को भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में चीनी विदेश मन्त्री वांग यी से सीमा विवाद पर बातचीत की। यह बातचीत ब्रिक्स राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के सम्मेलन से इतर हुई बैठक में हुई।भारत और चीन के विदेश मंत्रालयों के अनुसार दोनों पक्ष विवादित क्षेत्रों में सेनाओं को पीछे करने पर “तत्काल काम करने और अपने प्रयासों को दोगुना करने पर सहमत हुए” हैं।[i]

भारत और चीन की बदलती विदेश नीतियाँ: कारक और परस्पर अवधारणाएं

भारतीय विशेषज्ञ आम तौर पर इस बात से सहमत रहते हैं कि सोवियत संघ के पतन के बाद 1990 के दशक के अन्त तक गुटनिरपेक्षता कमजोर हो चुकी थी।[ii] चीन के विपरीत, भारत सचेत रूप से किसी नए आयोजन सिद्धान्त या भव्य रणनीति की तलाश नहीं कर रहा था बल्कि, उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के दौर से मजबूरन गुजर रहा था और अलग अलग सरकारों के दौरान भारतीय विदेश नीति में इससे उपजे नए आयाम जुड़े। उदाहरण के रूप में वाजपेयी सरकार ने परमाणु आयाम जोड़ा; मनमोहन सिंह की सरकार ने अमेरिकी आयाम जोड़ा; और वर्तमान मोदी सरकार ने बहु सम्मिलन (multi-alignment) का आयाम जोड़ा है। इन सभी नए आयामों में एक समान सूत्र है भारत की अपने अन्तर्राष्ट्रीय स्थान की खोज।

1990 से 2020 तक भारतीय सरकार ने सचेत रूप से दो ट्रैक पर काम किया: संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ रणनीतिक सम्बन्ध बनाना और चीन के साथ जुड़ाव के लिए तौर-तरीके विकसित करना।[iii], 1999 के बाद, भारतीय नेतृत्व ने एक संयुक्त प्रक्रिया के माध्यम से चीन के साथ सीमा के मुद्दे को सहज करने के लिए गम्भीर प्रयास किए। एलएसी को स्पष्ट करने और निष्पक्ष, उचित और पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान खोजने के लिए एक नया, राजनीतिक स्तर का विशेष प्रतिनिधि तंत्र स्थापित किया गया। असफलताओं के बावजूद, अलग अलग नेतृत्व की भारतीय सरकारें सीमा प्रश्न के समाधान के लिए राजनीतिक मापदण्डों और मार्गदर्शक सिद्धांतों पर समझौता तय करने का प्रयास करती आयी है।[iv] शांति और समृद्धि के लिए भारत-चीन रणनीतिक और सहकारी साझेदारी स्थापित करने की उच्च स्तर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भारत की ओर से निरन्तर परिलक्षित हुई है। इसका मतलब यह नहीं था कि भारत इस रिश्ते में चुनौतियों के प्रति अंधा था।[v]

वहीं सवाल यह बनता है कि क्या चीन की विदेश नीति को नया स्वरूप देने में भारत एक कारक था? 1990- 2010 के चीनी शोध सन्दर्भों में भारत को नियमित रूप से एक महत्वपूर्ण पड़ोसी और विकासशील देश बताया जाता है।।[vi] रूस -भारत-चीन त्रिपक्षीय और ब्रिक्स समूह (जिसमें ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हैं) में भारत और चीन जलवायु परिवर्तन के साथ अन्य वैश्विक मुद्दों पर एक साथ आगे बढ़ते दिखाई दिए।।[vii] फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि चीन की विदेश नीति की नई दिशा निर्धारण में भारत का शायद ही कोई संदर्भ हो। उस समय के सभी चीनी लेखों में संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और रूस को लगातार प्रमुख शक्तियों के रूप में संदर्भित किया गया है, और इस श्रेणी में कभी-कभी जापान और यूरोपीय संघ का भी उल्लेख मिलता है, लेकिन भारत का उल्लेख शायद ही कभी किया जाता है।[viii] जहाँ भारत के लिए चीन की आर्थिक उपलब्धि और सामरिक प्रगति एक बड़ा कारक रही, वहीं चीन के लिए भारत उसके विकास के लिए सहयोगी या त्वरित ख़तरा नहीं रहा।

चीन ने अपनी रणनीतिक विश्वसनीयता स्थापित करने के लिए अपने पड़ोस में आर्थिक लाभों के प्रसार की अवधारणा बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के रूप में प्रतिपादित की। यह नीति भी भारत के लिए एक चिन्ता के रूप में उभरी है। दक्षिण एशिया में भारत का पारंपरिक और ऐतिहासिक प्रभाव बीआरआई से प्रभावित होता है। साथ ही चूंकि चीन ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) को एक प्रमुख परियोजना घोषित किया है, तो भारत के लिए बीआरआई के साथ जुड़ना मुश्किल है। दूसरे, हिन्द-प्रशांत (एशिया-पैसिफ़िक) क्षेत्र में अमेरिकी नीति को लेकर चीन की चिन्ता का प्रभाव भारत-चीन सम्बन्धों पर पड़ने लगा है। यहाँ चीनी दृष्टिकोण में विरोधाभास साफ़ दिखता है क्योंकि एक ओर तो वह चाहता है कि भारत को एशिया-पैसिफ़िक में चीनी चिन्ताओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, जबकि वह खुद भारत की चिन्ताओं के प्रति उदासीन रहा है।

आपस में अविश्वास की भावना भी प्रबल हुई है। भारत में यह भावना है कि चीन वैश्विक या क्षेत्रीय मामलों पर भारत को उचित महत्व देने को तैयार नहीं है और चीन की कुछ व्यापक विदेश नीति पहल – जैसे कि बेल्ट एंड रोड पहल या हिन्द महासागर में आगे बढ़ना – ने सीधे तौर पर भारत के हितों को प्रभावित किया है। एक चीनी विश्लेषक ने कहा: “हाल के वर्षों में, चीन-भारत सम्बन्धों से सम्बन्धित लगभग सभी विशिष्ट मुद्दों पर, चीन ने अच्छे इरादों के साथ सद्भावना दिखाई है, लेकिन बदले में उसे उतना अच्छा विश्वास नहीं मिला।”[ix] चीनी रणनीतिक समुदाय का मानना है कि मोदी सरकार ने भारतीय विदेश नीति के पारंपरिक अलगाववाद को त्याग दिया है। अमेरिका के साथ रणनीतिक समन्वय बढ़ रहा है और “मोदी का उद्देश्य भारत को एक अग्रणी शक्ति के रूप में पेश करना है, न कि केवल संतुलन बनाने वाली शक्ति के रूप में, भले ही इससे चीन के हितों को नुकसान हो और भारत और चीन के बीच रणनीतिक अविश्वास बढे”[x] चीनी विद्वानों का मानना है कि भारत सभी वैश्विक संकेतकों में चीन से काफी पीछे है और सामाजिक विभाजन, खराब बुनियादी ढाँचा और धीमी आर्थिक वृद्धि जैसी कठिनाईओं से घिरा हुआ है।[xi] शी के नेतृत्व में चीन के मौजूदा प्रशासन के बारे में भारत में धारणाएं भी काफी बदल गई हैं।

यदि भारत “विश्व मंच के केंद्र के करीब जाने” के चीन के राष्ट्रीय उद्देश्य को स्वीकार नहीं करता है, तो शी का चीन भारत की चिन्ताओं को कुचलने के लिए अधिक इच्छुक दिखाई देता है। इससे पता चलता है कि दोनों पक्षों द्वारा विदेश नीतियों में परिवर्तन के दौरान आपसी धारणा में सम्भावित बेमेल रहने वाला है। साथ ही यह भी दृष्ट्य है कि भारत की विदेश नीति की व्यापक दिशा निर्धारण में चीन एक महत्वपूर्ण कारक रहा है परन्तु चीन ने भारत को सीमा विवाद से ऊपर उठ कर नहीं देखा है और न ही उसके बढ़ते वैश्विक प्रभाव को स्वीकारा है।

समय के साथ आपसी अविश्वास बढ़ने से और राष्ट्रीय भूमिका और पहचान के बेमेल होने के कारण भारत-चीन सम्बन्धों में दरार बढ़ती गयी है और एक नया बाहरी तत्व और उसका प्रभाव गहराता जा रहा है। जब भारत चीन द्वारा उपेक्षित महसूस हुआ तो संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत का साथ दिया। जहाँ भारत ने अमेरिकी साझेदारी को अपनी बहु-सम्मिलन (मल्टी अलाइन्मन्ट) रणनीति को प्रभावी बनाने के लिए एक रणनीतिक कदम माना, वहीं चीन ने इसे चीन-अमेरिका प्रतिद्वंद्विता के संकीर्ण चश्मे से देखा। इसलिए यह प्रश्न उठता है कि क्या संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते सम्बन्धों ने भारत चीन सम्बन्धों में अविश्वास और संदेह पैदा किया है?

भारतचीनअमेरिका त्रिकोण

जहाँ चीन इंडो-पैसिफिक में अमेरिकी आधिपत्य को चुनौती देने की तैयारी कर रहा है वहीं भारत घरेलू और रणनीतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपनी समुद्री नीति को फिर से परिभाषित कर रहा है। इसलिए इंडो-पैसिफिक में अमेरिका की उपस्थिति भारत चीन सम्बन्धों की एक महत्वपूर्ण और जटिल कड़ी है।

जब से अमेरिकी विदेश मन्त्री जॉन फोस्टर डलेस ने सैन फ्रांसिस्को में एक सम्मेलन में कहा कि संयुक्त राज्य अमेरिका परिवर्तन लाने के लिए “शांतिपूर्ण विकास” की नीति लागू करेगा, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने हमेशा संयुक्त राज्य अमेरिका को एक खतरा माना है। [xii] पूर्व चीनी नेता बो यिबो ने डलेस के भाषण पर माओ की प्रतिक्रिया को याद करते हुए कहा, “माओ ने कहा था कि अमेरिका हमें तोड़ना और बदलना चाहता है। …दूसरे शब्दों में यह अपना क्रम बनाए रखना चाहता है और हमारी व्यवस्था को बदलना चाहता है। यह शांतिपूर्ण विकास द्वारा हमें भ्रष्ट करना चाहता है।”[xiii] 2008 भारत-अमेरिका-चीन त्रिकोण के लिए एक महत्वपूर्ण वर्ष था। एक चीनी विद्वान के अनुसार, यह वह वर्ष था जब चीन अमेरिका के लिए एक रणनीतिक प्रतिस्पर्धी बन गया, जबकि भारत एक प्रतिद्वंद्वी बन गया।

चीनी रणनीतिक समुदाय का मानना है कि “मलक्का दुविधा” (हिन्द महासागर और दक्षिण चीन सागर के बीच संकीर्ण जलडमरुमध्य मलक्का से जुड़ी चीन कि चिन्ता) के संदर्भ में भारत चीन के शिपिंग और वाणिज्य के लिए खतरा है। भारत संयुक्त राज्य अमेरिका को क्षेत्रीय संतुलन को अपने पक्ष में झुकाने में मदद करता है। ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच चतुर्भुज सुरक्षा वार्ता के पुनर्जीवन ने चीनी रणनीतिक विशेषज्ञों के बीच यह भावना बढ़ा दी है।[xiv] चीन के दृष्टिकोण से, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल के दौरान चीन-अमेरिका सम्बन्धों में संरचनात्मक विरोधाभास बढ़ गए, जबकि आर्थिक सहयोग, जो अमेरिका-चीन सम्बन्धों को स्थिर करने वाला आधार था, वाशिंगटन द्वारा व्यापार युद्ध शुरू करने के बाद कमजोर हो गया। ट्रम्प प्रशासन के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत के साथ रक्षा सम्बन्धों में वृद्धि की है उदाहरण के लिए- 2 + 2 मंत्रिस्तरीय सामरिक वार्ता, रणनीतिक सम्बन्धों के लिए मूलभूत समझौते (जैसे लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट), और दोनों नौसेनाओं की बढ़ती अन्तरसंचालनीयता क्षमता।

इंडो-पैसिफिक (हिन्द महासागर तथा पश्चिमी और मध्य प्रशान्त महासागर के बीच का लगभग 40 देशों को समेटता एक विशाल भौगोलिक क्षेत्र) एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ अमेरिका के साथ जुड़ाव 2017 से भारत चीन की विदेश नीति निर्माण में एक कारक बन रहा है।भारत-अमेरिका के बीच नजदीकियां बढ़ने से इंडो-पैसिफिक में चीन एक समुद्री शक्ति बनने को उत्सुक है जो पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा आवश्यकताओं को पूरा कर सके और मलक्का जलडमरूमध्य से परे रणनीतिक संतुलन को फिर से परिभाषित कर पाए। चीनी विद्वानों का मानना है कि यदि भारत यह मान ले कि दोनों देश इस क्षेत्र में समान हितों और जिम्मेदारियों को साझा करते हैं, और यदि वह तीसरे पक्ष के कारण उत्पन्न बाधाओं को हटा देता है, तो चीन मौजूदा द्विपक्षीय समस्याओं के बावजूद भारत को एक रणनीतिक साझेदार के रूप में देखने को तैयार है। [xv]

दूसरी ओर यदि भारत का पक्ष देखा जाए तो उत्तरी हिन्द महासागर को आम तौर पर भारतीय प्रभाव का क्षेत्र माना जाता है। भारत के दृष्टिकोण से हिन्द महासागर कई कारणों से भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गया है और 1998 से सरकारों ने समुद्र पर ध्यान केन्द्रित करके भारत के रणनीतिक हितों को फिर से परिभाषित करना शुरू कर दिया है। वाजपेयी की सरकार ने उन्नत प्रौद्योगिकी पोत (परमाणु पनडुब्बी) कार्यक्रम और अंडमान और निकोबार कमान की स्थापना की शुरुआत की थी। सिंह सरकार ने परमाणु पनडुब्बी कार्यक्रम में तेजी लाकर और स्वदेशी विमानवाहक पोत, आईएनएस विक्रांत बनाने का निर्णय लेकर तात्कालिकता की भावना पैदा की। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हिन्द महासागर में चीन की उभरती उपस्थिति इसका एक महत्वपूर्ण कारक थी। 1990 के दशक के उत्तरार्ध से, भारतीय टिप्पणीकारों और विशेषज्ञों ने सैन्य लेखों सहित चीनी लेखों में हिन्द महासागर के संदर्भों की बढ़ती संख्या देखी थी। 1990 के दशक के अन्त में रूसी कुज़नेत्सोव श्रेणी के विमानवाहक पोत की खरीद ने भी भारतीय विशेषज्ञों का ध्यान आकर्षित किया।[xvi] भारत की आर्थिक और ऊर्जा सुरक्षा, कट्टरवाद और आतंकवाद, और नशीले पदार्थों और हथियारों की तस्करी, साथ ही द्वीप क्षेत्रों के विकास, विशेष आर्थिक क्षेत्र के संरक्षण और तटीय कनेक्टिविटी के निर्माण से सम्बन्धित घरेलू आवश्यकताओं जैसे महत्वपूर्ण बिन्दू एशिया-पैसिफिक क्षेत्र से जुड़े हैं।

जब क्वाड का विचार पहली बार 2007 में सामने आया, तो बीजिंग की कठोर प्रतिक्रिया ने संकेत दिया कि चीन द्वारा इसका आक्रामक उत्तर दिया जाएगा।[xvii] हालंकि इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि 2003 में तत्कालीन राष्ट्रपति हू जिंताओ द्वारा चीन की “मलक्का दुविधा” पारिभाषित करने के बाद, चीन ने अपनी नौसैनिक शक्ति विकसित करने पर ध्यान केन्द्रित किया था। 2010 के बाद चीनी नौसैनिक योजनाओं का कार्यान्वयन – जैसे कि दक्षिण चीन सागर में नया दावा (जिसे नाइन-डैश लाइन कहा जाता है); समुद्री अधिकारों और हितों पर एक नई पार्टी समिति; विश्व स्तर पर सबसे बड़ी युद्धपोत-निर्माण गतिविधियाँ; दक्षिण चीन सागर का सैन्यीकरण; महाद्वीपीय शेल्फ और तटीय राज्यों के विशेष आर्थिक क्षेत्रों सहित हिन्द महासागर में नागरिक समुद्र विज्ञान सर्वेक्षण के लिए व्यवस्थित प्रयास; और जिबूती में इसका पहला विदेशी सैन्य अड्डा- सुझाव देता है कि इसकी योजनाएँ क्वाड से काफी पहले ही उन्नत चरण में थीं।[xviii] ऐसा लगता नहीं है कि बीजिंग का नौसैनिक विस्तार क्वाड द्वारा उत्पन्न खतरे का परिणाम था। एशिया-प्रशांत और हिन्द महासागर के लिए भारत-अमेरिकी संयुक्त रणनीतिक विजन, और लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट से शुरू होने वाले सक्षम समझौतों पर हस्ताक्षर, चीन के नौसैनिक विस्तार और क्षेत्र में उसके मुखर रुख के बाद हुआ। जबकि भारत ने कभी भी चीन की रणनीतिक आवश्यकताओं से इनकार नहीं किया है, चीनी रणनीतिकार संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ समुद्री सहयोग के भारत के इरादों पर सवाल उठाते रहते हैं। चीन को अमेरिका के साथ तीन दशकों के सहयोग से महत्वपूर्ण लाभ मिला है। यह दावा करते हुए कि भारत-यू.एस. सहयोग का उद्देश्य केवल चीन के उत्थान को रोकना है, चीन द्वारा भ्रम फ़ैलाने की रणनीति है।

निष्कर्ष

ऐसा लगता है कि दोनों देश द्विपक्षीय सम्बन्धों के चौहत्तरवें वर्ष में एक चौराहे पर खड़े हैं। वे चार रास्तों में से एक पर जा सकते हैं: सशस्त्र टकराव की ओर बढ़ना; सशस्त्र सहअस्तित्व; सहयोग और प्रतिद्वंद्विता के साथ सह-अस्तित्व; और साझेदारी. फिलहाल साझेदारी की सम्भावना नहीं दिख रही है। सशस्त्र टकराव एक मूर्खतापूर्ण कदम होगा क्योंकि दोनों ही देशों द्वारा युद्ध में सम्पूर्ण सफलता एक दिवास्वप्न है। जो चीज़ सशस्त्र सह-अस्तित्व को सहयोग और प्रतिद्वंद्विता वाले सह-अस्तित्व से अलग करती है, वह है विश्वास। वर्तमान में यह मौजूद नहीं है। ट्रस्ट को ईंट दर ईंट बनाकर खड़ा करना होगा, जिसकी शुरुआत पूर्वी लद्दाख में एलएसी से होगी। चीन को ऐसे किसी भी विचार को किनारे रखने के लिए तैयार रहना चाहिए कि सीमा प्रश्न को बड़े द्विपक्षीय सम्बन्धों से अलग करके विश्वास बहाल किया जा सकता है। आपसी सम्बन्धों को बेहतर करने के लिए सीमा समस्या का निवारण एक मूलभूत आवश्यकता है।

यदि निकट भविष्य में पूर्वी लद्दाख में स्थिति का पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान संभव है, तो दोनों पक्षों के सर्वोच्च नेतृत्व को फिर से पहल करनी चाहिए। दोनों पक्षों को पूर्वी लद्दाख में सैन्य वृद्धि को समान गम्भीरता से लेना चाहिए।

पूर्वी लद्दाख में वर्तमान गतिरोध के समाधान के बाद भी, दोनों पक्ष एक नई सामान्य स्थिति के रूप में लम्बे समय तक सशस्त्र सह-अस्तित्व में रह सकते हैं। चूंकि दोनों पक्षों की सेनाएं अपेक्षाकृत संतुलित होने की सम्भावना है, इसलिए दोनों के लिए 1993 के बाद के समझौतों और समझ पर लौटना और उनमें सुधार करना फायदेमंद होगा। एलएसी को स्पष्ट करना इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण कदम है। चीन को भारत के साथ व्यापार घाटे को हल करने पर काम करने की आवश्यकता होगी। दोनों अर्थव्यवस्थाओं के आकार को देखते हुए, एक संतुलित व्यापार और आर्थिक सम्बन्ध भविष्य के सम्बन्धों के लिए एक ठोस आधार तैयार कर सकता है।

खुले संवाद के माध्यम से एक-दूसरे की क्षेत्रीय पहलों की बेहतर समझ विश्वास कायम करने के लिए महत्वपूर्ण है। “इंडो-पैसिफिक” की अवधारणा भारत के लिए उतनी ही आवश्यक है जितना कि चीन के लिए बीआरआई। विश्वास निर्माण का एक हिस्सा प्रमुख क्षेत्रों-दक्षिण एशिया और उत्तरी हिन्द महासागर और पूर्वी एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में एक-दूसरे के इरादों पर खुली चर्चा के साथ-साथ पश्चिमी प्रशांत और उत्तरी हिन्द महासागर में एक-दूसरे की विशेष स्थिति के प्रति सम्मान होना चाहिए।

दोनों पक्षों को प्रमुख साझेदारियों (चीन का पाकिस्तान के साथ और भारत का संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ) में दूसरे पक्ष के वैध हितों को समायोजित करने की आवश्यकता होगी। दोनों देश एक चौराहे पर खड़े हैं और सहयोग और प्रतिस्पर्धा के सह-अस्तित्व की राह पर चलने का यह आखिरी मौका हो सकता है। यदि नहीं, तो शत्रुतापूर्ण प्रतिद्वंद्विता का एक नया चरण शुरू हो सकता है।

सन्दर्भ सूची

[i] द हिन्दू (2024). “वांग यी, अजीत डोभाल द्विपक्षीय संबंधों में सुधार के लिए काम करने पर सहमत: चीनी विदेश मंत्रालय” 13 सितम्बर. URL: https://www.thehindu.com/news/national/wang-yi-ajit-doval-agree-to-work-for-improvement-of-bilateral-ties-chinese-foreign -ministry/article68637607.ece

[ii] सुनील खिलनानी और अन्य (2016).  गुटनिरपेक्षता 2.0: इक्कीसवीं सदी में भारत के लिए एक विदेश और रणनीतिक नीति, नई दिल्ली: नीति अनुसंधान केंद्र, :8

[iii] सी. राजा मोहन, (2015). “1990 के बाद की विदेश नीति: वृद्धिशील अनुकूलन के माध्यम से परिवर्तन”, डेविड एम. मेलोन, सी. राजा मोहन और श्रीनाथ राघवन, (संपादक), ऑक्सफोर्ड हैंडबुक ऑफ इंडियन फॉरेन पॉलिसी  (ऑक्सफ़ोर्ड: ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस): 140-41.

[iv]  विदेश मंत्रालय, भारत सरकार (2011). “भारत-चीन सीमा प्रश्न के समाधान के लिए राजनीतिक मापदंडों और मार्गदर्शक सिद्धांतों पर भारत गणराज्य की सरकार और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की सरकार के बीच समझौता”, 11 अप्रैल, URL:https://mea.gov.in/bilateraldocuments.htm?dtl/6534/Agreement+between+the+Government+of+the+Republic+of+India+and+the+Government+of+the+Peoples+Republic+of+China+on+the+Political+Parameters+and+Guiding+Principles+for+the+Settlement+of+the+IndiaChina+Boundary+Question.

[v] शिवशंकर मेनन (2017). चॉइस: इनसाइड मेकिंग ऑफ इंडियन फॉरेन पॉलिसी, नई दिल्ली: पेंगुइन: 27.

[vi] छंग रुइज़ियांग, (2010). “चीन-भारत संबंध: विकास और संभावनाओं का पाठ्यक्रम,” चाइना  इंटरनेशनल स्टडीज़, 25: 152-170.

[vii] ज़ू जियान (2018) “चीन की प्रमुख देश कूटनीति और चीन-भारत संबंध,” चाइना  इंटरनेशनल स्टडीज़  70, संख्या। 37: 37-52.

[viii] सीआईसीआर रिसर्च ग्रुप (2019). “चाइनीज़ मेजर-कंट्री डिप्लोमेसी,” चाइना इंटरनेशनल स्टडीज़, 30 संख्या 2:34-36; लियू जियानफेई (2017). “चीनी विशेषताओं के साथ प्रमुख देश की कूटनीति समय के रुझान को दर्शाती है,” चीन अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन 64 : 28-44.

[ix] रोंग यिंग (2018). “मोदी सिद्धांत और भारत-चीन संबंधों का भविष्य,” चाइना इंटरनेशनल रिलेशन्स,  संख्या 26: 26-43

[x] रोंग यिंग (2018).

[xi] चुन्हाओ, “मोदी के दूसरे कार्यकाल में भारत की विदेश नीति का पुनः अभिमुखीकरण,” 17-130; शिशेंग और जुए, “भारत की कठिन विदेश नीति का व्यवहारिक तर्क,” 41-51; यिंग, “मोदी सिद्धांत और भारत-चीन संबंधों का भविष्य,” 26-43।

[xii] कियांग झाई (2009). “1959: प्रिवेंटिंग पीसफुल इवोल्यूशन,” चाइना हेरिटेज क्वार्टरली, जून, URL: http://www.chinaheritagequality.org/features.php?searchterm=018_1959preventingpeace.inc&issue=018

[xiii] बो यिबो (1991). “संस्मरण, चीनी वित्त मंत्री बो यिबो, ‘शांतिपूर्ण विकास’ को रोकने पर अंश,” इतिहास और सार्वजनिक नीति कार्यक्रम डिजिटल पुरालेख, कई महत्वपूर्ण राजनीतिक निर्णयों और उनके कार्यान्वयन की यादों से अनुवादित (बीजिंग: झोंगगोंग झोंगयांग डांगक्सियाओ चुबांशे), URL: https://digitalarchive.wilsoncenter.org/document/117029

[xiv] झांग जी (2019). “चतुर्भुज सुरक्षा वार्ता और एशिया-प्रशांत व्यवस्था का पुनर्निर्माण”, इंटरनेशनल स्टडीज़, अंक 1:55-73.

[xv] मिंगहाओ झाओ (2019).  “क्या नया शीत युद्ध अपरिहार्य है? यूएस-चीन रणनीतिक प्रतिस्पर्धा पर चीनी परिप्रेक्ष्य,” चाइनीज़ जर्नल ऑफ़ इंटरनेशनल पॉलिटिक्स 12, संख्या 3: 1-24.

[xvi] सी. राजा मोहन, समुद्र मंथन, (2012).  इंडोपेसिफिक में चीन-भारतीय प्रतिद्वंद्विता, वाशिंगटन, डीसी: कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस: 64.

[xvii] तन्वी मदान (2017). “द राइज़, फ़ॉल एंड रीबर्थ ऑफ़ क्वाड,” वॉर ऑन द रॉक्स, 16 नवंबर, URL: https://warontherocks.com/2017/11/rise-fall-rebirth-quad/; Kevin Rudd, “The Convenient Re-Writing of the History of the ‘Quad’,” Nikkei Asia, May 26, 2019, https://asia.nikkei.com/Opinion/The-Convenient-Rewriting-of-the-History-of-the-Quad.

[xviii] सी. राजा मोहन, समुद्र मंथन, (2012).  इंडोपेसिफिक में चीन-भारतीय प्रतिद्वंद्विता, वाशिंगटन, डीसी: कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस: 64; देबाशीष रॉयचौधरी (2015). “बिटवीन द लाइन्स: इंडियन मीडियाज़ चाइना वॉर,” चाइना रिपोर्ट ,51, संख्या 3: 169-203.

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ऋत्युषा मणि तिवारी

लेखिका शहीद भगत सिंह कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +919958282553, rityusha.tiwary@sbs.du.ac.in
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