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पिछड़ों की किसानी व कम्युनिस्ट धारा

 

पिछले अंक में पिछड़ी जाति की जमींदारी या सोशलिस्ट धारा पर बात हुई थी। इस धारा से आने वाले पिछड़ी जाति के बड़े-बड़े नेतागण किस प्रकार अंतर्कलह, विचारधारात्मक समझौते, सत्ताप्राप्ति के लिए हर किस्म के अनैतिक गठजोड़ का समर्थन करना आदि प्रवृत्तियों को रेखांकित किया गया था। इन प्रवृत्तियों की जड़ में संपत्ति संबधों से टकराकर,  उसे बदलने के बजाए, उससे बचना रहा है। समान्तविरोधी संघर्ष के स्थान पर सत्ता में भागीदारी का आसान व सुरक्षित रास्ता अपनाना रहा है। किसानों के बदले जमींदारों के हितों का ख्याल रखने अधिक दिलचस्पी रहना इस धारा की प्रमुख पहचान रही है। अब हम इससे इतर पिछड़ी जातियों जमींदारविरोधी धारा की ओर आते हैं।

पूर्णिया जिले में किसान सभा  के नेता व लोकाख्यान  में तब्दील हो चुके  थे नक्षत्र मालाकार। पूर्णिया, सहरसा और भागलपुर के सीमावर्ती इलाकों में उन दिनों नक्षत्र मालाकार की धूम थी। अंग्रेजों के लिए वे ‘‘नोटोरियस कम्युनिस्ट डकैत’’ और ‘रॉबिनहुड’  के रूप में चर्चित थे। फणीश्वर नाथ रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आँचल’ में जिस चलित्तर कर्मकार नामक पात्र की चर्चा होती है वा दरअसल नक्षत्र मालाकार ही हैं। वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे। उनकी जीवन यात्रा दिलचस्प है। वे पहले  कांग्रेस से जुड़े, बाद में 1963 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े। राममनोहर लोहिया व जयप्रकाश नारायण के प्रभाव में थे। नक्षत्र मालाकार की अगुआई में ही लोहिया व जयप्रकाश को हुनमान नगर जेल से छुड़ाया गया। लेकिन इन दोनों के बारे में उनकीनक्षत्र मालाकार की  राय अच्छी नहीं रही। लोहिया व जयप्रकाश में समान्तवादविरोधी संघर्ष के प्रति उदासीनता ने नक्षत्र मालाकार को उनसे विमुख कर दिया। पहले वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में थे लेकिन जल्द ही उनका इससे मोहभंग हो गया और वे कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। दरअसल नक्षत्र मालाकार पर  क्रांतिकारी किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती का गहरा प्रभाव था। जमींदारविरोधी सघर्षों के प्रति  स्वामी जी की प्रतिबद्धता ने उन्हें उनके प्रति आकृष्ट किया।  वैसे भी लोहिया ने सोशलिस्ट पार्टी को जमींदार विरोधी संघर्ष से विमुखकर जमींदार समर्थक सामाजिक आंदोलन वाली पार्टी  से जोड़ा उसमें ये स्वाभाविक था।  ‘ मैला आंचल’ में चलित्तर कर्मकार को कभी भी जेल नहीं होती लेकिन नक्षत्र मालाकार को लंबा समय जेलों में गुजारना पड़ा। आजादी के बाद के 40 सालों में अठारह साल वे जेल में ही रहे। नक्षत्र मालाकार मृत्युपर्यंत यानी 1987 तक सी.पी.आई के साथ रहे। सामाजिक न्याय की जमींदारी धारा भूलकर भी नक्षत्र मालाकार का नाम नहीं लेती।  ठीक एसे ही भोला मांझी का संघर्ष था जो जमुई से सांसद रहे। जमींदारी धारा सत्ता के लिए हर किस्म के समझौते व तिकड़म में संलग्न रही जबकि किसानी व कम्युनिस्ट धारा के नायक नक्षत्र मालाकार की तरह जेलों में सड़ते रहे या मारे जाते रहे। पिछड़ी जाति के कम्युनिस्ट नेतागण अपने रहन-सहन में बेहद सादगी से जीने वाले तथा अकूत धन-संपत्ति इकट्ठा करने वाले नहीं थे।

कम्युनिस्ट के बाद कोई पिछड़ा नहीं जीत पाया

बिहार के मगध  क्षेत्र में भूमिहारों व यादवों के मध्य  हमेषा से सीधा राजनीतिक मुकाबला रहा है। इन दानों  ताकतवर जातियों के नवधनाढ़्य, अपनी जाति के राजनीति रूझान पर नियंत्रण रखने में सफल होते हैं। सन 2000 के आसपास पटना जिले के विक्रम से सी.पी.आई के विधायक रामनाथ यादव कि कहीं लालू पसाद से भेंट हुई। लालू जी के कुछ कहने पर रामनाथ यादव ने थोड़े व्यांगात्मक लहजे में उनको जवाब दिया ‘‘सुनिए लालू जी, आप तो बीस साल राज करने की बात ही करते हैं मेरी तो विधायकी का अब बीस वर्ष अब पूरा होने जा रहा है।’’ रामनाथ यादव सन 1980 से लगभग चार दफे सी.पी.आई के टिकट पर चुने जाते रहे। सामाजिक रूप से ‘भूमिहार’ बहुल इस इलाके में रामनाथ यादव का इतने लंबे वक्त तक जीतना किसी चमत्कार से कम न था। रामनाथ यादव  के बाद फिर कोई पिछड़ी जाति को कोई विधायक उस विधानसभा क्षेत्र से चुनाव न जीत सका।

औरंगाबाद के गोह विधानसभा से सी.पी.आई के रामशरण यादव पांच दफे बिहार विधान सभा के सदस्य चुने जाते रहे । एक ऐसा व्यक्ति जो जनप्रतिनिधि के रूप में आदर्ष समझा जाता था। वे अमूमन मात्र एक बाॅडीगार्ड के साथ  पूरे क्षेत्र में  भ्रमण किया करते थे। लालू प्रसाद ने उन्हें, मंत्री पद का प्रलोभन देकर देकर उन्हें अपने पक्ष में मिलाने का प्रयास किया लेकिन रामशरण यादव ने उसे ठुकराते हुए उनसे कहा ‘‘ कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर आपका मंत्री पद मुझे अस्वीकार्य है।’’ उनकी मृत्यु के बाद उस सीट से पिछड़ी जाति का कोई उम्मीदवार वहां से नहीं जीत पाया।

जहानाबाद से  कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर रामाश्रय सिंह कई दफे सांसद होते रहे। उनके बाद जहानाबाद से पिछड़ी जाति के सांसद सिर्फ एक दफे ही जीत हासिल सके।

पटना लोकसभा क्षेत्र से कम्युनिस्ट नेता थे  पिछड़ी जाति के रामावतार षास्त्री कई बार सांसद बने। उनकी मूर्ति राजेंद्र नगर गोलंबर पर आज भी खड़ी है। 1984 के राजीव गाँधी के लहर में वे सी.पी ठाकुर से पराजित हुए। सी.पी.आई की इस सीट को लालू प्रसाद ने प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल के नाम पर ये सीट मांगा और फिर कम्युनिस्ट पार्टी को यहां से चुनाव नहीं लड़ने दिया। कम्युनिस्ट पार्टी  ने भलमनसाहत में ये सीट छोड़ी और दुबारा वहां से कभी लड़ने नहीं दिया गया। 1996 में राजद ने कम्युनिस्टों के सहयोग से ये चुनाव जीता। कम्युनिस्ट पार्टी के बगैर सहयोग के राजद ये सीट कभी नहीं जीत सका। यहां तक कि लालू प्रसाद को भी इस यादव बहुल क्षेत्र से पराजय झेलना पड़ा, उनकी बेटी मीसा भारती भी हारीं। राजद ने इस जमीनी सच्चाई का उन्हे अहसास है। इसी कारण राजद द्वारा पाटलिपुत्र के सहयोग के बदले भाकपा-माले-लिबरेशन के लिए आरा सीट छोड़ी पड़ी। राजद नेतृत्व को इस बात का पूरा अहसास है कि यहां कम्युनिस्टों के सहयोग के बिना पटना सीट पर लालू परिवार का बेड़ा नहीं पार लग सकता।

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बिहार में लालू  परिघटना ने  धीरे-धीरे कर पिछड़ों के बीच जमींदारविरोधी किसानी व कम्युनिस्ट धारा को लगभग समाप्त ही कर दिया। पिछड़ों के लंपट, ठेकेदार, दबंग तत्वों को पार्टी व सत्ता में अधिक जगह मिलती चली गयी। पिछड़ों की कम्युनिस्ट धारा के कार्यकर्ताआ का भूमि संघर्षों में अनगिनत कार्यकर्ता मारे गए। जमींदारी या सोशलिस्ट धारा से आने वाले पिछड़ों ने सिर्फ सत्ता में प्रतिधित्व की बात, नुमाइंदगी का सवाल तो उठाया लेकिन कभी भूल कर भी भूमि का सवाल नहीं उठाया, जमींदारों से टकराने की कभी हिम्मत न जुटायी। लिहाजा कभी भी कम्युनिस्टों की तरह सामंतो  के निषाने पर नहीं रहे। सत्ता में रहने के बावजूद लालू प्रसाद गरीबों को जमीन न दिला पाए जबकि  कम्युनिस्टों ने लगभग डेढ़ लाख एकड़ बिना सत्ता में रहे महज अपने संघर्षों के बल पर गरीबों को बसाया। सामंतों  की जितनी भी निजी सेनाओं के निषाने पर हमेषा कम्युनिस्ट ही रहे। बल्कि लालू प्रसाद ने आरा की सभा में यहां तक कह डाला था कि ‘‘कम्युनिस्टों और माले की ताकतों को हराने के लिए नरक की ताकतों से भी हाथ मिलाउंगा’’।

जातीय उत्पीड़न पर सबसे मुखर अवाज कम्युनिस्टों की

अमूमन ऐसी धारणा बनी हुई है कि वामपंथी लोग  सिर्फ आर्थिक प्रश्नों पर लड़ते रहे सामाजिक सवालों को उतनी तरजीह नहीं दी। भूमि, मजदूरी आदि सवाल को तो उठाए लेकिन जाति के सवाल को छोड़ दिया। ये बेहद दिलचस्प आरोप है। राष्ट्रीय स्तर के  किसी भी कम्युनिस्ट नेता की जीवनी उठा ली जाए उनकी सबसे पहली लडाई सामाजिक न्याय या कहें पिछड़ दलित जातियों मान-सम्मान से शुरू हुई। जैसे फुटबॉल खेल रहे हैं, क्रिकेट खेल रहे हैं उॅंची जाति के किसी व्यक्ति ने पिछड़ी-निचली जाति के व्यक्ति को खेल से बाहर किया, कोई दुव्र्यवहार या जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया। ये लोग उसके पक्ष में भिड़ गए, लड़ पड़े। यहीं से उनके कम्युनिस्ट जीवन की शुरूआत हुई।

अभी सी.पीएम के वर्तमान राज्य सचिव अवधेश कुमार के गांव में होली के दिन घरों की पिछड़ी जाति की महिलाओं के साथ यौन दुर्वयवहार करने की  अनैतिक व  स्त्रीविरोधी प्रथा थी। कम्युनिस्ट पार्टियों ऐसे अमानवीय व अनैतिक प्रथाओं के  विरूद्ध भीशण व हिंसक संघर्ष चलाया। उस लड़ाई के दौरान एक योद्धा उमेश कुंवर कवि के अनुसार ‘‘ पहली बार तो कम्युनिस्ट के लोग इस प्रथा की षिकायत करने गए तो उनकी जमकर पिटाई हो गयी। अंततः हमें बल प्रयोग करने पर मजबूर होना पड़ा। खेतों में, मैला व गंदगी के बीच रात-रात जागकर हमने वो लड़ाई लड़ी, गांव के कई दबंगों को सबक सिखया तब जाकर जीत हासिल हुई।’’ भाकपा-माले व अन्य नक्सल समूहों की भोजपुर व जहानाबाद में विशेष पहचान ही यही रही है । बोलचाल में ‘रे’, ‘बे’ आदि सामंती उद्गारों के खिलाफ लंबी लड़ाई नक्सल समूहों की रही है। नक्सल समूहों की तो पहचान ही सामाजिक व जातीय प्रश्नों को उठाने की रही है। बिहार का हर इलाका ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है।

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बिहार में सामाजिक मुद्दों और जातीय उत्पीड़न के इन मुद्दों पर वामपंथियों ने जैसी लड़ाईयंा लड़ी  उसे ‘एपिक’ लड़ाइयों की संज्ञा दी जा सकती है। बिहार के किसी दूसरी दल को, जमीनी स्तर पर सामाजिक न्याय के संघर्ष का श्रेय, नहीं जाता है। जमीनी स्तर की चैंपियन कम्युनिस्ट पार्टियां थी लेकिन इसका श्रेय लालू प्रसाद को ले जाने दिया। सांप्रदायिकता विरोध के ग्रैंड नैरिटिव में ,  सामाजिक या जातीय उत्पीड़न के इन संघर्षों को विस्मृत हो जाने दिया गया। इन लड़ाइयों का सही ढ़ंग से दस्तावेजीकरण तक नहीं किया गया। इन्हीं वजहों से अधकचरे विष्लेशक कहा करते हैं कि कम्युनिस्टों ने ‘जाति’ के प्रश्न का नजरअंदाज किया। जमीनी स्तर पर जातिवाद से लड़ने का जैसा उनका अनुभव है उतना कसी अन्य राजनीतिक धारा का नहीं। लेकिन ऐसे लोगों के मध्य अपनी ही लड़ाईयों के व्यापक जमीनी अनुभवों ले जाकर उन्हें सूत्र करने का काम नहीं हो सका।

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अनीश अंकुर

लेखक संस्कृतिकर्मी व स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क- +919835430548, anish.ankur@gmail.com
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