एतिहासिक

बैतूल का जंगल सत्याग्रह : इतिहास की गुमनाम गाथा

 

भारत में आज जब स्वतंत्रता संग्राम के 75 वर्ष में अमृत महोत्सव मना कर स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति प्रदान करने वाले वीरों की शहादत को नमन किया जा रहा है, तो हमें उन गुमनाम शहीदों को भी याद करना होगा, जिन्हें इतिहास के पन्नों में विस्मृत कर दिया गया। इतिहास को लेकर आज हमें अपने नजरिए में बदलाव जरूर करना होगा, हमें हाशिए पर चले गए नायकों को भी जन सामान्य के सामने लाना होगा, अब कुलिनों के इतिहास की जगह जन इतिहास को लिखना होगा।

भारत में सबाल्टर्न इतिहास की शुरुआत रंजीत गुहा द्वारा की गयी थी, उनका मानना था कि भारत के पारंपरिक इतिहास लेखन में वर्ग विभेद नहीं दिखता, यहाँ सिर्फ अभिजात्य (कुलीन) ही दिखता है, औपनिवेशिक साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा आदिवासी, दलित, किसान, श्रमिक नहीं दिखता। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में हमें तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, गाँधी, नेहरू, पटेल तो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन टंट्या भील, गंजन सिंह कोरकू, तिलकामांझी, बिरसा मुंडा, गोविंद गुरु आदि नहीं दिखाई पड़ते। आदिवासियों तथा वंचित समाज का इतिहास में उल्लेख ना होने के सम्बन्ध में विजयदेव नारायण साही की कविता काफी प्रासंगिक लगती है –

तुम हमारा जिक्र इतिहास में नहीं पाओगे,
क्योंकि,
हमने अपने को
इतिहास के विरुद्ध दे दिया है।

 प्रस्तुत पंक्तियां किसी भी संदर्भ में लिखी गयी हो, लेकिन निष्कर्ष यही है जिस संस्कृति के विरोध में आदिवासी सदियों से लड़ते रहे। इसमें उन्हें जगह कैसे मिलेगी, आदिवासियों को तो पुरातन काल से अपने अधिकारों से वंचित किया गया। चाहे शंबूक हो, चाहे एकलव्य, घटोत्कच या बर्बरीक सभी को किसी ना किसी प्रकार से धोखा दिया गया और मार डाला गया। और यदि किसी ने सनातनी संस्कृति का साथ भी दिया तो उसका महिमामंडन ना कर प्रभु जाति को ही महिमा मंडित किया गया चाहे झलकारी बाई हो या पुंजया भील।

 इतिहास के नाम पर हजारों वर्षों से राजा महाराजाओं का इतिहास ही लिखा गया। प्राचीन काल से मुगल काल तक चारण भाट या दरबारी इतिहासकारों की ही प्रधानता रही। उनके द्वारा राजा महाराजाओं की दंभ भरी शौर्य गाथाएं ही लिखी गयी। ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा इतिहास लेखन “व्हाइट बर्डन थ्योरी” के तहत ही किया गया, जिसके द्वारा अपने उपनिवेश साम्राज्य को वैधता ही प्रदान करने की कोशिश की गयी।

आजादी के पश्चात वामपंथी इतिहासकारों द्वारा किसानों श्रमिकों आदि की आर्थिक, सामाजिक, समस्याओं का समाधान ढूंढने का प्रयास तो किया गया लेकिन उन पर अंतरराष्ट्रीय समाजवाद हावी रहा। और भारत में उनके द्वारा जाति विच्छेद और आदिवासियों के समावेशी इतिहास को गढ़ने का प्रयास नहीं किया गया।

इसलिए वर्तमान में सबाल्टर्न अध्ययन के तहत हमें समाज के सभी पहलुओं का अध्ययन करना होगा। प्रस्तुत आलेख में इतिहास के अनजाने-अनदेखे पहलू को समझने का प्रयास किया गया है, क्योंकि इतिहास तो सम्पूर्ण होता है। यदि हमें भारत का इतिहास सम्पूर्ण परक जानना है, तो हमें उस के उस हिस्से को भी जानना होगा जिसका योगदान विस्मृत हो गया है या विस्मृत कर दिया गया। स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐसा ही नायक है गंजन सिंह कोरकू।

महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के तहत कई आन्दोलन किए गए। उनमें से एक था सविनय अवज्ञा आन्दोलन जिसके तहत गाँधी जी ने दांडी यात्रा कर नमक कानून तोड़ा था। उसके बाद तो पूरे भारत में जगह-जगह कानून तोड़े गए क्योंकि मध्यप्रदेश में समुद्र तट तो नहीं था। इसलिए यहाँ के निवासियों ने जंगल कानून तोड़ने का निश्चय किया। 1930 में महात्मा गाँधी के आह्वान पर मध्य प्रदेश के बैतूल जिले में जंगल सत्याग्रह की शुरुआत की गयी, इस सत्याग्रह में आदिवासियों का एक महानायक का नाम था, गंजन सिंह कोरकू। सन 1930 में ब्रिटिश सरकार ने सरदार गंजन सिंह पर ₹500 का इनाम भी रखा रखा था।

जंगल सत्याग्रह से पहले के आदिवासी आन्दोलन हिंसक होते थे लेकिन गाँधी जी की अहिंसा वादी नीतियों से प्रभावित होकर आदिवासी निहत्थे ही जंगल कानून तोड़ने के लिए तैयार हो गए। बैतूल जिले के घोड़ाडोंगरी तहसील के वंजारी ढाल ग्राम में जंगल सत्याग्रह को अमलीजामा पहनाया गया, इसके नेता रहे गंजन सिंह और विष्णु सिंह ने मजबूत नेतृत्व किया और इस सत्याग्रह में कौवा सिंह, रामू, मकडू और बुंचा कोरकू शहीद हुए।

गंजन सिंह कोरकू

आजादी प्राप्त होने के बाद भी गंजन सिंह ने जनजातीय समाज में गाँधीवादी विचारों का प्रचार प्रसार किया। कहते हैं कि सन 1947 में देश की आजादी के बाद खुशी में झूमते सरदार गंजन सिंह बैतूल जिले के जंगलों में तिरंगा लेकर घूमते थे। और वनवासियों को देश के आजादी का जश्न मनाने की सलाह दिया करते थे। साल 1963 में उनका देहांत हो गया। देश की आजादी में जनजातीय समाज को एकजुट करने वाला इस महानायक का परिवार आज गुमनामी में जी रहा है। उनके इकलौते बेटे नंदन सिंह आज मजदूरी करके या मवेशी चरा कर अपना जीवन यापन करने को विवश हैं।

अपना सम्पूर्ण जीवन ब्रिटिश साम्राज्य से जूझने में व्यतीत करने वाले इस नायक के साथ इतिहास ने भी न्याय नहीं किया और लगातार उनके योगदान को भुलाया जा रहा है। बैतूल जिला जो कि जनजाति बाहुल्य है, जिसके सांसद विधायक आदिवासी समुदाय से संबंधित है। लेकिन वे अपनी नायक को उचित सम्मान नहीं दिला पाए हैं। केवल विष्णु सिंह गोंड के नाम पर जिला बस स्टैंड का नामकरण कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली।

अब प्रश्न यह है कि अगर इतिहास नहीं लिखा गया तो फिर आदिवासी नायकों को इतिहास में स्थान कैसे दिलाया जाए। जरूरी है इसके लिए स्वयं कलम उठानी होगी लेकिन इसके लिए हमें अध्ययन में वस्तुनिष्ठता लाने का प्रयास जरूर करना होगा। और अपने नायकों को देवत्व या महापुरुषों के बोझ से हटाना होगा।

आदिवासी जनों ने स्वतंत्रता संग्राम में पूरे देश में अंग्रेजों से लोहा लिया चाहे झारखण्ड में बिरसा मुंडा हो या बिहार में तिलकामांझी, राजस्थान में गोविंद गुरु और मध्यप्रदेश में टंट्या भील। लेकिन इन विद्रोहियों के साथ इतिहास ने एक जैसा व्यवहार किया, यह तत्कालीन समाज की लोकोक्ति लोकगान में तो उपस्थित है। अतः जरूरत है इन लोगों को ऐतिहासिकता प्रदान करने की और इतिहास में उन्हें उनका स्थान प्रदान करने की

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अमित सातनकर

लेखक डॉक्टर भीमराव अंबेडकर बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर में सहायक प्राध्यापक (इतिहास) हैं। सम्पर्क +918982842018, satankeramit@gmail.com
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