चर्चा में

हिंडेनबर्ग के हिस्ट्रीशीटर और उसके शरीके जुर्मों के लिए ओबीसी के कवच और ढाल की तलाश

 

मोदी की भाजपा के न्यू इंडिया में सिर्फ नैरेटिव ही नहीं बदला ; बल्कि वर्तनी, मायने और मुहावरे भी बदल दिए गए हैं। राष्ट्रवाद को धूर्तों की आख़िरी शरणस्थली बताने वाली उक्ति अब बदलकर जाति को चोरों की मजबूत ढाल और कवच बनाने तक आ गयी है। मानहानि के मामले में गुजरात की अदालत द्वारा अपने असाधारण असामान्य फैसले में राहुल गांधी को मानहानि का दोषी पाए जाने और फैसले की सर्टिफाइड कॉपी की स्याही सूखने से भी पहले उनकी लोकसभा की सदस्यता समाप्त करने के सरासर पूर्वाग्रही और अलोकतांत्रिक कारनामे को छुपाने के लिए ऊपर से नीचे तक पूरी मंडली मोदी के अपमान को ओबीसी का अपमान बताने की मुहिम छेड़ने में जुट गयी है। यह अलग बात है कि ऐसा करते हुए, नीरव मोदी, ललित मोदी जैसे चोरों और उन्हें खुलेआम संरक्षण देने वाले नरेंद्र मोदी को ओबीसी बताकर ओबीसियों का असल अपमान तो वे खुद कर रहे हैं। मगर यह भाजपा है — कुछ भी कर सकती है। खुद को और अडानी जैसे अपने सरपरस्तों को बचाने के लिए कोई भी कुतर्क गढ़ सकती है। उनकी हड़पी दौलत और काले कारनामों पर पर्दा डालने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। 

आज जो संघ-भाजपा ओबीसी समुदायों के कथित सम्मान में आकाश पाताल एक किये हुए है, यही कुटुंब है, जो 1989 में वी पी सिंह की सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण सहित विशेष सकारात्मक उपाय करने के एलान के बाद आरक्षण विरोधी आंदोलन को भड़का कर  पूरे देश को आग लगाने पर आमादा था। इसके तब के सबसे बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी मंडल के खिलाफ कमंडल लेकर सोमनाथ से अयोध्या तक की ऐसी विनाश रथ यात्रा पर निकल पड़े थे, जिसने भारतीय समाज के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को खींच उधेड़ कर रख दिया। इसके बाद भी कभी कोई कसर बाकी नहीं रहने दी।

 आडवाणी के टोयोटा रथ पर सवार होकर दंगों में बिछाई गयी भारतीयों की लाशों को सीढ़ी बना सीधे सत्ता चढ़, अडानी की गाड़ी के कहार बनने तक पहुंची संघ परिवार की भुजा भाजपा ने  मंडल आयोग के प्रति अपनी हिकारत कभी छुपाई नहीं। इस आयोग की सिफारिशों  का समर्थन करने वाले, सामाजिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण सहित विशेष उपायों की आवश्यकता की हिमायत करने वाले सभी राजनीतिक दलों और सामाजिक समूहों को जातिवादी और परिवारवादी करार दिया गया।  शूद्रों, आदिवासियों और ओबीसी की बात करने वालो को हिन्दू एकता को विघटित करने वाला बताया और समग्र हिन्दू एकता की चीख-पुकार मचाई ; इन्हीं को आज दुनिया भर में अडानी के अपराध और उनके साथ मोदी की लिप्तता उजागर होने के बाद उन्हें अचानक नरेंद्र मोदी के ओबीसी होने की याद आयी — और कल तक अडानी का अपमान राष्ट्र का अपमान बताने वाला कुनबा अपने ही ब्रह्मा जी को बचाने के लिए उन पर सवाल उठाना ओबीसी का अपमान बताने पर उतर आया। 

जो भाजपा देश के तकरीबन सारे राजनीतिक दलों और ज्यादातर सामाजिक समूहों द्वारा ओबीसी जनगणना किये जाने की मांग को देश की एकता तोड़ने वाली मांग बताते नहीं थकती, किसी भी सूरत में इस तरह की जनगणना न होने देने के लिए चुटिया बांधे बैठी है ; उसे घपले कर भारत से भाग जाने वाले मनु-प्रमाणित सवर्ण नीरव और ललित मोदियों में भी ओबीसी नजर आने लगा है। मजबूरी क्या-क्या नहीं कराती। 

वैसे होने को तो खुद नरेंद्र मोदी के ही ओबीसी होने के दावे में डबल लोचा है। एक तो यह कि सिर्फ मोदी होना अपने आप में किसी एक जाति विशेष का होना नहीं होता – गुजरात में भी नहीं होता। खुद अपने मुख्यमंत्रित्व काल में जिस समुदाय से नरेंद्र मोदी स्वयं आते हैं, उसे ओबीसी सूची में जुड़वाने के बाद भी, अभी भी गुजरात राज्य के ओबीसी समुदायों की जो केंद्रीय सूची है, उसमें 104 श्रेणियों में और इससे कोई ढाई गुना उप-श्रेणियों में मोदी नाम का दूर-दूर तक उल्लेख भी नहीं है। मगर जिन्हे नियम, क़ानून, विधान, संविधान और न्याय प्रणाली की ही परवाह नहीं, उनके लिए ये तथ्य क्या मायने रखते हैं। उन्हें लगता है कि वे सब कुछ जुगाड़ सकते हैं — कुछ भी कर सकते हैं, सब कुछ अपने अनुकूल ठीक ठीये पर बिठा सकते हैं। 

मानहानि के मामले में ताजा अदालती फैसला भी इसी तरह की दिलचस्प रोमांचित करने वाले रहस्यमयी संयोगों-प्रयोगों के उलझे धागों के गोले की तरह है। कर्नाटक में दिए गए भाषण पर गुजरात में सूरत की अदालत में मुकदमा दर्ज होता है। जिन्हे नाम लेकर चोर कहा जाता है, उनमे से कोई भी चोर शिकायत तक नहीं करता, भाजपा के ही एक नेता को खड़ा कर दिया जाता है। सुनवाई करने वाले मजिस्ट्रेट के कड़क रवैय्ये को देखकर मुकदमा दायर करने वाला खुद अपने मुकदमे की कार्यवाही रुकवाने के लिए हाईकोर्ट से स्टे ले आता है और महीनों तक सुनवाई रुकी रहती है … और फिर अचानक 7 फरवरी को लोकसभा में हिंडेनबर्ग हिस्ट्रीशीटर अडानी और उसके जुर्मों में शरीक प्रधानमंत्री मोदी सहित सबका कच्चा चिट्ठा खोला जाता है। सूरत की अदालत में अपने द्वारा दायर मुकदमे की सुनवाई पर स्टे लेने वाला 16 फरवरी को हाईकोर्ट से अपना केस वापस ले लेता है। इस  बीच सूरत की संबंधित अदालत में एक नए जज हरीश हंसमुख भाई आते हैं। उनकी पहली विशेषता तो यह है कि इन्हे  पिछली 8 साल से कोई पदोन्नति नहीं मिली थी। एक झटके में एक साथ दो पदोन्नतियाँ पाकर वे दूसरी विशेषता भी हासिल कर लेते हैं। पहले उन्हें एसीजेएम से सीजीएम बनाया जाता है, फिर 10 मार्च को सिविल जज से डिस्ट्रिक्ट जज बना दिया जाता है। रिकॉर्ड के मुताबिक़ यही जज साब 27 फरवरी को ताबड़तोड़ सुनवाई कर 17 मार्च को फैसला सुरक्षित कर लेते हैं और 23 मार्च को इस प्रकरण में जो अधिकतम सजा है, वह 2 वर्ष की  सजा सुना देते है। फैसला आते हीआनन-फानन लोकसभा का सचिवालय संसद सदस्य्ता खत्म करने की घोषणा भी कर देता है।

यह अलग बात है कि जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब 2013 में उन्ही के एक मंत्री बाबूराम बोकड़िया को भ्रष्टाचार में दोषी पाकर अदालत ने 3 वर्ष की जेल की सजा सुनाई थी।  तब बोकड़िया ने न इस्तीफा दिया, न जेल गए।  पखवाड़े भर में ऊपरी अदालत से जमानत लेकर मजे से मंत्री बने बैठे रहे। सिक्किम में हुआ कारनामा तो और भी जोरदार है। यहां भाजपा ने जिस प्रेमसिंघ तमांग को  मुख्यमंत्री बनाया, उसके खिलाफ भ्रष्टाचार प्रमाणित हो चुका था — उसे चुनाव तक लड़ने के लिए अयोग्य करार दिया जा चुका था। मगर मुख्यमंत्री बनाना था, सो जनप्रतिनिधित्व क़ानून में वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में बनाया गया नियम चुपचाप से हटा लिया गया।  केंचुआ – केंद्रीय चुनाव आयोग – बंदे को विशेष छूट देकर उसकी 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने की अयोग्यता में 5 वर्ष कम करके उन्हें अयोग्य से योग्य बना देता है।  इस तरह से भाजपा के साथ जुड़कर साबित प्रमाणित गंदा नाला भी ओम पवित्रम पवित्राय हो गया।

कहानी का सार यह है कि अब अगर किसी ने भी हिंडेनबर्ग के हिस्ट्रीशीटर अडानी और उसके शरीके जुर्मों के खिलाफ बोला, तो सिर्फ व्यक्ति या निर्वाचित सदनों और संवैधानिक संस्थाओं की खैर नहीं।  (इन पंक्तियों के लिखे जाने तक  उद्धव ठाकरे और उनकी पार्टी के एक नेता को भी मानहानि के मुकदमे का नोटिस  थमाया जा चुका है) कारपोरेट की गोद में बैठा भाजपा का हिंदुत्व यही है – इसलिए दांव पर किसी अ या ब की सांसदी भर नहीं है ; दांव पर बड़ी मुश्किल और भीषण कुर्बानियों से हासिल लोकतंत्र और संविधान है – इसे उधेड़कर इसकी जगह तानाशाही का नुकीला और चुभने वाला जिरहबख्तर लादने की पूरी तैयारियां  की जा चुकी हैं।

सवाल यह है कि क्या 140 करोड़ आबादी वाली जनता ऐसा होने देने के लिए तैयार है या नहीं। आने वाला समय इसी सवाल के हल ढूंढने का समय होगा ; हल निकलेगा, एकजुट संघर्षों की बहार से हल निकलेगा।

बादल सरोज

(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 094250-06716)

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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