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पुण्य प्रसून – चुनाव के साथ ही देश में बहार लौट रही है

देश में फिर बहार लौट रही है. पांच राज्यों के चुनाव के एलान के साथ हर कोई 2019 को ताड़ने में भी से लग गया है. कोई राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ को कांग्रेस के लिये सेमीफाइनल मान रहा है तो कोई बीजेपी के सांगठनिक विस्तार की फाइनल परीक्षा के तौर पर देख रहा है. कहीं मायावती को सबसे बडे सौदेबाजी के सौदागर के तौर पर देखा जा रहा तो कोई ये मान कर चल रहा है कि पहली बार मुस्लिम-दलित चुनावी प्रचार के सौदेबाजी से बाहर हो चुके हैं. और बटते समाज में हर तबके ने अपने अपने नुमाइन्दों को तय कर लिया है. यानी वोट किसी सौदे से डिगेगा नहीं. तो दूसरी तरफ इन तमाम अक्स तले ये कोई नहीं जानता कि देश का युवा मन क्या सोच रहा है. 18 से 30 बरस की उम्र के लिये कोई सपने देश के पास नहीं है तो फिर इन युवाओं का रास्ता जायेगा किधर. कोई नहीं जानता पूंजी समेटे कारपोरेट का रुख अब चुनाव को लेकर होगा क्या? यानी पारपंरिक तौर तरीके चूके हैं तो नई इबारत लिखने के लिये नये नये प्रयोग शुरु हो चले हैं. और चाहे अनचाहे सारे प्रयोग उस इकनॉमिक माडल में समा रहे हैं, जहां सिर्फ और सिर्फ पूंजी है. और इस पूंजी तले युवा मन बैचेन हैं. मुस्लिम के भीतर के उबाल ने उसे खामोश कर दिया है. तो दलित के भीतर गुस्सा भरा हुआ है. किसान – मजदूर छोटी छोटी राहतों के लिये चुनाव को ताक रहा है तो छोटे-मझौले व्यापारी अपनी घाटे की कमाई की कमस खा रहे है कि अबकी बार हालात बदल देंगे. मध्यम तबके में जीने का संघर्ष बढ़ा है. वह हालात से दो-दो हाथ करने के लिये बैचेन है. तो मध्यम तबके के बच्चो में जीने की जद्दोजहद रोजगार को लेकर तड़प बढ़ा रही है. पर इस अंधेरे में उजियारा भरने के लिये सत्ता इतनी पूंजी झोंकने के लिये तैयार है कि हर घाव बीजेपी के कारपेट तले छिप जाये. और कांग्रेस हर घाव को उभारने के लिये तैयार है चाहे जख्म और छलनी हो जाये. मलहम किसके पास है ये अबूझ पहेली है. फिर भी चुनाव है तो बहार है. और 2019 के लिये बनाये जा रहे इस बहार में कौन क्या-क्या झोंकने के लिये तैयार है, ये भी गरीब देश पर रईस सत्ता के हंटर की ऐसी चोट है जिसकी मार सहने के लिये हर कोई तैयार है. क्योंकि ये कल्पना के परे है कि एक तरफ दुनिया के सबसे ज्यादा युवा जिस देश में है वह भारत है.

तो दूसरी तरफ देश में लोगों के बदतर सामाजिक हालातों के मद्देनजर सबसे ज्यादा पूंजी चुनाव में ही लुटायी जाती है. अगर 2011 के सेंसस से समझे तो 18 से 35 बरस के युवाओं की तादाद देश में 37 करोड़ 87 लाख 90 हजार 541 थी. जिसमें अब इजाफा ही हुआ है. और 2014 के चुनाव में 1352 करोड़ रुपये चुनाव प्रचार में स्वाहा हुये. जिसमें बीजेपी ने 781 करोड़ तो कांग्रेस ने 571 करोड़ रुपये प्रचार में फूंके. तो 2019 में चुनाव प्रचार में और कितना इजाफा होगा ये सिर्फ इससे समझा जा सकता है कि 2004 से 2012 तक कॉरपोरेट ने राजनीतिक दलों को 460 करोड़ 83 लाख रुपये की फंडिग की थी. लेकिन 2013 में जब बीजेपी ने वाईब्रेंट गुजरात को जन्म देने वाले नरेन्द्र मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाया तो 2013 से 2016 के बीच कॉरपोरेट ने राजनीतिक दलों को 956 करोड 77 लाख रुपये की फंडिंग की. और इसमें से 75 फीसदी से ज्यादा फंडिंग बीजेपी को हुई. बीजेपी को 705 करोड़ 81 लाख रुपये मिल गये. जबकि कांग्रेस के हिस्से में 198 करोड़ रुपये ही आये. इतनी रकम भी कांग्रेस को इसलिये मिल गई क्योकि 2013 में वह सत्ता में थी. यानी मई 2014 के बाद के देश में कॉरपोरेट ने जितनी भी पॉलिटिकल फंडिंग की उसका रास्ता सत्ता को दिये जाने वाले फंडिंग को ही अपनाया. इसके अलावा विदेशी फंडिंग की रकम अब भी अबूझ पहेली है क्योंकि अब तो सत्ता ने भी नियम कायदे बना दिये हैं कि विदेशी राजनीतिक फंडिंग बताना जरुरी नहीं है. अगर 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से 22 राज्यों के विधानसभा चुनाव में प्रचार की रकम को समझें तो बीते चार बरस में दो सौ फीसदी तक की बढ़ोतरी 2018 तक हो गई. यानी 2013 में हुए मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान चुनाव जो पांच बरस बाद अब नवंबर-दिसंबर में हो रहे हैं उसके चुनावी प्रचार और उम्मीदवारों के रुपये लुटाने के तौर तरीकों में अब इतना अंतर आ गया है कि चुनावी पंडित सिर्फ कयास लगा रहे है कि प्रचार में खर्चा 6 हजार करोड़ का होगा या या 60 हजार करोड़. यानी पांच बरस में सिर्फ चुनावी प्रचार का खर्चा ही 900 फीसदी तक बढ़ रहा है. और संयोग से इन तीन राज्यों में बेरोजगारी की रफ्तार भी दस फिसदी पार कर चुकी है. किसानों की कमाई में डेढ़ गुना तो दूर लागत से 20 फिसदी कम हो गई है. सरकारों के जरिए तय न्यूनतम मजदूरी भी दिला पाने की स्थिति में कोई सरकार नहीं है. शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पर तीनों ही राज्य में खर्च देश के खर्च की तुलना मे 15 फिसदी कम है. और ये तब है जब देश में हेल्थ सर्विस पर जीडीपी का महज 1.4 फिसदी ही खर्च किया जाता है. दुनिया के आंकडो के सामानातंर भारत की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा की लकीर खींचे तो भारत की स्थिति दुनिया की छठी सबसे बड़ी इकॉनोमी होने के बावजूद सौ देशों से नीचे है. यानी असमानता की हर लकीर जब जिन्दगी जीने के दौरान पूरा देश भोग रहा है तो फिर चुनाव प्रचार की रकम ये बताने के लिये काफी है कि 30 से 40 दिनों में चुनाव प्रचार के लिए जितना खर्च राज्यों में या फिर 2019 के चुनाव प्रचार में खर्च होने वाला है और पांच राज्यों के प्रचार में शुरू हो चुका है वह रकम 2014 के नरेन्द्र मोदी के उस भाषण पर भारी पड़ जायेगी जिसे वापस लाकर हर व्यक्ति को 15 लाख रुपये देने की बात कह दी गई थी. यानी 2019 में 70 अरब रुपये से ज्यादा सिर्फ प्रचार पर खर्च होने वाले हैं. और लोकतंत्र को जिन्दा रखने के लिये कितने खरब रुपये राजनीति लुटायेगी इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है.

और इस परिप्रेक्ष्य में देश जा किस दिशा में रहा है ये सिर्फ इससे समझा जा सकता है कि बीजेपी के पास फिलहाल देश भर में 6 करोड़ युवा बेरोजगारों की फौज कार्यकर्त्ता के तौर पर है. और देशभर में विधानसभा और लोकसभा चुनाव के प्रचार के लिए करीब 10 करोड़ युवा चुनाव प्रचार के दौरान रोजगार पा जाते हैं. कोई बतौर कार्यकत्ता तो कोई नारे लगाने के लिये जुटता है. यानी चुनाव की डुगडगी बजते ही कैसे देश में बहार आ जाती है ये इससे भी समझा जा सकता है कि सबसे ज्यादा काला धन ही इस दौर में बाहर नहीं निकलता है, बल्कि हर तबके के भीतर एक उम्मीद जागती है और हर तबके को उस राजनीतिक सौदेबाजी की दिशा में ले ही जाती है जहां सत्ता पैसा बांटती है या फिर सत्ता में आने के लिये हर विपक्ष को अरबों रुपया लुटाना ही पड़ता है. और अगर इलेक्शन वॉच या एडीआर की रिपोर्ट के आंकड़ों को समझे तो चुनावी वक्त में देश में कोई गरीबी रेखा से नीचे नहीं होता बशर्ते उसे वोटर होना चाहिए. क्योंकि देश में तीस करोड़ लोग 28 से 33 रुपये रोज पर जीते हैं, जिन्हें बीपीएल कहा जाता है. और चुनावी प्रचार के 30 से 45 दिनों के दौर में हर वोटर के नाम पर हर दिन औसतन पांच सौ रुपये लुटाये जाते हैं. यानी देश की पूंजी को ही कैसे राजनीति ने हड़प लिया है और देश के अंधियारे को दूर करने के लिए राजनीति ही कैसे सबसे चमकता हुआ बल्ब है ये चाहे अनचाहे राजनीतिक लोकतंत्र ने देश के सामने रख तो दिया ही है.

 

पुण्य प्रसून वाजपेयी

यह लेख उनके ब्लॉग http://prasunbajpai.itzmyblog.com/ से साभार

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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