शख्सियत

फ्रांज फैनन का पाओलो फ्रेयरे पर प्रभाव

 

पाओलो फ्रेयरे हमें इस बात से भी आगाह करते हैं कि उत्पीड़नकारी अवस्था में रहते चले आने के कारण उत्पीड़ित तबका आपसी हिंसा का शिकार होने लगता है। उत्पीड़ित तबकों को अपनी स्थिति का ठीक से भान न हो पाने के कारण एक-दूसरे से आपसी प्रतिस्पर्धा में ही संलग्न रहा करते हैं, एक दूसरे के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल करते हैं। यह चीज उत्पीड़कों के पक्ष में जाती है। वे भी इस बात से सचेत रहते हैं कि उत्पीड़ित तबके के लोगों को कभी भी अपनी वस्तुगत परिस्थिति का सही अंदाजा न हो सके। इसलिए वे किस्म-किस्म की तिकड़मों के माध्यम से कभी भी उत्पीड़ितों को एकजुट नहीं होने देते। उनके अंदर की दरारों को, विभाजनों (जातिगत, धार्मिक व रंग आधारित) को चौड़ा कर उनके भीतर की आपसी एकता को असंभव नहीं तो मुश्किल  जरूर बना देते हैं।

पाओलो फ्रेयरे ने इस समझ को अल्जीरियाई क्रांतिकारी व चिकित्सक फ्रांज फैनन के माध्यम से हासिल किया था। अल्जीरियाई क्रांतिकारी फ्रांज फैनन की चर्चित कृति ‘ रेचेड ऑफ द अर्थ’ का पाओलो फ्रेयरे पर गहरा प्रभाव था। वे अपनी पुस्तक ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’ को वे लगभग समाप्त कर चुके थे उसी वक्त उनको किसी ने फ्रांज फैनन की वह किताब पढ़ने को दी थी। पाओलो फ्रेयरे ने अपनी किताब को फिर से दुबारा लिखा। 1987 में पाओलो फ्रेयरे ने बताया ‘‘सैंटियागो में किसी राजनीतिक कार्य के लिए आए एक युवक ने मुझे ‘रैचेड ऑफ द अर्थ’ किताब दी थी। मैं ‘पैडागोजी ऑफ द ऑप्रेस्ड’ लिख रहा था। जब मैंने फैनन को पढ़ा तक तक मेरी किताब पूरी हो चुकी थी। मुझे किताब को फिर से लिखना पढ़ा।’’

फ्रांज फैनन

फ्रेयरे, फ्रांज फैनन के रैडिकल ह्यूमैनिज्म से काफी प्रभावित थे। जनसंघर्षों में विश्वविद्यालय प्रशिक्षित बुद्धिजीवियों की भूमिका के सम्बन्ध में उनकी सोच तथा उनकी यह चेतावनी कि उत्पीड़ितों के बीच से निकलकर बना अभिजन कैसे नया उत्पीड़क बन सकता है, फैनन का ही प्रभाव था।

अन्यायी व्यवस्था किस प्रकार उत्पीड़ितों को भी हिंसक व बर्बर बना देती है इसका पता उन्हें फैनन के लेखन से चला था। फ्रांज फैनन मनोवैज्ञानिक थे। उन्होंने मरीजों के इलाज के क्रम में इस बात को देखा कि जिन मरीजों को वे अपने अस्पताल में दुरूस्त कर देते हैं, निरोग बना देते हैं, जहाँ वे सामान्य रूप से व्यवहार करने लगते हैं, वापस समाज में जाकर फिर से मनोरोगी बन जाते हैं। कई उदाहरणों से फ्रांज फैनन इस नतीजे पर पहुंचे कि बीमारी की मुख्य जड़ समाज के अंदर है। इसलिए इस समाज को, जो वर्ग आधारित है, बदलना आवयक है।

फैनन विद्रोह को रैशनल आधार पर खड़ा करने के लिए इस तर्क को आगे बढ़ाते हैं कि उन प्रवृत्तियों पर लगाम लगाना आवयक है जो यह मानता है कि ‘‘संगठन या आन्दोलन के अंदर विचारों की विभिन्नता खतरे की घंटी है।’’ तथा ‘‘ उपनिवेशवाद के विरूद्ध एकमात्र सही विचार सही धाराओं की एकता होनी चाहिए।’’ राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग को फैनन ने लालची व हिंसक पूँजीपति वर्ग की संज्ञा दी है। यह पूँजीपति वर्ग या कहें बुर्जआ राज्य को समाज की निगरानी करने वाले यंत्र के रूप में देखता है, सामूहिक संघर्ष के इतिहास का दुरूपयोग अपनी अथॉरिटी को बढ़ाने के लिए करना चाहता है। फैनन इस बात पर बल देते हैं कि राष्ट्रीय चेतना को राजनीतिक व सामाजिक चेतना में परिवर्तित व विकसित होना चाहिए।

विश्वविद्यालय प्रशिक्षित बुद्धिजीवियों को जनता के साथ दोतरफा संवाद कायम करना चाहिए। ऐसा भी नहीं कि उत्पीड़ित जनता की ओर से आने वाली हर बात का स्वागत करना चाहिए । बल्कि उनकी चेतना कैसे आगे बढ़े यह मुख्य चिंता होनी चाहिए।

फ्रांज फैनन का पाओलो फ्रेयरे पर प्रभाव
फ्रांज फैनन

फ्रांज फैनन को पढ़ते हुए पाओलो फ्रेयरे ने एक क्रांतिकारी मानवतावाद को विकसित किया था। इस मानवतावाद के अनुसार उत्पीड़ित लोगों के पूर्ण व बराबरी के आधार पर व्यक्ति की पहचान के प्रति प्रतिबद्ध होना किसी भी मुक्तिकामी क्रिया की पहली शर्त होनी चाहिए। फैनन की तरह ही फ्रेयरे का प्रैक्सिस स्थापित बुद्धिजीवी तथा उस आम जनता, जिसे औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं हो पाई है, के मध्य आपसदारी की बात करता है।

फैनन के अनुसार राजनीतिक शिक्षा का प्राथमिक काम यह है कि वह यह दिखाये कि ‘‘ऐसा कोई प्रसिद्ध व्यक्ति नहीं है जो सब कुछ की जिम्मेवारी ले लेता है। बल्कि सृष्टिकर्ता खुद जनता ही है और यह आम लोग ही हैं जिनके पास जादुई हथियार है। आम आदमी से उपर किसी बड़े नेता के पास नहीं।’’

फ्रेयरे ने भी लिखा है ‘‘जो स्त्री या पुरूष मुक्ति में आस्था रखने की बात तो करते हैं और फिर भी जनता से घनिष्ठता स्थापित करने में असमर्थ रहते हैं क्योंकि वे जनता को बिल्कुल अज्ञानी समझते हैं वे गंभीर आत्मछलावा के शिकार हैं। जनता के लिए काम करने का दावा करने वाले ये बुद्धिजीवी जनता के संपर्क में तो आते हैं परन्तु जनता द्वारा उठाए गए हर कदम को लेकर चिंतित रहते हैं, उनके द्वारा उठाये गए प्रश्न एवं सुझाव को लेकर सशंकित रहते हैं। ये लोग अपने स्टेटस को जनता पर थोपते हैं तथा जिस वर्ग से आए होते हैं उसे भूले नहीं होते हैं उसके प्रति लगाव महसूस करते हैं।’’

फ्रांज फैनन ने इस बात को स्पष्ट किया है कि उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष का महान मुक्तिदायी आवेग जब थम जाता है तब नेताओं द्वारा जनता को इतिहास से बहिष्कृत कर वापस उसी पुराने शांत अवस्था में भेज दिया जाता है। उत्पीड़ित जनता के असंतोष को अभिव्यक्त होने देने के बदले एलीट तबका यह समझता है कि जनता की भूमिका सिर्फ आदेश ग्रहण करने और आज्ञा मानने की होनी चाहिए। पाओलो फ्रेयरे इस बात की शंका व्यक्त करते हैं कि उत्पीड़ितों के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी अपने नेता के हाथो का खिलौना न बन जाये। इससे वह नेता जनता को ठीक उसी प्रकार मैन्यूपुलेट करने वाला बन जाता है जैसा कि पुराने उत्पीड़क रहा करते थे। नेता स्वंयभू नहीं होना चाहिए उन्हें जनता द्वारा चुना जाना चाहिए। नेता का थोपा हुआ नहीं बल्कि चुना हुआ होना चाहिए।

वेलफेयर कार्यक्रम पाखंडी दानशीलता है

उत्पीड़क वर्ग उत्पीड़ितों के लिए समय-समय पर राहत या वेलफेयर कार्यक्रम चलाते हैं ताकि उन्हें कुछ राहत तो मिल सके पर उन शोषणकारी स्थितियों में कोई बदलाव न हो। राहत के इन उपायों के माध्यम से शासक वर्ग, शासितों को भी उस बर्बर ढ़ांचे की ओर ध्यान नहीं जाने देता। पाओलो फ्रेयरे ‘फॉल्स जेनरॉसिटी’ ( नकली दानशीलता) से लोगों का आगाह करने की बात करते हैं। यह नकली दानशीलता सबसे गरीब व दुःख में रहे लोगों को भले तात्कालिक राहत पहुंचाता है लेकिन कभी भी, उनकी, तकलीफ के सही कारणों तक ध्यान पहुंचने ही नहीं देता। जबकि ‘असली दानशीलता’ गरीबों को अन्याय की सामाजिक-आर्थिक जड़ों के कारणों ओर ले जाकर उसे परिवर्तित करने के लिए प्रेरित करना है। आज बिल गेट्स, मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन जैसी संस्थायें यही कार्य करती है। इसी तरह एन.जी.ओ के माध्यम से राहत पहुंचाने वाली नकली दानशीलता लोगों का ध्यान भटकाती है। दरअसल यह अवैध तरीकों से कमाये गए धन के प्रति अपरोधबोध के परिणामस्वरूप ‘नकली दानाशीलता’ पनपती है। पुराने जमाने से ही बड़े-बड़े व्यापारी मंदिर बनवाने, कुंआ खुदवाने का काम किया करते थे। जैसे-जैसे पूँजीवाद अपने बर्बर रूप में प्रकट होता जा रहा है वैसे-वैसे दान देने, राहत चलाने सम्बन्धी ‘नकली दानशीलता’ की बाढ़ आती जा रही है।

शिक्षा की बैंकीय अवधारणा

पाओलो फ्रेयरे की शिक्षाशास्त्रीय अवधारणा में सबसे प्रमुख है ‘ बैंकिंग कॉन्सेप्ट ऑफ एजुकेशन’ यानी शिक्षा की बैंकीय अवधारणा। इसके अनुसार उत्पीड़क तबका यह काम लम्बे काल से चली आ रही पारंपरिक शिक्षा पद्धति के द्वारा करता है। इस शिक्षा पद्धति में यह बात स्वतःसिद्ध होती है कि शिक्षक ज्ञान का मालिक है जबकि शिष्य अज्ञानी। उन्हें सिर्फ शिक्षक द्वारा दिये जाने वाले ज्ञान को ग्रहण करना होता है। शिक्षक सक्रिय एजेंट होता है जबकि छात्र निष्क्रिय उपभोक्ता। शिक्षक द्वारा दिये जाने वाले ज्ञान को छात्र को हासिल करना होता है।

पाओलो फ्रेयरे

पाओलो फ्रेयरे इसे ‘बैंकिंग कॉन्सेप्ट आफ एजुकेशन’ कहा करते थे। इसके अनुसार शिक्षक के पास ज्ञान व सूचनाओं का भंडार है और जिसे छात्र बैंक की तरह एक-एक जमा करता है। छात्र खाली बर्तन की तरह है जिसमें शिक्षक ज्ञान भरता जा रहा है। जिस तरह बैंक में पैसा जमा किया जाता है ठीक उसी प्रकार छात्र शिक्षक द्वारा दी जा रही सूचनाओं या ज्ञान को इकट्ठा करने का काम किया करता है। फिर उन सूचनाओं व ज्ञान को फिर से दूसरों के लिए पुर्नउत्पादित करता है छात्रों को ज्ञान के बजाये शिक्षकों द्वारा दिए गए ज्ञान को याद कर, रट कर उसे फिर से कहीं दुहरा सके। शिक्षक ‘सब्जेक्ट’ जबकि छात्र ‘ ऑब्जेक्ट’ बन जाता है।

अन्याय को बरकरार रखने में मदद करता है शिक्षा की बैंकीय अवधारणा।

पाओलो फ्रेयरे के अनुसार ‘बैंकिंग सिस्टम ऑफ एजुकेशन’ पारंपरिक शिक्षा पद्धति को बरकरार रखना चाहती है। यह पारंपरिक शिक्षा पद्धति अन्याय व जुल्म आधारित व्यवस्था को बरकरार रखने में मदद पहुंचाता है। क्योंकि यह छात्रों में आलोचनात्मक चिंतन को पनपने नहीं देता। अपने आस-पास की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के प्रति उनका रूख आलोचनात्मक के बदले समर्पण या स्वीकार का होता है। पाओलो फ्रेयरे की शिक्षा पद्धति में उत्पीड़क व्यवस्था पर सबसे पहले सवाल उठाना, प्रश्न उठाना सिखाया जाता है। इसलिए वे छात्रों में भी प्रश्न करने की आदत को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं। प्रश्न करने के बहाने अन्यायपूर्ण व्यवस्था के कारणों की असल तक पहुंचने का प्रयास और उसे बदल डालने की शुरूआत ‘उत्पीड़ितों के शिक्षाशास्त्र’ की प्रमुख विशेषता है।

उत्पीड़ितों के बीच से नया उत्पीड़क, अभिजन उत्पीड़क

पाओलो फ्रेयरे इस बात की चेतावनी देते हैं कि उत्पीड़ित तबकों के पास यदि मुक्ति की व्यापक परिकल्पना नहीं है, वैसी स्थिति में, खुद उनके नया उत्पीड़क बन जाने की संभावना बनी रहती है। यह अभिजन उत्पीड़क कई बार पुराने उत्पीड़क के मुकाबले अधिक हिंसक व्यवहार करता है। हम सभी जानते हैं कि पुराने समय में जमींदार से अधिक उसका गुमाश्ता, उसका बराहिल (जो खुद उत्पीड़ित तबके से आते थे) अधिक क्रूर व्यवहार किया करता है ताकि अपने मालिक के समक्ष अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सके।

पाओलो फ्रेयरे

पाओलो फ्रेयरे उत्पीड़ितों तबकों के अंदर से पैदा होने वाले नये उत्पीड़कों के प्रति सावधान करते हैं। यह उत्पीड़ितों में भ्रम पैदा करता है। इन नये व अभिजन उत्पीड़कों को मॉडल के रूप में पेश किया जाता है और यह इलहाम पैदा करने की कोशिश की जाती है कि अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के माध्यम से आगे बढ़ा जा सकता है। ये नये उत्पीड़क इस बात को उत्पीड़ितों के बीच स्थापित करने का प्रयास करते हैं कि जुल्म पर आधारित इस व्यवस्था को बदले बिना ही अपनी स्थिति को बेहतर बनाया जा सकता है। बिहार व उत्तरप्रदेश में सामाजिक न्याय के नाम पर ओ.बी.सी जातियों के बीच से उभरी ताकतें किस प्रकार दलितों के नये उत्पीड़क में तब्दील हो गयी है इसे हम अपनी आँखों के सामने देखते रहे हैं।

(अगले अंक में पढ़ें ” पाओलो फ्रेयरे और दक्षिण अफ्रीका)

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अनीश अंकुर

लेखक संस्कृतिकर्मी व स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क- +919835430548, anish.ankur@gmail.com
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