शख्सियत

‘सेवा’ की पर्याय : इला रमेश भट्ट

आजाद भारत के असली सितारे : 40

अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने वाशिंगटन में ‘नेशनल पार्टनरशिप फॉर वीमेन एण्ड फैमिलीज’ के एक समारोह में कहा था, “दुनिया भर के बहुत से पुरुष और महिलाएं मेरे ‘हीरो’ और ‘हीरोइन’ हैं जिनमें से एक इला भट्ट भी हैं।”

हिलेरी ने भारत में सेल्फ़ इंप्लॉयड वीमेंस एसोसिएशन यानी ‘सेवा’ नाम की संस्था शुरू करने में इला भट्ट की भूमिका का ज़िक्र किया था। वे पहली बार इला भट्ट (जन्म- 7.9.1933) से तब मिलीं थीं जब वे अमरीकी राष्ट्रपति की पत्नी के तौर पर भारत आई थीं। उन्होंने कहा, “फिर जब मैं बतौर अमरीकी विदेश मंत्री भारत आई, तब मैं फिर से ‘सेवा’ संस्था की सदस्यों से मिली। इस बार मुझे पता चला कि संस्था की सदस्यता 10 लाख से ज़्यादा हो गई है, उसकी नेता के लिए चुनाव हुए हैं, और इन लोगों ने जो कुछ हासिल किया है, उससे दुनिया के बाकी हिस्सों में लोगों ने सीख ली है।”

इला रमेश भट्ट की एक पुस्तक है, ‘दूसरी आजादी सेवा’। इस पुस्तक की भूमिका में इला जी लिखती हैं, ‘‘दूसरी आजादी’’ के लिए जूझने का नाम ‘‘सेवा’’ है। पहली आजादी यानी विदेशी हुकूमत से मुक्ति। वह थी राजनीतिक आजादी। आर्थिक आजादी पाना तो अभी बाकी ही था। गाँधी जी ने कहा था कि किसी भी जनता के लिए राजनीतिक आजादी के साथ-साथ आर्थिक आजादी उतनी ही अनिवार्य और महत्त्वपूर्ण है। गरीबी तो किसी भी समाज का नैतिक पतन है। राजनैतिक बदलाव या तकनीकी सुधार से शोषण के दूर हो जाने का कोई आश्वासन नहीं होता। इसीलिए आजादी की प्राप्ति के बाद जनता आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बने यह बेहद महत्वपूर्ण था। पिछले पच्चीस सालों में ‘‘सेवा’’ ने इस काम को किया, जिसे मैं ‘‘दूसरी आजादी’’ के गाँधी संदेश को लोक सेवा जैसा मानती हूँ। स्वतन्त्र भारत में गरीबों एवं स्त्रियों को मताधिकार का मिलना ही भर पर्याप्त नहीं था।“ (भूमिका से)

रोजमर्रा के जीवन में कितनी ही बार हमारा सामना ऐसी महिलाओं से होता है, जो घरों में झाड़ू-पोंछा करके या फुटपाथ पर सब्जियाँ बेचते हुए अपना और अपने परिवार का पालन-पोषण करती हैं। हम इतने व्यस्त होते हैं कि इनके चेहरे पर उम्र से पहले ही खिंच आईं प्रौढ़ता की लकीरों के पीछे छिपे दर्द को महसूस नहीं कर पाते। लेकिन अहमदाबाद की इला रमेश भट्ट ने स्वरोजगार से जुड़ी महिलाओं के इस दर्द को समझा।

    इला भट्ट का जन्म अहमदाबाद में हुआ था और उनका बचपन सूरत शहर में बीता, जहाँ इनके पिता सुमंतराय भट्ट एक प्रतिष्ठित वकील थे। उनकी माँ वनलीला व्यास भी सामाजिक कार्यकर्ता थीं और महिलाओं के आन्दोलन में सक्रिय थीं। इला के दादा, ताऊ, काका, कजिन भी कानून के बड़े जानकार थे। उनका परिवार सूरत में ‘वकीलों का परिवार’ के रूप में जाना जाता था। इला जी के नाना अहमदाबाद में सरकारी अस्पताल में मशहूर डॉक्टर थे। उन्होंने गाँधी जी के साथ नमक सत्याग्रह में हिस्सा लिया था और उसके लिए जेल भी गए थे। गाँधी जी से प्रभावित होकर आजादी की लड़ाई में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी। इला के तीनों मामा भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। इस तरह भारत के स्वाधीनता संग्राम में इला भट्ट के परिवार के अधिकांश सदस्यों ने भाग लिया था।

 अपने माता-पिता के बारे में इला जी बताती हैं, “मेरे पिता बहुत ही दयालु, धर्मभीरु और सिद्धांतवादी इंसान थे। वे नैतिक मूल्यों के बड़े पक्के थे। उन्हें सही–गलत की समझ थी और हमें बताते थे कि क्या सही है और क्या गलत। वे हमेशा हमसे कहते थे कि हमें सिर्फ अपने बारे में नहीं, बल्कि दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए। मेरे पिता ने हमेशा नाइंसाफी के खिलाफ लड़ाई लड़ी। … मेरी माँ को भी सही-गलत की समझ थी। वे हर चीज को आसानी से तोल-मोल लेती थीं। कई सारे गुण थे उनमें। वे भाषण बहुत अच्छा देती थीं। वे महिलाओं के कार्यक्रमों में भी खूब हिस्सा लेती थीं। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए भी लड़ाई लड़ी।” इला जी बताती हैं कि, “हमारे घर में कोई नौकर-चाकर नहीं थे। माँ ही सभी काम करती थी। घर का सारा काम करने के बाद भी वे बाहर के काम के लिए अपना समय निकाल लेती थीं।” इला जी बताती हैं कि वे सूरत की दूसरी महिलाओं की तरह रूढ़िवादी नहीं थीं और बदलते जमाने के साथ महिलाओं को भी बदलने का सुक्षाव देती थीं। वे महिला क्लब भी जाती थीं। निश्चित रूप से इला जी के ऊपर उनके परिवार का गहरा संस्कार पड़ा।

इला जी की स्कूली शिक्षा सूरत की म्युनिसिपल कन्या पाठशाला में गुजराती माध्यम से हुई। उस समय देश में आजादी की लड़ाई अन्तिम दौर में थी। जब वे स्कूल में थी तभी आजादी मिल गई। लेकिन उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी की हत्या भी हो गई। इला बताती हैं कि उन्हें भी बहुत दुख हुआ था और उन्होंने अपने नायक गाँधी जी पर एक कविता भी लिखी थी जिसे उनके अध्यापकों ने बहुत सराहा था।1952 में इला सूरत के एमटीबी महाविद्यालय से कला में स्नातक हुईं और फिर अहमदाबाद से 1954 में उन्होंने कानून की पढ़ाई पूरी की जहाँ उन्हें हिंदू कानून पर अपने काम के लिए स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था।

इला जी को लगता था कि कानून की पढ़ाई का लाभ तभी है, जब उससे किसी का जीवन सँवरे। यही सोच उन्हें अंतरराष्ट्रीय श्रम कानून का विशेष अध्ययन करने के लिए इजराइल खींच ले गई। लेबर एंड को-आपरेटिव में अंतरराष्ट्रीय डिप्लोमा के साथ वे वापस लौटीं। इजराइल से वापसी के बाद टेक्सटाइल क्षेत्र से जुड़ी उन महिलाओं के कानूनी हक के लिए उन्होंने काम शुरू किया, जो किसी कंपनी से जुड़ी नहीं थीं और अपने घर से कोसों दूर जाकर हाड़-तोड़ मेहनत कर रही थीं। इला बताती हैं कि, “अपने परिवार से जो संस्कार मिले उसी ने मुझे लोगों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश करने को प्रेरित किया। जिन्दगी का रास्ता चुनने में भी मुझे दिक्कत नहीं हुई। गाँधी जी ने रास्ता दिखाया था। उन्होंने कहा था कि नया देश बनाना है। मैने भी देश के लिए काम करने का फैसला कर लिया था।” 

अपनी स्नातक की पढ़ाई के दौरान इला की मुलाकात एक निडर छात्र नेता रमेश भट्ट से हुई। 1951 में भारत की पहली जनगणना के दौरान मैली-कुचैली बस्तियों में रहने वाले परिवारों का विवरण दर्ज करने के लिए रमेश भट्ट ने इला को अपने साथ काम करने के लिए आमंत्रित किया तो इला ने बहुत संकोच से इसके लिए सहमत हुईं। उन्हें पता था कि उनके माता-पिता अपनी बेटी को एक अनजान युवक के साथ गंदी बस्तियों में भटकते देखना हरगिज़ पसंद नहीं करेंगे। बाद में जब इला ने रमेश भट्ट से शादी करने का निश्चय किया तो माता-पिता ने विरोध किया। उन्हें डर था कि उनकी बेटी आजीवन ग़रीबी में ही रहेगी। इतने विरोध के बावजूद इला ने सन् 1955 में रमेश भट्ट से विवाह कर लिया।

इला ने देश में गरीबी के कारणों का पता लगाना शुरू किया। उन्हें लगा कि बहुत से लोग अपने अधिकारों से वंचित हैं इसकी एक बड़ी वजह यह है कि लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी ही नहीं है, और दूसरी वजह यह है कि उन्हें काम के अवसर आसानी से नहीं मिलते। उन्होंने फैसला कर लिया कि वे ऐसे लोगों को उनके अधिकार दिलाएंगी और गरीबी दूर करने के लिए जरूरतमंदों की मदद करेंगी। इसी मकसद से वे टेक्सटाइल लेबर एसोसिएसन (कपड़ा कामगार संघ) से जुड़ गईँ। वे कानून की जानकार थीं इसीलिए उन्हें कानूनी मामले देखने और संभालने की जिम्मेदारी सौंपी गई। मजदूरों की तनख्वाह, उनके बोनस की अदायगी जैसे मामले देखने, समझने और उन्हें सुलझाने की जिम्मेदारी इला के जिम्मे थी।

      संगठन में काम करते हुए इला को कानूनी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ीं। मजदूरों को इन्साफ दिलाना उनका मुख्य काम था। किन्तु उनकी लड़ाई संगठन में मौजूद रूढ़िवादी ताकतों से भी थी। इला बताती हैं कि, “मैंने जब कपड़ा कामगार संघ के लिए काम करना शुरू किया था, तब संगठन में महिलाएं न के बराबर थीं। मैं उन दिनों पल्लू से अपना सर भी नहीं ढँकती थी और बालों में फूल लगाती थी। लेकिन अहमदाबाद में लोग सूरत जैसे नहीं थे। शुरू में तो एक दो लोगों ने मुझे टोका भी लेकिन मैंने उनकी नहीं सुनी।” उल्लेखनीय यह है कि कपड़ा कामगार संघ के कर्मचारियों में इला अकेली महिला थीं। कोर्ट में जब वे मजदूरों की ओर से दलील पेश करती होतीं तो भी वे कोर्ट में अकेली होती थीं।

      इला मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती थीँ। कुछ ही समय में उनकी पहचान अहमदाबाद में ‘कपड़ा मजदूरों की आवाज’ के रूप में हो गई। मजदूरों के हक की लड़ाई के लिएउन्हें दूर-दूर तक जाना पड़ता था,इसलिए संगठन की ओर से उन्हें स्कूटर मिल गया। वे पूरे अहमदाबाद में स्कूटर चलाने वाली दूसरी महिला बनीं। नेतृत्व की शानदार क्षमता को देखते हुए1968 में उन्हें महिला प्रकोष्ठ काप्रभारी बना दिया गया।

संगठन में काम करते हुए उन्होंने पाया कि सरकार का कानून केवल उन महिलाओं की बेहतरी का ही ख्याल रखता है, जो संगठित क्षेत्र में काम करती हैं, जबकि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली स्वरोजगार प्राप्त महिलाओं की संख्या कहीं ज्यादा है। असंगठित क्षेत्र के लोगों के पास कोई संवैधानिक अधिकार तक नहीं है।

इला भट्ट के सामाजिक कार्य करने का तरीका सबसे अलग था। 1971 में अहमदाबाद के बाज़ार में हाथगाड़ी खींचने वाली और सर पर बोझा ढोने वाली महिला कुलियों ने अपने सिर पर छत की तलाश में इला भट्ट से मदद माँगी। इला भट्ट ने देखा कि ये सारी महिलाएँ खुली सड़क पर रहने को मजबूर हैं और इनकी मज़दूरी बेहद कम है। उन्होंने इस विषय पर स्थानीय अख़बारों में लिखा। कपड़ा व्यापारियों ने जवाबी लेख प्रकाशित करके इला भट्ट के सारे आरोपों को ख़ारिज कर दिया और महिला कुलियों को उचित मज़दूरी देने का दावा भी किया। इला भट्ट ने व्यापारियों वाले लेख की अनेक छाया-प्रतियाँ बनवायीं और महिला कुलियों में बाँट दीं ताकि वे व्यापारियों से अख़बार में छपी मज़दूरी की ही माँग करें। इला भट्ट की इस युक्ति ने कपड़ा व्यापारियों के लिए “मियाँ की जूती मियाँ का सर” वाली कहावत चरितार्थ कर दी। उन्होंने इला भट्ट से बातचीत की पेशकश की। दिसम्बर, 1971 में इसी बैठक के लिए लगभग एक सौ महिला मज़दूर इकट्ठा हुईं और वहीं‘सेवा’ संगठन (सेल्फ़ एम्प्लॉयड वुमॅन एसोसिएशन) का जन्म हुआ। केवल सात सदस्यों को लेकर ‘सेवा’ शुरू की गई। महिलाओं की मदद करते हुए उन्हें पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर बनाना ‘सेवा’ का मुख्य लक्ष्य था।

‘सेवा’ को खड़ी करने में बहुत सी चुनौतियाँ सामने आईं। संगठन के पंजीकरण तक में बाधा आई। ट्रेड यूनियनों के रजिस्ट्रार ने सगठन का पंजीकरण करने से इसलिए मना कर दिया कि सदस्य श्रमिक महिलाओं के आवेदन पत्र में मालिक का उल्लेख नहीं था। उनका कहना था कि कोई संगठन बनाना है तो पहले उस मालिक का नाम बताना होगा जहाँ संगठन की महिलाएं नौकरी करती हैं। चूँकि संगठन की सारी महिलाएं अलग-अलग जगह काम करती थीं और स्वरोजगार भी थीं, तो जाहिर है, उनका कोई मालिक नहीं था। ऐसी दशा में उन्हें पंजीकरण के लिए भी लड़ाई लड़नी पड़ी। बहुत मुश्किल से रजिस्ट्रेशन हुआ।

रजिस्ट्रेशन के बाद सदस्यों को आर्थिक मदद पाने में बड़ी समस्याएं आने लगीं। बैंक वाले स्वरोजगारों को कर्ज देना जोखिम का काम मानते थे। मजबूरी में महिलाएं बाजार के साहूकारों से कर्ज लेने लगीँ और साहूकार उनका शोषण करने लगे। उन्होंने बताया कि एक दिन बैंक से कर्ज लेने की कठिनाइयों पर मीटिंग में बात- चीत हो रही थी तो उसमें चंदा बेन नाम की एक सदस्य ने सुझाव दिया कि क्यों न हम अपना बैंक खोल लें। सुझाव अच्छा लगा और को-आपरेटिव बैंक की नींव रखी गई। को-आपरेटिव बैंकों के रजिस्ट्रार ने भी रजिस्ट्रेशन से इनकार कर दिया। भारतीय रिजर्व बैंक ने भी आपत्ति जताई। रिजर्व बैंक के अधिकारियों की यह भी शिकायत थी कि संगठन की ज्यादातर महिलाएं अशिक्षित हैं। इला जी ने फैसला किया कि वे सदस्य महिलाओं को पढ़ना-लिखना भी सिखाएंगी। फिर रात-दिन मेहनत की गई और संगठन की सदस्य महिलाएं हस्ताक्षर करना सीख गईं, तब जाकर बैंक का पंजीकरण हो सका।

इस बैंक से बहुत लाभ हुआ। महिलाओं को कर्ज मिलने लगा। ‘सेवा’ और को-आपरेटिव बैंक ने हमेशा महिला सदस्यों की जरूरतों और माँग के अनुसार काम किया। जरूरत के अनुसार कई सहयोगी संगठन उससे जुड़ते गए। इस तरह सेवा बैंक, गुजरात राज्य महिला सेवा सहकारिता संघ लि., सेवा अकादमी, सेवा पारिस्थिकी पर्यटन, सेवा निर्माण कंस्ट्रक्शन वर्कर्स कं. लि., लोक स्वास्थ्य, सेवा इंशुरेन्स, सेवा कलाकृति, सेवा संस्कार केन्द्र आदि ‘सेवा’ मातृसंस्था के सहयोगी संगठन बन गए। इस समय सेवा के 18 लाख से ज्यादा सदस्य हैं। बैंक के 4 लाख से ज्यादा खातेदार हैं। शुरुआत में 600 सदस्यों वाले ‘सेवा’ से मिलने वाली आर्थिक मदद से आज लाखों गरीब महिलाएं लाभ उठा रही हैं।

  इला भट्ट के संगठन ‘सेवा’ का मुख्य लक्ष्य महिलाओं को सम्पूर्ण रोजगार से जोड़ना है। सम्पूर्ण रोजगार का मतलब केवल नौकरी नहीं; बल्कि नौकरी के साथ खाद्य-सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा भी है। इसका मतलब है, कामगारों को इस तरह की गतिविधियों में लगाना जो उन्हें आत्म-निर्भर बनाती हों। आजीविका का निर्माण, मौजूदा आजीविका की सुरक्षा और प्रगति के लिए कार्यकुशलता में वृद्धि – ये तीन चीजें इसके केन्द्र में हैं। ‘सेवा’ अपने सदस्यों को आवास, बचत और ऋण, पेंशन तथा बीमा जैसी सहायक सेवाएं भी प्रदान करती है। इसके अलावा बच्चों की देखभाल तथा कानूनी सहायता भी देती है।

इला भट्ट के आन्दोलन की कामयाबी का एक पक्ष यह भी है कि उससे देशभर के स्वरोजगारों को पहचान मिली। सरकार को बाध्य होकर इस असंगठित क्षेत्र के लोगों को मान्यता देनी पड़ी। स्वरोजगार को संवैधानिक अधिकार मिले। उन्हें पहचान पत्र दिए जाने लगे। उन्हे भी सरकारी योजनाओं से जोड़ा गया। बीमा और स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ अब संगठित क्षेत्र के लोग भी उठा सकते थे।

गाँधी जी से ऊर्जा लेकर लाखों महिलाओं के जीवन में उत्साह और खुशी लाने वाली इला रमेश भट्ट सलाह देती हैं कि जीवन में सबको सादगी अपनानी चाहिए। जीवन के कई प्रश्नों का हल सादगी में है। वेखुद खादी के कपड़े ही पहनती हैं और अपने सारे काम खुद करती हैं।

एक सवाल के जवाब में इला जी कहती हैं, “मैं कभी भी कामयाबी के बारे में नहीं सोचती। विफलता के बारे में भी नही सोचती। मैं बस इसी बात पर ध्यान देती हूँ कि जिस रास्ते पर चल रही हूँ, वो सही है या नहीं। भले ही देर हो, लेकिन मंजिल तक पहुँचने वाला रास्ता सही होना चाहिए।”

पद्मश्री, पद्म भूषण, रेमन मैग्सेसे, राइट लिवलीहुड, इंदिरा गाँधी पुरस्कार आदि से सम्मानित इला रमेश भट्ट राज्यसभा की भी मनोनीत सदस्य थीं। इला रमेश भट्ट सवाल करती है कि इस भूमंडलीकृत दुनिया में लोगों का हृदयसमाज की सबसे गरीब महिलाओं को देखकर यदि पसीजता नहीं है तो फिर इन आर्थिक सुधारों से क्या फायदा? इला रमेश भट्ट के चिन्तन का यही वह निर्णायक मोड़ है जहाँ से खड़े होकर हम समाज के विकास की सही दिशा का पता लगा सकते हैं और इला जी के सामाजिक कार्य से सबक लेते हुए अपने सामाजिक जीवन–यात्रा की दिशा तय कर सकते हैं। इला जी का यह निष्कर्ष हमें सोचने को विवश कर देता है कि भारत में सामाजिक कार्यों की दिशा का व्यवस्था परिवर्तन से कोई संबंध है या नहीं? प्रश्न यह भी है कि इला भट्ट यदि अपने आन्दोलन के साथ व्यवस्था परिवर्तन के स्थाई समाधान का मुद्दा भी जोड़ देतीं तो क्या सरकार उन्हें वे सम्मान देती जो उन्हें मिल चुके हैं?

इला जी के जन्मदिन पर समाज सेवा के क्षेत्र में उनके द्वारा किए महान कार्यों का हम स्मरण करते हैं और उन्हें जन्मदिन की बधाई देते हैं

.

Show More

अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x