मानव विकास बनाम पर्यावरण संरक्षण
पर्यावरण से हम हैं और हमसे पर्यावरण। जल जंगल जमीन है तो पारिस्थितिकी तंत्र मजबूत है। पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली जल, जंगल, जमीन तीनो को संरक्षित करने से ही होगी। लोगों को हमारे पर्यावरण की रक्षा के लिए प्रेरित करने, पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक करने और सचेत करने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। इस बार विश्व पर्यावरण दिवस 2021 की थीम/प्रसंग है – पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली (इकोसिस्टम री-स्टोरेशन)। पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली कई रूप में हो सकती है, वो इस प्रकार हैं –
-
प्रकृति के समीप होने का सुख समझें। अपने आसपास छोटे पौधें या बड़े वृक्ष लगाएं। धरती की हरियाली को बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प हो।
-
प्रत्येक त्यौहार या पर्व पर पेड़ लगाकर उन यादों को चिरस्थायी बनाएं।
-
छोटे और बड़े समारोहों में अतिथि स्वागत, पुष्प गुच्छ के स्थान पर पौधे देकर सम्मानित करें, और स्नेह संबंधों को चिरस्थायी बनाएं।
-
सड़कें या घर बनाते समय यथासंभव वृक्षों को बचाएं।
-
अपने घर-आंगन में थोड़ी सी जगह पेड़ पौधों के लिए रखें। ये हरियाली देंगे, तापमान कम करेंगे, पानी का प्रबंधन करेंगे व सुकून से जीवन में सुख व प्रसन्नता का एहसास कराएंगे।
-
पानी का संरक्षण करें, हर बूंद को बचाएं।
-
बिजली का किफायती उपयोग करें।
-
पशु पक्षियों को जीने दें। इस पृथ्वी पर मात्र आपका ही नहीं मूक पशु-पक्षियों का भी अधिकार है।
-
घर का कचरा सब्जी, फल, अनाज को पशुओं को खिलाएं।
-
अन्न का दुरूपयोग न करें। बचा खाना खराब होने से पहले गरीबों में बांटे।
-
यहां वहां थूक कर अपनी सभ्यता पर प्रश्नचिन्ह न लगने दें।
पर्यावरण को दूषित होने से बचाएं। पृथ्वी हरी भरी होगी तो पर्यावरण स्वस्थ होगा, पानी की प्रचुरता से जीवन सही अर्थों में समृद्ध व सुखद होगा। पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यही कारण है कि भारतीय चिन्तन में पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितना यहाँ मानव जाति का ज्ञात इतिहास है। हिन्दू संस्कृति में प्रत्येक जीव के कल्याण का भाव है।
हिन्दू धर्म के जितने भी त्योहार हैं, वे सब प्रकृति के अनुरूप हैं। मकर-संक्रान्ति, वसंत-पंचमी, महाशिवरात्रि, होली, नवरात्र, गुड़ी-पड़वा, वट-पूर्णिमा, ओणम्, दीपावली, कार्तिक-पूर्णिमा, छठ-पूजा, शरद-पूर्णिमा, अन्नकूट, देव-प्रबोधिनी एकादशी, हरियाली तीज, गंगा दशहरा आदि सब पर्वों में प्रकृति संरक्षण का पुण्य स्मरण है। मानव, विकास के नाम पर जल जंगल और जमीन तीनो से धोखा कर रहा है। नतीजतन आज पर्यावरण मानव के साथ बदला ले रहा है। भौतिक विज्ञान में न्यूटन का गति का तृतीय नियम कहता है कि “हर क्रिया की समान और विपरीत क्रिया होती है।” अतएव मानव को कोई भी कार्य करने से पहले उसके परिणाम के बारे में सोच लेना चाहिए।
पर्यावरण और मानव एक दूसरे के पूरक हैं। पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध प्रकृति से है। प्राकृतिक हवा, पानी, जानवर, जीव, वनस्पति और हमारे आसपास के लोग वो सबकुछ जो प्रकृति प्रदत्त है वो ही पर्यावरण का निर्माण करते हैं। पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘परि + आवरण‘। ‘परि’ का अर्थ है- ‘चारों ओर’ एवं ‘आवरण’ का अर्थ है-‘ढकने वाला’। इस प्रकार पर्यावरण या वातावरण वह वस्तु है जो चारों ओर से ढके हुए है। प्रकृति ने पर्वत, नदियाँ, पेड़, प्राणी आदि दिया है। प्रकृति से ही जल थल और नभ का निर्माण हुआ है। ये सब प्रकृति की ही देन है। कहने का तात्पर्य पर्यावरण की उत्पत्ति प्रकृति से ही है। प्रकृति में पूरा ब्रह्माण्ड समाया है।
इस ब्रह्मांड में अनेक ग्रह और नक्षत्र हैं जिनमें हमारी पृथ्वी भी एक ग्रह है। हमारे सौरमंडल में मानव जीवन संभवत: पृथ्वी पर ही है। जीवात्मा को प्रकृति से ही जीवन मिलता है। प्रकृति जीवन देती है। प्रकृति प्रेम देती है। प्रकृति सुख देती है। प्रकृति, पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलन प्रदान करती है। जल, जंगल और जमीन विकास के पर्याय हैं। जल, जंगल और जमीन जब तक है तब तक मानव का विकास होता रहेगा। मानव जो छोड़ते हैं उसको पेड़-पौधे लेते हैं और जो पेड़-पौध छोड़ते हैं उसको मानव लेते हैं। जल, जंगल और जमीन से ही जीवन है। जीवन ही नहीं रहेगा तो विकास अर्थात बिजली, सड़क, आदि किसी काम के नहीं रहेंगे।
यह भी पढ़ें- पर्यावरण और आधी आबादी
यह कहने में आश्चर्य नहीं होगा कि समुदाय का स्वास्थ्य ही राष्ट्र की सम्पदा है। जल, जंगल और जमीन को संरक्षित करने लिए मन का शुद्ध होना बहुत जरुरी है। मन आतंरिक पर्यावरण का हिस्सा है। जल, जंगल और जमीन वाह्य (बाहरी) पर्यावरण का हिस्सा है। हर धर्म ने माना प्राकृतिक विनाश से विकास संभव नहीं है। वैदिक संस्कृति का प्रकृति से अटूट सम्बन्ध है। वैदिक संस्कृति का सम्पूर्ण क्रिया-कलाप प्राकृत से पूर्णतःआवद्ध है। वेदों में प्रकृति संरक्षण अर्थात पर्यावरण से सम्बंधित अनेक सूक्त हैं। वेदों में दो प्रकार के पर्यावरण को शुद्ध रखने पर बल दिया गया है– आन्तरिक एवं बाह्य।
सभी स्थूल वस्तुऐं बाह्य एवं शरीर के अन्दर व्याप्त सूक्ष्म तत्व जैसे मन एवं आत्मा आन्तरिक पर्यावरण का हिस्सा है। आधुनिक पर्यावरण विज्ञान केवल बाह्य पर्यावरण शु्द्धि पर केन्द्रित है। वेद आन्तरिक पर्यावरण जैसे मन एवं आत्मा की शुद्धि से पर्यावरण की अवधारणा को स्पष्ट करता है। बाह्य पर्यावरण में घटित होने वाली सभी घटनायें मन में घटित होने वाले विचार का ही प्रतिफल हैं। भगवद् गीता में मन को अत्यधिक चंचल कहा गया है – चंचलं ही मनः ड्डष्ण…। (भगवद् गीता 6:34)।
बाह्य एवं आंतरिक पर्यावरण एक दूसरे के अनुपाती हैं। जितना अधिक आन्तरिक पर्यावरण विशेषतया मन शुद्ध होगा, बाह्य पर्यावरण उतना अधिक शुद्ध होता चला जायेगा। वेदों के अनुसार बाह्य पर्यावरण की शुद्धि हेतु मन की शुद्धि प्रथम सोपान है। इन तत्वों में किसी भी प्रकार के असंतुलन का परिणमा ही सूनामी, ग्लोबल वार्मिंग, भूस्खल, भूकम्प आदि प्राकृतिक आपदायें हैं वेदों में प्रकृति के प्रत्येक घटक को दिव्य स्वरूप प्रदान किया गया है। प्रथम वेद ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र ही अग्नि को समर्पित है – ऊँ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। (ऋग्वेद 1.1.1) ऋतं ब्रह्मांड का सार्वभौमिक नियम है। इसे ही प्रकृति का नियम कहा जाता है।
ऋग्वेद के अनुसार – सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यौः त्रृतेनादित्यास्तिठन्ति दिवि सोमो अधिश्रितः ऋग्वेद (10:85:1) भावार्थ – देवता भी ऋतं की ही उत्पति हैं एवं ऋतं के नियम से बंधे हुए हैं। यह सूर्य को आकाश में स्थित रखता है। वेदों में वरूण को ऋतं का देवता कहा गया है। वैसे तो वरूण जल एवं समुद्र के वेता (वरुणस्य गोपः) के रूप में जाना जाता है परन्तु मुख्यतया इसका प्रमुख कार्य इस ब्रह्मांड को सुचारू पूर्वक चलाना है।ऋग्वेद में वनस्पतियों से पूर्ण वनदेवी की पूजा की गयी है – आजनगन्धिं सुरभि बहवन्नामड्डषीवलाम् प्राहं मृगाणां मातररमण्याभिशंसिषम् (ऋग्वेद 10:146:6) भावार्थ–अब मैं वनदेवी (आरण्ययी) की पूजा करता हूँ जो कि मधुर सुगन्ध से परिपूर्ण है और सभी वनस्पतियों की माँ है और बिना परिश्रम किये हुए भोजन का भण्डार है।
छान्दोग्यउपनिषद् में उद्दालक ऋषि अपने पुत्र श्वेतकेतु से आत्मा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वृक्ष जीवात्मा से ओतप्रोत होते हैं और मनुष्यों की भाँति सुख-दु:ख की अनुभूति करते हैं। हिन्दू दर्शन में एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गयी है- दशकूप समावापी: दशवापी समोहृद:।दशहृद सम:पुत्रो दशपत्र समोद्रुम:।। तुलसी का पौधा मनुष्य को सबसे अधिक प्राणवायु ऑक्सीजन देता है। तुलसी के पौधे में अनेक औषधीय गुण भी मौजूद हैं। पीपल को देवता मानकर भी उसकी पूजा नियमित इसीलिए की जाती है क्योंकि वह भी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन देता है। कोरोना महामारी की दूसरी लहर में मानव को हवा (ऑक्सीजन) की कीमत का पता चला। कोई भी महामारी तभी आक्रामक होती है जब पर्यावरण असंतुलित होता है।
प्रकृति प्रदत्त चीजों के साथ खिलवाड़ करके भौतिक विकास करना आसान है पर मानव के जीने की उम्र को बढ़ा पाना असंभव है। शरीर पाँच तत्वों से मिलकर बना है-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। यही पाँच तत्व पर्यावरण के मूलभूत आधार हैं। पर्यावरण हमारे जीवन का मूल आधार है। मानव जीवन को जीवंतता देने में इन्ही पाँच तत्वों की अहम् भूमिका है। अतएव हम कह सकते हैं कि पर्यावरण मानव विकास का मूल तत्व है।
.