हिन्दी का दूध पीकर हिन्दी को कोसने वाले हिन्दीहंता
जैसे ही हिन्दी दिवस आता है, देश भर के विद्वतजनों का प्रलाप शुरू हो जाता है! कोई 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाने को कोसने लगता है तो कोई राजभाषा हिन्दी को ही कोसने लगता है! कोई राजभाषा से जुड़े लोगों को कोसने लगता है तो कोई हिन्दीभाषी समाज को ही कोसने लगता है! कोई शुद्धतावादियों को कोसने लगता है तो कोई उदारवादियों को कोसने लगता है! कोई तो सारे हिन्दीभाषी लोगों को ही ‘सड़े हुए लोग’ कहकर कोसने लगता है!
एक तरफ, तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का एक तबका हिन्दी को राष्ट्रवादी हिन्दी कहने लगता है तो वहीं इनमें से ही कुछ लोग इससे भी आगे बढ़कर हिन्दी को ब्राह्मणवादी हिन्दी कहने लगते हैं! दूसरी तरफ, कुछ भारतीय मूल के अंग्रेजीदां लोग हिन्दी को ‘कम्यूनल’ हिन्दी कहने लगते हैं तो इन्हीं में से कुछ लोग हिन्दी को ‘कोलोनियल’ हिन्दी तक कहने लगते हैं!
अपनी ही भाषा को लेकर इतनी घृणा, इतना वैमनस्य, इतना हीनताबोध शायद ही किसी और देश, किसी और समाज में देखने को मिले! कोई भी देश, कोई भी समाज अपनी ही भाषा को लेकर इतना उदासीन भला कैसे हो सकता है? क्या उनमें अपनी भाषा को लेकर कोई अस्मिता बोध नहीं है? क्या उनमें अपनी भाषा को लेकर कोई आत्मबोध नहीं है? या उन्हें हिन्दी इतनी परायी लगने लगी है कि वे इसका अपमान तक करने पर उतारू हो गए हैं? या फिर, यह मान लें कि पूरा देश तो छोड़िए, खुद हिन्दी समाज भी अंग्रेजी के मोह में इतना अंधा और इतना खुदगर्ज हो गया है कि अपने अंतस में, अपनी चेतना में हिन्दी का अंतिम संस्कार कर चुका है?
सच कहें तो हिन्दी और राजभाषा हिन्दी की इतनी घोर निंदा, हिन्दी और राजभाषा हिन्दी पर लगते इतने आक्षेपों एवं आरोपों और, हिन्दी और राजभाषा हिन्दी के इतने व्यापक विरोध को देखते हुए, मुझे तो लगता है कि भारत सरकार को अविलंब हिन्दी से राजभाषा का दर्जा छीन लेना चाहिए और सरकारी कामकाज में जो कुछ भी हिन्दी में लिखा-पढ़ा जा रहा है, उसे तत्काल बंद कर देना चाहिए! और हर जगह पूरी मुस्तैदी से अंग्रेजी ही अंग्रेजी लागू कर देना चाहिए! शायद तभी यह सब अनर्गल प्रलाप बंद हो पाए…
हाँ, सभी सरकारी कार्यालयों, मंत्रालयों, शासकीय-प्रशासकीय एवं सार्वजनिक प्रतिष्ठानों, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों, बैंकों, हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों आदि-आदि के हिन्दी में लिखे नामों तक पर तत्काल चूना पुतवा देना चाहिए! बैंकनोटों और सिक्कों पर जो कुछ भी हिन्दी में लिखा हुआ है, उसे भी तत्काल मिटवा देना चाहिए! सभी प्रकार के फॉर्मों, दस्तावेजों और कागजात आदि को क्षेत्रीय भाषाओं और हिन्दी में भी नहीं, सिर्फ़ और सिर्फ़ अंग्रेजी में ही छापना शुरू कर देना चाहिए!
तब जाकर कहीं हिन्दी और राजभाषा हिन्दी का विरोध बंद होगा और तब शायद ये सभी तथाकथित ‘हिन्दीप्रेमी’ और हिन्दी के ‘चिर-शुभचिंतक’ विद्वतजन हिन्दी और राजभाषा हिन्दी का विरोध करना बंद करेंगे और तब जाकर हिन्दी की इस कदर बेइज्जती बंद होगी!
जहाँ तक शुद्धतावादियों का सवाल है तो मेरे विचार से हिन्दी को शुद्धतावादियों से उतना ज्यादा खतरा नहीं है, जितना ऐसे प्रगतिशील साम्प्रदायिकों से, जिन्हें हिन्दी में लिखने में अब शर्म आती है! जान लीजिए, यह ‘प्रगतिशील साम्प्रदायिक’ नाम मैंने नहीं, बहुत पहले प्रतिष्ठित कवि गिरिजा कुमार माथुर ने ही दिया था!
हिन्दी को क्लिष्ट और संस्कृतनिष्ठ बताकर उसे दरकिनार करने की गहरी साजिश भी उसी अंतरराष्ट्रीय एजेंडे का अभिन्न हिस्सा है, जिसके तहत इस देश की हर चीज को खराब बताने का अभियान चलाया जाता है, इसे भी समझना होगा। वरना बांग्ला, मराठी, गुजराती, दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी संस्कृत के शब्दों की भरमार है। लेकिन उन्हें बोलने में कभी किसी को कोई दिक्कत नहीं आती! और, अंग्रेजी ही कौन-सी सरल-सहज है? पर सारी बरजोरी और धक्का-मुक्की हिन्दी से ही होती है!
यह तो बाजार का करिश्मा कह लीजिए कि लाख विरोध और साजिशों के बावजूद, हिन्दी दिन दूनी, रात चौगुनी आगे बढ़ रही है और अंग्रेजी को बढ़-चढ़कर चुनौती दे रही है! अन्यथा गूगल, एप्पल, लिंक्ड इन, माइक्रोसॉफ्ट आदि जैसी तमाम दिग्गज आईटी कंपनियाँ हिन्दी को हाथों हाथ नहीं लेतीं और अंग्रेजी अखबारों तक में हिन्दी में भर-भर पन्ने के विज्ञापन नहीं देतीं!
अगर हिन्दी की अहमियत नहीं होती या हिन्दी हाशिये पर होती तो फेसबुक, वाट्सऐप, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि जैसे तमाम सोशल मीडिया प्लैटफॉर्मों पर हिन्दी बिंदास लिखी-पढ़ी नहीं जा रही होती! एक से एक अंतरराष्ट्रीय मोबाइल कंपनियाँ मोबाइल फोनों में हिन्दी में ही नहीं, तमाम भारतीय भाषाओं में भी लिखने-पढ़ने की सुविधा और सहूलियत नहीं दे रही होतीं!
यह कितना हास्यास्पद है, कितना दुखद है कि जहाँ एक ओर, केवल राष्ट्रीय बाजार ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय बाजार भी हिन्दी को सिर्फ इस्तेमाल ही नहीं कर रहा, बल्कि हिन्दी में खूब रोजगार भी दे रहा है; वहीं दूसरी ओर, अपने ही देश के लोग, हिन्दी के अपने ही लोग हिन्दी को तरह-तरह से बदनाम करने और हिन्दी को बात-बात में कटघरे में खड़ा करने से बाज नहीं आ रहे!
ये यही लोग हैं जो बात-बात में हिन्दी का मखौल उड़ाने और हिन्दी को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते! लेकिन जान लीजिए, हिन्दी के किसी हितैषी ने रेलगाड़ी को ‘लौहपथगामिनी’ नहीं कहा! किसी भी सरकारी दस्तावेज में आरम्भ से ही रेल और रेलवे लिखा गया है, ‘लौहपथगामिनी’ नहीं। और फिर, देश की आम जनता ने भी तो रेल को हरदम रेल ही कहा! फिर किसने यह दुष्प्रचार किया? आखिर किसने??
जाहिर है, उन लोगों ने जिनको हिन्दी ही नहीं चाहिए थी! सिर्फ़ अंग्रेजी चाहिए थी!! शुद्धतावादी तो बस ‘विरूद्ध’ की जगह ‘खिलाफ’ लिखने के खिलाफ थे, लेकिन ये तो हिन्दी के ही पूरे खिलाफ हैं और निर्लज्जता से अंग्रेजी के समर्थन में खड़े हैं। शुद्धतावादी कम से कम अंग्रेजी की वकालत तो नहीं करते! और शुद्धतावादियों के हाथ से तो हिन्दी कब की हाथ छुड़ा कर आगे निकल गई है! और, वह अब आम बोलचाल की हिन्दी हो गई है! कामकाज की हिन्दी हो गई है!
जान लीजिए, जिस दिन हिन्दी से राजभाषा का दर्जा छिन जाएगा, उसी दिन अंग्रेजी सारी क्षेत्रीय भाषाओं का भी टेंटुआ दबा देगी! वह तो हिन्दी का शुक्र मनाइए कि हिन्दी के बहाने क्षेत्रीय भाषाओं का भी मान बचा हुआ है! वरना रेलवे स्टेशनों पर भी सिर्फ़ अंग्रेजी में ही ‘अनाउंसमेंट’ सुनिएगा, क्षेत्रीय भाषाओं में नहीं!
अभी तो सुप्रीम कोर्ट में ही अंग्रेजी अनिवार्य है न! जब जिले के कोर्ट-कचहरी में भी अंग्रेजी में सुनवाई होगी न, तब आटे-दाल का भाव पता चलेगा! और जब थाने या मुनिसपालटी के बाबू हिन्दी, बांग्ला, गुजरती या मराठी में नहीं, सिर्फ़ और सिर्फ़ अंग्रेजी में लिखी अर्जी स्वीकार करेंगे न, तब अपनी औकात मालूम होगी! और उस दिन ढिबरी लेकर ढूँढ़िएगा, तब भी कहीं ‘भारत’ नहीं मिलेगा! सब जगह ‘इंडिया’ ही ‘इंडिया’ दिखेगा!!
और यह भी जान लीजिए, ये लोग जो हिन्दी दिवस मनाने का इतना और इतने भद्दे ढंग से लगातार विरोध कर रहे हैं, उनके लिए यह हिन्दी के प्रति अपनी भाषायी निष्ठा और संकल्प को दुहराने और मजबूत करने का दिन नहीं है, बल्कि हिन्दी को एक पायदान नीचे धकेल देने और अंग्रेजी को एक पायदान और ऊपर उठा देने का दिन है!
वे सब हिन्दी का दूध पीकर हिन्दी को ही दिन-रात कोसने वाले इस संसार के सबसे बड़े भाषाद्रोही हैं, मातृहंता हैं! हिन्दीहंता हैं! दुहराने की जरूरत नहीं कि हिन्दी को पहले राष्ट्रभाषा का ही सम्मान मिला। और उसके बाद इसी जनाधार पर उसे 14 सितम्बर, 1949 को व्यापक सर्वसम्मति से राजभाषा का संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया। जो इस सत्य और तथ्य को नकारते हैं, वे दरअसल हिन्दी को ही स्वीकार नहीं कर पाते!
इनका वश चले तो ये हिन्दी दिवस तो क्या, 15 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस भी मनाने न दें क्योंकि इनके हिसाब से हमारा मुल्क तो अब तक आजाद ही नहीं हुआ है!!