कम्युनिस्टों और समाजवादियों की भारी भूलें
यह जानना भी दिलचस्प है कि वैसे तो कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों ने संविधान सभा का और भारत के लिए नए संविधान निर्माण का बहिष्कार किया था, लेकिन दोनों ही ने इसी संविधान के प्रावधानों के अंर्तगत चुनाव में भाग लिया और शपथें भी लीं। कम्युनिस्ट पार्टी ने 16 सीटें और कुल मतदान का महज़ 3.29% वोट पाया जबकि सोशलिस्ट पार्टी ने12 सीटें और 10.59% वोट। यह जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। वे पार्टी के ऐसे प्रदर्शन से हताश हो गए और जे. बी. कृपलानी की किसान मजदूर प्रजा पार्टी (के एम पी पी), जो एक दक्षिण पंथी पार्टी थी, के साथ मिल गये। सोपा(सोशलिस्ट पार्टी) तथा के एम पी पी का विलय हो गया और नई पार्टी का नाम हो गया प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (प्रसोपा)।
कुछ समय बाद प्रसोपा के नेताओं को अहसास हुआ कि काँग्रेस को छोड़कर उन्होंने गलती की है और कांग्रेस के साथ मिलने के लिए वे बातचीत करने लगे। जयप्रकाश नारायण ने प्रधान मन्त्री नेहरू के साथ पत्राचार शुरु किया और उनसे मिलना आरम्भ कर दिया। इधर पार्टी के महामन्त्री अशोक मेहता ने पार्टी के मुखपत्र ‘जनता’ में ‘कम्पलशन्स ऑफ़ अ बैकवार्ड इकॉनमी एंड एरियाज ऑफ को-आपरेशन’ नाम से लेख लिखा। इससे पार्टी में एक ख़तरे की घण्टी बज गयी। कांग्रेस के साथ सहयोग के मामले में पार्टी के सामान्य सदस्यों तक में काफी मतान्तर होने लगा और अशोक मेहता ने प्रसोपा के महासचिव के पद से त्यागपत्र दे दिया।
इन सभी बातों पर चर्चा के लिए 15-16 जून 1953 को बैतूल (म.प्र.) में प्रसोपा का विशेष सम्मेलन बुलाया गया। जेपी ने स्वीकार किया कि पण्डित नेहरू से मिलने के लिए उन्हें उनका पत्र मिला था। वे कॉग्रेस और प्रसोपा के बीच आपसी सहयोग के क्षेत्रों की चर्चा के लिए जवाहर लाल नेहरू से दिल्ली में तीन दिन मिले थे जिसके बाद जेपी ने नेहरू को दोनों पार्टियों के बीच सहयोग के 14 बिंदुओं वाला पत्र लिखा था। यह पत्र बहुत चर्चा में रहा था। जेपी के अनुसार, अध्यक्ष जे बी कृपलानी इस कदम के लिए सहमत थे, लेकिन आचार्य नरेंद्र देव का मानना था कि काँग्रेस के साथ मिलकर काम करना असंभव है। नेहरू और जेपी के बीच बातचीत की चर्चा जंगल की आग की तरह फैली और पार्टी के कई तबकों में यह महसूस किया जाने लगा कि जेपी नेहरू के प्रभाव में आ गए हैं और वे उप प्रधान मन्त्री के रूप में उनकी पार्टी में शामिल होने वाले हैं।
बैतूल सम्मेलन के बाद जेपी राजनीति से स्वयं को दूर रखने लगे और ‘सर्वोदय’ की ओर बढ़ने लगे। इधर प्रसोपा सरकार द्वारा त्रावणकोर-कोचीन (अब केरल) में पुलिस फायरिंग के मुद्दे पर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी टूट गयी और 1955 में राममनोहर लोहिया ने अपनी अलग पार्टी- सोशलिस्ट पार्टी बना ली। इसी वर्ष भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रसिद्ध अवाडी प्रस्ताव पारित हुआ जिसमें पार्टी के लक्ष्य के रूप में विकास की सोशलिस्ट अवधारणा का प्रस्ताव पारित हुआ। एक वर्ष के बाद भारतीय संसद ने ‘विकास का सोशलिस्ट ढांचा’ को देश की नीति के रूप में मान्यता दी। इस नीति में ही भूमि सुधार और उद्योगों की नियमावलियां शामिल की गयीं। पर आश्चर्यजनक रूप से, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट दोनों ही पार्टियों ने काँग्रेस का और नेहरू सरकार की समाजवादी नीतियों का घोर विरोध किया।
रोचक तो यह बात है कि पचास के दशक में सोशलिस्टों ने दक्षिणवादी ताकतों के साथ मिलकर पंडित नेहरू का विरोध करना शुरू किया और हिन्दू महासभा तथा जनसंघ जैसी दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ मेलजोल बढ़ाना शुरू कर दिया (राममनोहर लोहिया 1952 के आम चुनाव में फूलपुर संसदीय क्षेत्र से नेहरू के विरुद्ध हिन्दू महासभा के उम्मीदवार प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का साथ देने लगे) और भी दिलचस्प यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वे इज़रायल का समर्थन करने लगे। यह फिलिस्तीन और ‘जियनिस्ट’ इज़रायल को लेकर, स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय महात्मा गाँधी तथा कांग्रेस द्वारा अपनाई गयी नीति के विरुद्ध था। इज़रायल के साथ नजदीकी बनाने में सोशलिस्ट सबसे आगे थे। उन्होंने इज़रायल का दौरा करना शुरू किया। इस सिलसिले में जयप्रकाश नारायण द्वारा सितम्बर 1958 में इज़रायल के दौरे की यहाँ खास तौर पर चर्चा की जा सकती है।
इज़रायल का दौरा करने वाले अन्य प्रमुख सोशलिस्टों में थे – जे.बी.कृपलानी, अशोक मेहता, एन.जी.गोरे, हरि विष्णु कामथ, प्रेम भसीन, नाथ पै, मधु दण्डवते, सुरेन्द्र मोहन, जॉर्ज फ़र्नान्डिस, राजवंत सिंह, प्रदीप बोस, अनुसूया लिमये, कमला सिन्हा आदि। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता इंडो-इज़रायल सहयोग के समर्थन में भी काफी सक्रिय हो गए। इजरायल की लेबर पार्टी- ‘मापी’ पार्टी- की प्रसोपा के साथ खूब घनिष्ठता रही। ये दोनों ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनल’ के सदस्य थे।
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घरेलू मोर्चे पर, 1957 तथा 1962 के आम चुनावों के परिणामों ने दोनों समाजवादी पार्टियों- सपा और प्रसोपा तथा दो दक्षिणपंथी पार्टियों- स्वतन्त्र पार्टी तथा भारतीय जनसंघ को बिल्कुल किनारे धकेल दिया। 1962 आम चुनाव की करारी हार के बाद लोहिया ने ग़ैरकांग्रेसवाद की रणनीति बनायी। अगले वर्ष 1963 में राजकोट,अमरोहा,फर्रुखाबाद और जौनपुर – चार लोक सभा उप चुनाव होने वाले थे । मीनू मसानी, जे बी कृपलानी, डॉ. लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय अलग अलग पार्टियों से इस चुनाव में उम्मीदवार बने। मीनू मसानी राजकोट से स्वतन्त्र पार्टी से, लोहिया फर्रुखाबाद से सोशलिस्ट पार्टी से, कृपलानी अमरोहा से निर्दलीय और दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से जनसंघ पार्टी से खड़े हुए। सभी ने मिलकर काँग्रेस पार्टी के विरुद्ध विपक्षी पार्टी के साझा उम्मीदवार के रूप में लड़ा और दीनदयाल उपाध्याय को छोड़कर सभी विजयी हुए। इसने काँग्रेस के विपक्षी खेमे को एक नई गति दे दी।
1962 के चीन आक्रमण और भारत की हार ने नेहरू को कमज़ोर कर दिया था। इसी समय लोहिया ने विपक्षी एकता का आह्वान किया और काँग्रेस को हराने के लिए उन्होंने विपक्षी दलों की ओर से साझा उम्मीदवार खड़ा करने की सलाह दी ताकि विपक्षी दलों के वोट बंट न सकें। दिसम्बर 1963 के अपनी पार्टी के कलकत्ता सम्मेलन में उन्होंने गैरकांग्रेसवाद के अपने दांव- पेंच को विस्तार से समझाया। यह गैरकांग्रेसवाद की शुरुआत थी। इसके साथ ही उन्होंने प्रसोपा से मेल की भी युक्ति लगानी शुरू कर दी। जून 1964 में प्रसोपा और सपा ने विलय का निश्चय किया और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा)के नाम से एक नई पार्टी बनी।लेकिन यह विलय ज़्यादा दिन टिक नही सका और जनवरी 1965 में बनारस में यह पार्टी टूट गयी और बनारस में ही एक समानांतर आयोजन में प्रसोपा पुनर्गठित की गयी। दूसरी तरफ 1964 में ही प्रसोपा में दरार आ चुकी थी और उसमें से एक ग्रुप कांग्रेस में मिल गया था, जिसके अगुआ अशोक मेहता, एम एस गुरूपदस्वामी,गेंदा सिंह,चन्द्रशेखर आदि थे।
1967 के चौथे आम चुनाव में लोहिया ने काँग्रेस के विरुद्ध एक संयुक्त विपक्षी मंच का आह्वान किया। यह बहुत ही सफल रहा और उ.प्र.तथा बिहार के साथ देश के नौ राज्यों में संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकार सत्ता में आई और इस तरह काँग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी। संभवतः यह पहली बार था कि कई धाराओं का एक अनोखा सम्मिश्रण बना था जिसमें एक तरफ स्वतन्त्र पार्टी और जनसंघ जैसी दक्षिणपंथी पार्टियाँ तो दूसरी तरफ़ संसोपा,सपा, माकपा, भाकपा जैसी वामपंथी और समाजवादी पार्टियाँ मिलकर एक हो गयीं और इस अनोखे सम्मिश्रण ने सरकारें बनायीं।
1969 के आखिर में काँग्रेस पार्टी टूट गयी। पुराने और वरिष्ठ कांग्रेसियों ने काँग्रेस(ओ) बनाया और इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में दूसरा ग्रुप सत्ता में बना रहा। काँग्रेस के पुराने समाजवादियों और वामपंथियों ने इंदिरा गाँधी का साथ दिया और इंदिरा गाँधी ने स्वयं को एक समाजवादी की तरह तथा ग़रीबो और पददलितों के हितैषी के रूप में प्रस्तुत किया। वो बहुमत में नहीं थीं, इसलिए 1970 में उन्होंने लोकसभा भंग करवा दी और मध्यावधि चुनाव की घोषणा करवा दी। मध्यावधि आम चुनाव में इंदिरा गाँधी भारी बहुमत से विजयी हुईं और सत्ता में लौट आयीं। कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर समाजवादी पार्टियों – संसोपा और प्रसोपा सहित सभी बड़ी पार्टियों की करारी हार हुई। परिणाम यह हुआ कि दोनों समाजवादी पार्टियाँ विलीन हो गयीं और पुनः एक पार्टी में तब्दील हो गयीं ।
सत्तर के दशक के प्रारम्भ में गुजरात और बिहार में छात्र आन्दोलन शुरु हुआ जो बाद में ‘जेपी मूवमेंट’ के रूप में जाना गया। जब यह आन्दोलन शिखर पर था, उस समय जेपी ने 5 मार्च 1975 को सभी विपक्षी पार्टियों को ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया।इधर 12 जून 1975 को , इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनाव में भ्रष्टाचार का सहारा लेने के आरोप में इंदिरा गाँधी को दोषी पाकर लोक सभा के उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। इंदिरा गाँधी के लिए यह बहुत बड़ा धक्का था और 14 दिन के अंदर, 25 जून 1975 को, उन्होंने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी।
फ्रांस के विद्वान क्रिस्टोफ जैफरलॉट के अनुसार “सत्तर के दशक के पूर्व तक विपक्षी पार्टियों द्वारा जनसंघ को सूची में रखने के शायद ही कोई प्रयास हुए। कुछ प्रयास राममनोहर लोहिया द्वारा गैरकांग्रेसवाद के पोषण के और हिन्दी पट्टी में संविद सरकार के गठन के तहत हुआ, लेकिन वे अल्पजीवी थे। ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों के लिए जनसंघ साम्प्रदायिक पार्टी थी और उन संवैधानिक ग़ैर साम्प्रदायिक ढांचों में ठीक नहीं बैठती थी, जिसका भारतीय गणतंत्र ने 1950 में निर्माण किया था। विपक्षियों के संयुक्त मोर्चे में जनसंघ का प्रथम जायज प्रवेश उस घटना को माना जाएगा जब सत्तर के दशक के आरम्भ में ‘जेपी या बिहार आन्दोलन’ की प्रबन्ध परिषद- छात्र संघर्ष समिति(सी एस एस) के 24 सदस्यों में एक तिहाई सदस्य आर एस एस की छात्र इकाई ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ से चुने गए, जब कि सिर्फ चार समाजवादी, दो गाँधीवादी तरुण शांति सेना से और दो कांग्रेस (ओ) से थे।”
वे आगे लिखते हैँ, “मार्च 1973 में सीएसएस जेपी की तरफ हो गया,जो स्वयं आरएसएस के नेताओं के सम्पर्क में थे और जून 1973 में जेपी ने एम.एस. गोलवलकर की स्मृति में श्रद्धांजलि सभा की अध्यक्षता की (और 20 वर्ष पहले, आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक, नानाजी देशमुख ने भूदान के कार्यक्रम में हिस्सा लिया था)। जब जेपी कांग्रेस के विरुद्ध छात्र आन्दोलन के नेतृत्व के लिए तैयार हुए, देशमुख उनके मुख्य परिसहायक तथा सरकार विरोधी संगठन कर्ताओं में प्रमुख रहे। इस प्रकार जनसंघ अब ‘अछूत’ नहीं रह गया। यह तो फिर भी कम था। इसके वार्षिक कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए जेपी राजी हो गए और उसमें उन्होंने कहा,”यदि आप फासिस्ट और साम्प्रदायिक हैं तो मैं भी फ़ासिस्ट और साम्प्रदायिक हूँ”
ऐसे तो आपातकाल के पहले से ही जनसंघ राजनीति की मुख्य धारा में आ चुकी थी, पर यह एक निर्णायक मोड़ नहीं था, क्योकि जब समाजवादियों और बीएलडी नेताओं ने देखा कि पूर्व जनसंघी आरएसएस से अपनी निष्ठा बनाए हुए हैं, तो जनता पार्टी दोहरी सद्स्यता के विवाद पर टूट गयी। तब पूर्व जनसंघियों ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) बनाई और शिवसेना छोड़कर अन्य किसी पार्टी का इसे साथ नहीं मिला। यह फिर तब हुआ जब 1989 में भ्रष्टचार के मुद्दे पर कांग्रेस के विरुद्ध जनता पार्टी के नेताओं ने संयुक्त गठबन्धन बनाने का निश्चय किया। यह गठबन्धन ज्यादा दिन नहीं टिका पर अबतक बीजेपी कुछ अच्छा करने वाली राजनीति की मुख्य धारा में आ चुकी थी। 1980 के अंत तक ग़ैरधर्मनिरपेक्षता का यह भंडारघर हर तरफ से वैध माना जाना लगा था।
यहाँ यह भी बताना जरूरी है (यद्यपि किसी भी तरह उस आपातकाल को उचित नहीं ठहराया जा सकता, जिसके अंतर्गत देश भर के एक लाख से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं को बंदी बना लिया गया था और प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दी गयी थी) कि आपातकाल में 1976 में 42वें संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ शब्द जोड़ा गया। इसका निहितार्थ था सामाजिक एवं आर्थिक समानता। इस संदर्भ में सामाजिक समानता का अर्थ था महज़ जाति, रंग, सिद्धान्त, लिंग, धर्म और भाषा के आधार पर भेद का निषेध। सामाजिक समानता के तहत सभी का दर्जा तथा अवसर समान है। इस संदर्भ में आर्थिक समानता का अर्थ है कि सरकार द्वारा सभी को समान धन संपत्ति के बंटवारे का प्रयास तथा सभी को अच्छा जीवन स्तर प्रदान करना।
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आठवें दशक के दौरान(1980-90) लगभग सभी वामपंथी और तथाकथित सोशलिस्ट पार्टियाँ इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली काँग्रेस का विरोध करने के लिए, आरएसएस के राजनीतिक घटक या उसके विस्तारित रूप- भारतीय जनता पार्टी के साथ, हाथ में हाथ मिला चुकी थीं। कुछ राज्यों में इन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बीजेपी के साथ गठबन्धन भी बनाया। उस दशक के उत्तरार्ध में जब काँग्रेस से निष्कासित किये जाने के बाद व्ही पी सिंह ने ‘जनमोर्चा’ बनाया तो उसमें बीजेपी सहित सभी वाम तथा सोशलिस्ट पार्टियाँ धड़ाधड़ शामिल होती चली गयीं। 1977 में जनता प्रयोग के बाद यह दूसरी बार था जब आरएसएस-बीजेपी के सहयोग से राष्ट्रीय स्तर पर गैर कॉंग्रेसी सरकार बनी।
1990 में वही पी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार के पतन के बाद मण्डल (सामाजिक न्याय) बनाम कमण्डल (साम्प्रदायिक राजनीति) की शुरुआत हुई और तब से बीजेपी ने मुड़कर नहीं देखा है। आठवीं लोक सभा में बीजेपी के सिर्फ दो सदस्य थे लेकिन नौवीं (1989-91) में उसके 89 सदस्य थे, 1991 में यह बढ़कर 121, 1996 में 163, 1998 में 183, 1999 में189 हो गया और 2014 में 282 सदस्यों के साथ इसने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया।
समय की मांग यह है कि वे सब जो समाजवाद के सच्चे मिजाज में, उसके आदर्शों, उसकी नीतियों में विश्वास रखते हैं और जो किसी भी प्रकार के समाजवादी आन्दोलन से जुड़े हैं साथ मिल बैठ कर आत्म निरीक्षण करें। वे की हुई अपनी भयंकर भूलों को भी पहचानें, पूरी विनम्रता के साथ उसे स्वीकारें और उसके निराकरण पर सोचें।
(‘जनता’ जनवरी 2016 से साभार)