ओटीटी पर्दे पर प्रेम, दंगे और हत्याओं का ‘ग्रहण’
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निर्देशक- रंजन चंदेल
स्टार कास्ट – जोया हुसैन, अंशुमन पुष्कर, पवन मल्होत्रा, टिकम जोशी, सहिदुर रहमान, अभिनव पटेरिया, नम्रता वार्ष्णेय, सत्यकाम आंनद, पूर्वा पराग आदि
एक भारत के दो अलग-अलग स्थान और समय की कहानी है ग्रहण। एक पाठक ने कहा कि इसका रिव्यू आपको करना चाहिए था तो लीजिए पाठकों का मान रखते हुए रिव्यू लेकर हाजिर हैं। साल 2016 और 1984 की दो कहानियां मिली तो लगा ग्रहण। ग्रहण ये ओटीटी के पर्दे पर पिछले हफ्ते लगाया था डिज़्नी प्लस हॉट स्टार ने।
सत्य व्यास नयी वाली हिन्दी के प्रखर हस्ताक्षर हैं। लोगों के दिलों में फिर से पढ़ने की ललक और प्यास जगाने वाले सत्य का उपन्यास ‘दिल्ली दरबार’ रोचक लगा था। लेकिन इस सीरीज को जिस तरह उनके उपन्यास से प्रेरित बताया गया है उसी सत्य के ‘चौरासी’ उपन्यास को पढ़ने मन भी करता है। हालाँकि प्रेरित होने की बजाए वह आधारित होता तो हिन्दी पट्टी के लेखकों के दिलों में फ़िल्म लेखन के लिए फिर से आस-उम्मीद जगती। लेकिन मुझे लगता है यह दौर हिन्दी साहित्यकारों के लिए फिर से एक नयी दिशा प्रदान करेगा और साहित्य का सिनेमा के भीतर दखल और बरसों पड़े सूखे को अपने लेखन से गीला करने का काम करेगा।
याद रहे 1984 का सिख दंगा केवल पंजाब में ही नहीं भड़का था उसकी आग की लपटों ने झारखण्ड को भी तथा उसके एक हिस्से बोकारो को भी अपनी चपेट में ले लिया था। लेकिन डिज़्नी प्लस हॉट स्टार ने फ़िल्म समीक्षकों को रिव्यू लिखते समय कुछ सावधानियां भी बरतने को कहा था ताकि फ़िर से सम्भवतः कोई बवाल, दंगा फसाद न हो। लेकिन ऐसा होगा भी तो क्या सीरीज के निर्माता, निर्देशक उसे रोक पाएंगे या क्या डिज़्नी प्लस हॉट स्टार बचाने आगे आएगा। वैसे ऐसा कुछ होने वाला नहीं है फिर भी ये बचकानी हरकतें करना इन ओटीटी वालों के लिए ही नुकसानदेह हो सकता है भविष्य में। ऐसा करके ये लोग स्वतन्त्र लेखकों, समीक्षकों पर पाबंदियां नहीं लगा सकते। पिछले दिनों फ़िल्म क्रिटिक्स गिल्ड की सदस्या अनुपमा ने भी इस पर वाजिब सवाल उठाया था।
खैर इस ग्रहण में एक प्रेम कहानी है, कलाकारों का शानदार अभिनय है जो उसे बांधे रखता है। फिर भले प्रेम के सीन हों, दंगों के, राजनीति के, हत्याओं और आगजनी के। सिखों के भीतर बरसों से जल रही इस आग को भी यह सीरीज शांत करने के साथ ही ज़ख्म भी फिर से हरे कर जाएगी। सीरीज कहती है – “हिंसा और नफरत से कभी किसी का भला नहीं होता, होता है तो बस नुकसान” लेकिन यह सीरीज उस हिंसा और नफ़रत की कहीं डिब्बे में गहरे बंद, दबी पड़ी यादों को भी बाहर लाती है।
1984 के बोकारो सिख दंगों के बीच मनु-ऋषि की प्रेम कहानी बेहद करीने से लिखी, फिल्माई गई है जो आपका दिल जीत लेती है। झारखण्ड के रांची में कार्यरत अमृता सिंह (जोया हुसैन) एक ईमानदार आईपीएस है। 2016 का समय है और झारखण्ड में चुनावी सरगर्मी तेज हो रही है। इस बीच एक पत्रकार की मौत की जांच करने के दौरान अमृता को एहसास होता है कि उसकी ईमानदारी की कोई जगह नहीं। तभी बोकारो में में हुए सिख दंगो की फाइल फिर से खुलती है और अमृता को एस आई टी का इंचार्ज बना दिया जाता है। अमृता जांच में अपने आप को जैसे-जैसे डुबोती जाती है एक-एक करके सभी परतें खुलती जाती हैं। और जांच करते हुए उसे पता चलता है कि उसके पिता गुरसेवक (पवन मल्होत्रा) ही दंगों में अगुवाई करने वालों में से है, जिसका नाम ऋषि रंजन था।
कहानी के बैकग्राउंड में मनु (वमिका गब्बी) और ऋषि (अंशुमन पुष्कर) की प्रेम कहानी है। सीरीज का यह हिस्सा खास करके सीरीज की जान बन जाता है। और निर्देशन के मामले में पहले अपनी फिल्म से बड़ी भूल कर चुके निर्देशक के लिए हमारे दिलों में प्यार तथा उन्हें देने के लिए शाबासी लिखवा देती है।
अमृता के किरदार में जोया हुसैन कमाल करती हैं तो वहीं अंशुमन पुष्कर, ऋषि रंजन के किरदार में तथा वमिका गब्बी मनु के किरदार में इस सीरीज में जान डालने का काम किया है। गुरसेवक के किरदार में पवन मल्होत्रा ने हाल ही में सरदार का ग्रैंडसन में भी बेहतरीन काम किया था लिहाजा उनके काम पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता, वे भी सीरीज में उम्दा रहे हैं। विलन के रूप में संजय सिंह उर्फ चुन्नू भी बेहतरीन लगे हैं। इनके अलावा सहिदुर रहमान, राज शर्मा , पूर्वा पराग, अभिनव पटेरिया, नम्रता वार्ष्णेय ने भी शानदार काम किया है। राज शर्मा ने इससे पहले कई फिल्मों में छोटे-बड़े किरदार करके प्रंशसा बटोरी है तथा थियेटर से भी लम्बे समय तक उनका वास्ता रहा है।
सीरीज में होने वाला बीच-बीच में खून-खराबा देख कभी मन दुःखी भी होता है और दो बूंद आंसुओं की भी सहसा छलक उठती है। गाने सीरीज के वैसे ही जुबान पर चढ़े हुए हैं दर्शकों के। यह सीरीज लम्बे समय तक याद रखी जायेगी तथा सराही जाएगी। डायलॉग्स, एक्टिंग, वी एफ एक्स, बैकग्राउंड स्कोर, सिनेमेटोग्राफी सब आला दर्जे के रहे। बावजूद इसके कुछ सीन गैर-जरूरी था जरूरत से ज्यादा लम्बे भी लगते हैं। ऐसी कहानियां, सीरीज अगर आती रहें तो आने वाला समय जो अब वैसे भी थिएटर्स का रहा है नहीं है लगभग वह भी बीते जमानों की बात सा लगने लगेगा।