सामयिक

गाँधी के देश में गाँधी की अनिवार्यता

 

देश की माटी का गौरव, समाज का अस्तित्व, जन का मान, सर्वहारा वर्ग की चिन्ता, हर तबके का विशेष ख़्याल, भाषाई एकता और अखण्डता के बीच हिन्दी की स्वीकार्यता, राष्ट्र की आज़ादी के रण के नायक, नेतृत्वकर्ता, सत्यवादी, मितव्ययी, स्वावलम्बी, समरस और सर्वहितैषी, राजनीति की कलुषता से परे, राष्ट्र तत्व का स्वाभिमान, सामंजस्यता की अद्भुत, अनुपम मिसाल, उम्दा शिक्षक, श्रेष्ठ पत्रकार, कुशल राष्ट्रनायक, संगठन कौशल के धनी, समभाव का पर्याय और आसान शब्दों में कहें तो भारतीय आज़ादी की लड़ाई का अकल्पनीय पर्याय यदि किसी को माना जा सकता है तो वह साबरमती के संत यानी मोहनदास करमचंद गाँधी से महात्मा गाँधी तक की यात्रा के यात्री ‘बापू’ को माना जा सकता है।

क़द-काठी से अकल्पनीय किन्तु यथार्थ के आलोक में अंग्रेज़ी हुकूमत के सामने निहत्थे, निडर और निर्लोभी रहकर चर्चिल जैसे बीसियों वायसरायों को बौने करने का सामर्थ्य रखने वाले महात्मा गाँधी सम्पूर्ण विश्व में भारत के सैंकड़ो परिचय में से एक परिचय हैं। राजनैतिक या कहें कूटनीतिक दृष्टि से भी बापू उस अंग्रेज़ी सल्तनत को उखाड़ फेंकने के स्वर का प्राण तत्व रहे, देश को एकजुट करके स्वाधीनता समर के लिए तैयार करने का सामर्थ्य उस ऊर्जावान बापू में सहज ही उपलब्ध था, जिनके कहने मात्र से राष्ट्रवासी तैयार खड़े रहते थे। अहमदाबाद का साबरमती आश्रम दिल्ली के हुकूमतरानों के नाको चने चबवाने में अव्वल था। गाँधी न केवल एक व्यक्ति थे बल्कि गाँधी एक ऐसी विचारधारा रही, जिसका अनुसरण कर राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को सुचारु रूप से सुव्यवस्थित तरीके से और सुमङ्गल के साथ यापन कर सकता है। आज राष्ट्र ही नहीं अपितु वैश्विक परिदृश्य में गाँधी के अनुयायियों की संख्या लाखों-करोड़ों में है।

भारत की आज़ादी अपने पिच्चहत्तर वर्ष का सौष्ठव प्राप्त कर गई और लगभग उतना ही समय देश ने अब तक गाँधी विहीन बिताया है किन्तु बीते पिच्चहतर वर्षों में बिना गाँधी की नीति के यह देश पिच्चहतर कदम भी नहीं चल पाया। कल्पना में भी जब गाँधी के दृष्टिकोण पर बुद्धि जाती है तो यह आभास हो ही जाता है कि यहीं कहीं बापू इस समस्या का भी हल दे रहे हैं। देश की नीति निर्धारण में गाँधी के विचारों, कार्यशैली और दृष्टि की अत्याधिक मान्यता है। यदि भाषाई एकजुटता की बात करें तो बापू सम्पूर्ण भारत की एक राष्ट्रभाषा हो, इस बात के पक्षधर थे। उन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की वक़ालत की थी। वे स्वयं संवाद में हिन्दी को प्राथमिकता देते थे। आज़ादी के बाद सरकारी काम शीघ्रता से हिन्दी में होने लगे, ऐसा वे चाहते थे। राजनीतिक दलों से अपेक्षा थी कि वे हिन्दी को लेकर ठोस एवं गंभीर कदम उठायेंगे। लेकिन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति से ऑक्सीज़न लेने वाले दल भी अंग्रेज़ी में दहाड़ते देखे गये हैं। हिन्दी को वोट मांगने और अंग्रेज़ी को राज करने की भाषा हम ही बनाए हुए हैं। कुछ लोगों की संकीर्ण मानसिकता है कि केन्द्र में राजनीतिक सक्रियता के लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है। ऐसा सोचते वक़्त यह भुला दिया जाता है कि श्री नरेन्द्र मोदी की शानदार एवं सुनामी जीत और विश्व में प्रतिष्ठा का माध्यम यही हिन्दी बनी है।

गाँधी तर्कवादी दृष्टि के साथ समाधानमूलक दृष्टिकोण के पक्षधर रहे हैं। उन्होंने ही सबसे पहले क्षुद्रप्रथा का उन्मूलन करते हुए ‘हरिजन’ सम्बोधित करते हुए देश को समरसता का ध्येय दिया। आज जिस स्वच्छता का अनुसरण देश की सरकारें कर रही हैं, वह स्वच्छता का मन्त्र भी बापू की पौथी से निकला है। एक बार 1935  में गाँधी जी जब इंदौर आए थे, तब बापू के भोजन की व्यवस्था सर हुकुमचंद सेठ के घर पर थी। नगर सेठ ने बापू को सोने-चांदी के पात्र में भोजन परोसा, बापू ने चुटकी लेते हुए यह कहा कि ‘मैं जिस बर्तन में भोजन करता हूँ, वह मेरे हो जाते हैं।’  मज़ाक के बाद बापू ने अपने सहायक से अपने मिट्टी के बर्तन बुलवाए और उसमें भोजन किया। इस बात से गाँधी जी की मितव्ययिता और सहज जीवनशैली का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। एक और घटना इंदौर से ही गाँधी जी की जुड़ी हुई है, जिससे उनका हिन्दी प्रेम प्रदर्शित होता है। बापू 1935 हिन्दी सम्मेलन की अध्यक्षता करने आने से मना कह चुके थे, अत्याधिक मनुहार के बाद बापू ने एक शर्त रखी, कि मैं तब ही आऊंगा जब मुझे एक लाख रुपए दान दिए जायेंगे, बापू ने कारण नहीं बताया, किन्तु बनारसीदास चतुर्वेदी ने बापू से हामी भर ली। आयोजन के दिन तक व्यवस्था कुल जमा साठ हज़ार रुपयों की हुई, बापू ने वह स्वीकार करते हुए उन पैसों से वर्धा हिन्दी विश्वविद्यालय और दक्षिण भारतीय हिन्दी प्रचारिणी सभा की स्थापना कर देश को दो अनुपम सौगात देकर अनुग्रहित किया। 

आज हम भारत की आज़ादी की शताब्दी की ओर बढ़ रहे हैं, ऐसे दौर में कुछ कुपढ़ लोगों के द्वारा जिस तरह से गाँधी की महिमा की मूर्ति को खंडित करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है, यह निहायती घटियापन है। ऐसे दौर में विद्यालय, महाविद्यालयों में गाँधी की जीवन शैली संबधित पाठ्यक्रम पुनः शुरू किए जाने चाहिए, सहायकवाचन जैसी पुस्तकों के माध्यम से इतिहास को ठीक ढंग से पढ़ाया जाना चाहिए, गाँधी के दर्शन को जनमानस को समझाया जाना चाहिए। इन्हीं सब कार्यों से गाँधी के देश में गाँधी की पुनर्स्थापना होगी।

भारत भू पर ऐसा कोई वर्ग, विधा, कार्य, शासकीय-अशासकीय नीति नहीं है जो बिना गाँधी के दर्शन के पूर्ण होती हो। ऐसे कालखंड में गाँधी को उसी गाँधीवादी दृष्टिकोण के साथ जनमानस के बीच स्थापित किया जाना चाहिए क्योंकि गाँधी एक हाड़-माँस का शरीर या मिट्टी-सीमेंट का पुतला नहीं है बल्कि गाँधी जीते जागते राष्ट्र हैं। गाँधी तो जीवन शैली, विचार, आध्यात्म, नीति निर्धारक, नीति निर्माता, दर्शन और व्यवस्था है। इसी प्रकार गाँधी का अनुसरण युवा पीढ़ी के सजग भविष्य का नवनिर्माण है। इसी तरह गाँधी को आत्मसात करना आज की आवश्यकता है

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अर्पण जैन 'अविचल'

लेखक पत्रकार, स्तंभकार एवं राजनैतिक विश्लेषक हैं एवं मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। सम्पर्क +919893877455, arpan455@gmail.com
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