
जैसा कि पहले के लेखों में ये तर्क प्रस्तुत किया गया है बिहार में जातिवाद की बढ़ोतरी तथा कांग्रेस सहित अन्य दलों में जमींदारों के प्रवेश के बीच गहरा सम्बन्ध है। लोहिया के सूत्रीकरण ने पिछड़ी जाति के धनाढ्य व अमीर तबकों को अपनी ओर आकृष्ट किया। कांग्रेस में उच्च जाति के जमींदार और सोशलिस्ट पार्टी में पिछड़ी जाति के जमींदारों का बोलबाला हो गया विशेषकर मधेपुरा के यादव व नालंदा के कुर्मी जमींदारों का। जाति का जहर अब बिहार की राजनीति में घुलने लगा था। मधेपुरा जिले के जमींदार बिन्देश्वर प्रसाद मंडल, जिनके नाम से मंडल कमीशन जाना जाता है, इसके प्रमुख सूत्रधारों में से थे।
बी.पी. मंडल सहरसा जिले के अत्यंत ही प्रतिष्ठित और बड़े भूपति थे। जब बी.पी.मंडल पटना कॉलेज के मिंटो हिंदू हॉस्टल में रहकर अध्ययन कर रहे थे, उस समय भी वहाँ उनकी देखभाल के लिए एक नौकर था। पटना के चर्चित समाजशास्त्री एम.एन.कर्ण बी.पी.मंडल के बारे में एक बताते हैं ‘‘ पिछड़ी जाति के बावजूद उनके घर के आ्रगे से कोई भी गुजरता उसे अपना जूता अपने माथे पर रखना पड़ता था। ब्राह्मण भी इसके अपवाद नहीं थे। उनको भी अपना जूता अपने माथे पर रख कर गुजरना पड़ता था।’’ वह बहुत लंबे समय तक कांग्रेस की राजनीति में भी सक्रिय रहे और वह विधानसभा के भी सदस्य थे। भूमि सुधार के बाद भी उनके पास बहुत जमीन थी, जहाँ बहुत व्यापक स्तर पर मजदूर खेती का काम करते थे। बी.पी.मंडल ने आगे जो कारनामे किए वो दिलचस्प हैं।
1967 के चुनावों में बी.पी.मंडल लोकसभा के लिए चुने गए परन्तु वह इससे संतुष्ट नहीं थे क्योंकि उनका उद्देश्य मुख्यमन्त्री बनना था। 1967 के पहले गैरसंविद सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी के मंत्रियों, चंद्रशेखर सिंह और इंद्रदीप सिंह द्वारा, उस सरकार में गरीबों को भूमि का पर्चा दिलाने तथा भूमि संबंधों में बदलाव की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए। कम्युनिस्ट मंत्रियों ने बिहार में टाटा की जमींदारी को समाप्त करने का निर्णय लिया। लेकिन उस सरकार को बी.पी.मंडल के नेतृत्व में जल्द ही गिरा दिया गया।
प्रसिद्ध समाजवादी नेता मधु लिमये के अनुसार ‘‘ बिहार सरकार के गिरने के दो कारण थे। लोहिया ने एक आचार संहिता को लागू करने का प्रयास किया था लेकिन बी.पी.मंडल के नेतृत्व में उपजा स्वार्थ, लालच और जातीयता की ताकतों ने उन्हें निराश कर दिया। ’’ मधु लिमये ने आगे यह भी कहा ‘‘ बिहार में पहली गैरकांग्रेसी सरकार में मंडल का प्रवेश यह दर्शाता है कि जातीयता के कीटाणु लोहिया के विश्वासपात्रों के बीच भी फैल गए थे। लोहिया की जाति से संबंधित नीति वास्तव में जाति प्रथा के विनाश की नीति थी। संसोपा ने भी इसका समर्थन किया। परन्तु जैसे ही उन्हें सत्ता प्राप्त हुई संसोपा के लोग इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि बी.पी.मंडल जाति और जातीयता का अनुरोध करके संविद के विधायकों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हुए थे। जातिवाद के कीटाणु राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए इतनी प्रबलता के साथ फैल चुके थे कि लोहिया के सबसे अंतरंग और विश्वासी समर्थक जगदेव प्रसाद जो कोईरी थे, उन्होंने भी मन्त्री बनने के लिए विश्वासघात किया। जगदेव प्रसाद खुद को बिहार का लेनिन कहा करते थे। मन्त्री पद के लिए उनके इस दावे की उपेक्षा कर्पूरी ठाकुर ने की थी।’’ बाद में जगदेव प्रसाद की हत्या हो गयी।
सरकार में बी.पी.मंडल को लेकर शुरू से ही गहरा विवाद था। लोकसभा सदस्य होने के बाजूद उन्हें संविद सरकार में मन्त्री बनाया गया था। डॉ. लोहिया इसके सख्त खिलाफ थे और वह चाहते थे कि श्री मंडल लोकसभा में ही रहें। लेकिन बी.पी. मंडल ने संसोपा और अन्य पार्टियों की पिछड़ी जातियों के असंतुष्ट विधायको को मन्त्रीपद का लालच देकर फोड़ लिया और शोषित दल का गठन किया। मंडल तब संसोपा की संसदीय समिति के अध्यक्ष थे। संसोपा के प्रदेश मन्त्री जगदेव प्रसाद भी उनके साथ हो गए। उन्हें इस बात का क्षोभ था कि संविद सरकार में उन्हें मन्त्री नहीं बनाया गया जबकि उनसे कमतर प्रतिभा के लोग, उनकी भाषा में ‘दब’ , उपेंद्रनाथ वर्मा को मन्त्री पद का सुख भोग रहे थे। बी.पी.मंडल को विधान परिषद में नामजद करने के लिए तीन दिन के लिए सतीष प्रसाद सिंह को मुख्यमन्त्री बनाया गया। वैसे तीन दिन के लिए ही सही जगदेव प्रसाद मुख्यमन्त्री बनना चाहते थे लेकिन बी.पी.मंडल को जगदेव प्रसाद की दबंगियत से खतरा महसूस होता था कि कहीं जगदेव प्रसाद मुख्यमन्त्री पद छोड़े ही नहीं। मंडल की शोषित दल की सरकार को कांग्रेस ने समर्थन किया। शोषित दल ने संविद सरकार पर ‘‘ पिछड़ पावे सौ में साठ’’ नीति लागू नहीं करने की आलोचना की थी। बहरहाल, इस सरकार में विभिन्न पार्टियों से टूटकर आए शोषित दल के सभी 38 विधायकों को मन्त्री बना दिया गया। यह सरकार कुछ ही दिन चली। फिर 22 मार्च से 29 जून तक भोला पासवान शास्त्री की सरकार ने शासन किया। 29 जून 1968 से 26 फरवरी 1969 तक बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू रहा।
बी.पी मंडल ने अपने मात्र 47 दिन के कार्यकाल में टाटा की जमींदारी को फिर से बहाल किया। रामगढ़ के राजा बहादुर उनके साथ इसलिए थे क्योंकि सरकार उनके और उनके लोगों के विरूद्ध चल रहे मुकदमे को वापस लेने को तैयार नहीं थी। बटाईदारी कानून से संबंधित कानून को अभी लागू करने की अभी इच्छुक नहीं थी क्योंकि उनके अनुसार अभी समय अनुकूल नहीं था, भूमि कर को लागू करने का प्रस्ताव ताक पर रख दिया गया क्योंकि इससे भूपतियों और धनी किसानों को बहुत अधिक मात्रा में कर देना पड़ता। अंत में ऋण वसूली से संबंधित छोटे किसानों को जितनी भी सुविधाएं और छूट दी गयी थी, उन्हें वापस ले लिया गया था। बी.पी.मंडल के मन्त्रीपरिषद में अनेक धनी और प्रख्यात भूपति थे जैसे – बी.पी.मंडल, शत्रुमर्दन शाही, महंत सुखदेव गिरि, महंत रामकिशोर दास और स्वामी विवेकानंद। ये सभी प्रतिक्रांतिकारी कदम जो पिछड़ी जाति के एक जमींदार द्वारा अमल में लाए जा रहे थे।
अब यदि इसे जाति के फ्रेमवर्क में देखा जाए तो भूमिहार जाति के कम्युनिस्ट नेताओं ने पिछड़ी-दलित जाति के गरीब किसानों के लिए भूमि उपलब्ध कराने की कोशिश की जबकि पिछड़ी जाति के जमींदार बी.पी.मडल पिछड़े-दलितों के गरीब किसानों को जमीन देने के खिलाफ खडे़ हो गए। जाति की खोल में छिपे जमींदार का असली चेहरा नंगा हो रहा था।
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1969 में मध्यावधि चुनाव हुआ। संसोपा, संगठन कांग्रेस, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी ने मिलकर संयुक्त दल का गठन किया। संसोपा विधायक दल के नेता रामानन्द तिवारी को बनाया गया। रामानन्द तिवारी ने सरकार बनाने का दावा किया। लेकिन जनसंघ और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने पर पार्टी में ही मतभेद था। कर्पूरी ठाकुर भी नहीं चाहते थे कि रामानन्द तिवारी जनसंघ के साथ मिलकर सरकार बनायें। उन्होंने ही तत्कालीन एम.एल.सी. इंद्र कुमार से यह बयान दिलवाया कि अगर संसोपा के अध्यक्ष सिंडिकेट वालों के साथ सरकार बनायेंगे तो पार्टी में दरार बन जाएगी। इस दौरान 16 फरवरी को दारोगा प्रसाद राय (लालू प्रसाद के बड़े बेटे तेजप्रताप की पत्नी ऐश्वर्या के दादा) बिहार के कुछ दिनों के लिए मुख्यमन्त्री बने। इसे इंदिरा कांग्रेस की सरकार को भाकपा, प्रसोपा, शोषित दल, एल.सी.डी, झारखण्ड जैसी पार्टियों का समर्थन प्राप्त था। सीपीआई ने पहली बार कांग्रेस को समर्थन दिया था। इस सरकार के गठन के बाद भी संसोपा में अंदरूनी विवाद थमा नहीं बल्कि अगड़े-पिछड़े का प्रश्न पार्टी के अंदर आ गया। पिछड़े संसोपाइयों ने लोहिया के कट्टर अनुयायी रामानन्द तिवारी को ‘ब्राह्मण’ बना दिया। डॉ. लोहिया का अक्टुबर 1967 में ही देहाँत हो गया था। संसोपा की ओर से ही दारोगा प्रसाद राय की सरकर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया। सरकार गिर गयी। पिछड़े नेताओं का मानना था कि रामानन्द तिवारी को किसी कीमत पर किसी ब्राह्मण को मुख्यमन्त्री नहीं बनाना चाहिए। पार्टी में टूट का खतरा उत्पन्न हो गया था। केंद्रीय नेतृत्व की पहल से 22 जून 1971 को पटना में संसोपा की राज्य ईकाई की बैठक में रामानन्द तिवारी के स्थान पर कर्पूरी ठाकुर को विधायक दल का नेता चुना गया। इसके साथ ही कर्पूरी ठाकुर का जनसंघ विरोध भी समाप्त हो गया। पिछड़ी जाति के नेताओं में बेहद सम्मानित कर्पूरी ठाकुर का ये हाल था। चार वर्षों के दौरान पिछड़ी-दलित जातियों के पाँच मुख्यमन्त्री बने। बाद के दिनों में कर्पूरी ठाकुर का जो त्रासद अंत हुआ उसे बिहार में ‘बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम’ पुस्तक से ये थोड़ा लंबा उद्धरण धैर्य से पढ़ने की जरूरत है| ‘‘1980 के चुनाव में पराजय के बाद गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा विपक्ष लोकदल, लोकदल (च) और जनता पार्टी में बिखरा रहा। इसी बिखराव के दौर में पिछड़ों के नेता कर्पूरी ठाकुर 1984 का लोकसभा चुनाव हार गए। तब तक वे पिछड़ों की स्थापित राजनीति के धुरी बन चुके थे। 1989 में मृत्यु के पहले विधान सभा अध्यक्ष शिवचंद्र झा द्वारा विधान सभा में विरोधी दल नेता पद से हटाये जाने के नाजायज तरीके से उन्हें गहरा सदमा लगा था। शिवचंद्र झा को इस कार्रवाई के लिए भूमिका तैयार की थी एक यादव विधायक श्रीनारायण यादव ने। जीवन के अंति क्षणों में श्री ठाकुर को पार्टी के अंदर के महत्वाकांक्षी यादव विधायकों से त्रस्त रहना पड़ा था। वह उन्हें अपने नियंत्रण में रखना चाहते थे। इन्हीं कारणों से अनेक यादव नेता कर्पूरी ठाकुर को छोड़कर लोकदल (च) में चले गए थे। उनमें से एक थे लालू प्रसाद यादव। पार्टी की एक बैठक में कर्पूरी ठाकुर ने यहाँ तक कह दिया था कि अगर वह यादव कुल में पैदा होते तो इस तरह उन्हें अपमानित नहीं किया जाता। बहरहाल कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद पिछड़ों की विपक्ष की राजनीति की कोई धुरी नहीं रही। इसर रिक्कता के बीच लालू यादव का पदार्पण हुआ। वे विरोधी दल के नेता बन गए। उन्हें ‘कपटी ठाकुर’ की कुर्सी मिल गयी। लालू प्रसाद सहित अनेक यादव विधायक कर्पूरी ठाकुर को ‘ कपटी ठाकुर’ कहते थे।
वैसे लालू प्रसाद का नाम विरोधी दल के नेता पद के लिए प्रस्तावित नहीं था। देवी लाल और शरद यादव अनूप लाल यादव का नाम प्रायः तय चुके थे। लेकिन अनूप लाल ने एक राजनीतिक भूल कर दी- हेमवंती नंदन बहुगुणा को अपने घर भेज दे डाला। इससे देवी लाल और शरद बिदक गए। दूसरे यादव नेता की तलाश शुरू हुई तो लालू प्रसाद का नाम आया। कर्पूरी ठाकुर के बाद उन्हें एक यादव नेता की तलाश थी। शरद लालू को जानते थे। संसद में वे उनके साथ थे और उन्हें ‘जोकर’ (रामेश्वर सिंह कश्यप के मशहूर पात्र ‘लोहा सिंह’ का नकल उतारने के कारण) कहते थे। मजबूरी में सही लालू देवीलाल और शरद यादव की पसंद बन गए।’’
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इन सारे घटनाक्रमों को सिर्फ इस कारण विस्तार से लाया गया कि पिछड़ी जातियों के नेताओं को किसी भी कीमत पर सत्ता की प्राप्ति की भूख ने निहायत पहले दर्जे का अवसरवादी बना डाला था। जबकि कम्युनिस्ट धारा के साथ ऐसा नहीं था। लोहिया ने जो भी सिद्धांत बनाए उनको ठीक उन्हीं लोगों ने मटियामेट कर दिया जिसके भरोसे वे आगे बढ़ना चाहते थे। पिछड़ी जातियों के अमीर लोगों और धनाढ़्य तबके के हितों के लिए बनाए गए दल का यही हश्र होना था।
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