चर्चा में

भाषा की हिंसा और बारिश का विलेन हो जाना

 

          कभी किसी वरिष्ठ पत्रकार ने खेल की ख़बरों में भाषा की हिंसा को रेखांकित किया था। तब पाकिस्तान खेलने गई भारतीय क्रिकेट टीम की जीत पर हेडलाइन बनी थी, ‘भारत ने किया मुल्तान का किला फतह’। ऐसी ही एक और हेडिंग थी, ‘भारत ने बांग्लादेश को रौंदा’। खिलाड़ी खेल ख़त्म होने के बाद एक दूसरे से गले लगकर प्रतिस्पर्धा को मैदान तक ही महदूद कर देते हैं। ‘जिम्मेदार’ पत्रकार दिलों को जोड़ने वाले खेलों को ही माध्यम बनाकर अपनी हिंसा को भाषा में परोसते रहते हैं। बाज़ार के बेहद स्वार्थी हितों को पूरा करते रहते हैं। किला फतह, मुल्तान का सुल्तान, रौंद दिया, पीट दिया आदि जैसे भाषा-प्रयोग, भाषा को सामन्ती बनाए रखने के सायास प्रयास हैं। भाषा की जान उसकी संवेदनशीलता है, भाषा ही नहीं ज़िन्दगी में भी अवांछित हिंसा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए।  

                पीट दिया, रौंद दिया जैसी बातों में हिंसा सीधे-सीधे दिखाई पड़ जाती है परन्तु प्रकृति के ख़िलाफ़ भाषा में जो हिंसा शामिल होती है, वह हमें आसानी से दिखाई नहीं पड़ती। वैसे भी हमारे समाज में भाषा का व्यवहार से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। बात – बेबात माँ की कसमें खाने वाले, उसकी महानता के गुणगान में भीग जाने वाले हमारे समाज में सबसे ज़्यादा गालियाँ भी उसी के लिए हैं। रक्षाबंधन को राष्ट्रीय पर्व की तरह मनाने वाले इसी समाज में बहन को हर रोज़ भाषा में कैसे बरता जाता है, हम सब इससे बख़ूबी परिचित हैं। वैसे यह कैसा समाज है जहाँ सबसे विकसित माने जाने वाली प्रजाति के समाज में बहन को रक्षा की ज़रूरत पड़ती है। माँ और बहन को बात-बेबात जिस ‘सम्मान’ से हम याद करते हैं, उतना शायद ही कोई और समाज करता होगा। इसके साथ ही यह भी सच है कि इस समाज में गालियाँ देने वाले लोग हैं तो भाषा को उसकी पूरी मर्यादा और क्षमता के साथ बरतने वाले लोग भी हैं। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि जब किसी जगह पर कुछ लोग भाषा को उसके पूरे सम्मान के साथ बरत रहे होते हैं, ठीक उनसे पाँच सौ मीटर की दूरी पर कुछ लोग दनादन गालियों से भरी भाषा में बात कर रहे होते हैं। क्या होता अगर भाषा को उसकी मर्यादा में बरतने वाले लोग नहीं होते? ऐसे में हमें घर-बाहर,चौक-चौराहे हर जगह सिर्फ़ गालियों वाली भाषा ही सुनाई देती, जबकि ऐसा नहीं है। आशय इतना ही है कि जब हम भाषा को बरत रहे होते हैं, तब हम अपनी जगह से अनायास ही इस समाज को बनाने या बिगाड़ने का काम कर रहे होते हैं।

                भाषा में लोगों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा पर हमारा ध्यान जाता है और बहुधा हम उसे ठीक करने के प्रति सजग भी होते हैं, पर भाषा में प्रकृति के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा पर हमारी नज़र ही नहीं जाती। बेख़याली में हम अपनी अभिव्यक्ति को मजबूत बनाने के लिए प्रकृति के ही ख़िलाफ़ अपनी हिंसा को ज़ाहिर करते रहते हैं। वैसे भी हम अपने जीवन में प्रकृति के प्रति जितना असंवेदनशील हैं, उतना शायद किसी और के प्रति नहीं हैं। हम लगातार एक कृतघ्न प्रजाति के रूप में विकसित होते रहे हैं और हमें अपनी इस प्रवृत्ति या ख़ामी का पता तक नहीं है। जिस प्रकृति का सबसे ज़्यादा अहसान हमारी प्रजाति पर है, उसके प्रति हम सबसे कम कृतज्ञ हैं। वर्ल्ड अर्थ डे, पर्यावरण दिवस,विश्व नदी दिवस जैसी रस्म अदायगी तो करते रहते हैं पर कभी अपनी धरती से मुख़ातिब होकर उसे शुक्रिया कहने की ज़हमत नहीं उठाते। ‘मौसम की तरह बदल तो न जाओगे’ सुनते-गाते हुए अपने प्यार की याद में हम डूबते-उतराते रहते हैं पर ज़रा ठहर कर सोचते तो पता चलता कि असल में मौसम की तरह बदलना बेहद ख़ूबसूरत होता है। सोच कर ही सिहरन होती है कि मौसम का न बदलना पूरी धरती के लिए कितना खौफ़नाक परिणाम वाला साबित हो सकता है। धरती ही नहीं रहेगी तो किसके प्यार में हम डूबेंगे-उतरायेंगे। शायद अपनी बात न समझा पाऊँ फिर भी यह कहना चाहूँगा कि कम से कम हम जिससे प्यार करते हैं, उससे तो मौसम की तरह बदलने की गुज़ारिश कर ही सकते हैं। हम ही हैं जो ‘पतझड़, सावन, बसंत, बहार एक बरस में मौसम चार…पाँचवा मौसम प्यार’ गीत भी गुनगुनाते हैं। वैसे इस गाने में भी एक मासूम सी ग़लती है, बसंत और बहार असल में एक ही मौसम हैं तो इस तरह से प्यार चौथा मौसम ठहरता है पर गाने की लय के लिए इसे अनदेखा भी किया जा सकता है।

ऐसे उदाहरण ढूँढने के लिए बहुत कोशिश की ज़रूरत नहीं पड़ेगी जहाँ प्रकृति के प्रति हमारे नृशंस व्यवहार का हवाला न मिल जाए। मिट्टी की मूरत की पूजा करने हम लोग कितने शान से कहते हैं कि इज़्ज़त को मिट्टी में मिला दिया। इज़्ज़त को मिट्टी में मिलाने का यह वक्तव्य कितना हिंसक है, क्या हमने कभी सोचा? जिस धरती ने हमें पैदा किया, हमारे लिए बरसों आग में जली, बर्फ़ और बारिश की मार झेली। हवा, पानी, खाना सबका इंतजाम किया ताकि हम ज़िन्दा रह सकें। परिवार बसा सकें, प्यार कर सकें, रिश्तों को जी सकें, यहाँ तक कि अपनी ही प्रजाति के ख़िलाफ़ ठन्डे दिमाग से षड्यंत्र कर सकें। बदले में हमने क्या किया? हमने कृतज्ञता ज्ञापित करने की जगह लगातार उस पर अत्याचार किए। उसे खोदा, लूटा, कचरे की ढेर से उसे दबा दिया, यहाँ तक कि अपनी भाषा में उसी के ख़िलाफ़ मुहावरे बनाए । ठहर कर सोचने और ठीक से समझने की ज़रूरत है कि इज़्ज़त का मिट्टी में मिल जाना ख़ूबसूरत है, इसके बरक्स इज़्ज़त बनाए रखने के नाम पर अनगिनत हिंसाएँ ही की हैं, हमने।

                बहरहाल, इस लिखे का जो शीर्षक है उस तरफ़ लौटते हैं। 23 अक्टूबर 2022 को टी-20 वर्ल्ड कप में भारत-पाकिस्तान क्रिक्रेट टीम के बीच होने वाले मैच के बारे में लिखते हुए एक अख़बार की हेडिंग है, ‘पकिस्तान से मुकाबले में भी बारिश बन सकती है विलेन’। बारिश को विलेन कहना भाषा की कितनी बड़ी त्रासदी है, क्या इसका कुछ भी इल्म है हमें। इस वाक्य में ‘भी’ का प्रयोग यह बताता है कि इस सम्बन्ध में हम सजग नहीं हैं और इस भाषागत हिंसा को वापस दुहराने के प्रति सहज हैं। ऐसा पहली बार भी नहीं लिखा गया है, सालों से यह भाषा व्यवहार में है। गौरतलब है कि यह टूर्नामेंट आस्ट्रेलिया में हो रहा है, जो पिछले कुछ सालों में धरती का सबसे ज़्यादा पानी की कमी झेलने वाला, सूखाग्रस्त और गर्म महादेश बन गया है। वहाँ की सरकार इस बारे में काफ़ी गंभीर है और इस सन्दर्भ में कठोर दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं। वहाँ की सरकार बार-बार जनता से पानी का समझ कर प्रयोग करने और पानी के स्त्रोतों की रक्षा करने की गुज़ारिश करती रहती है। अभी हाल में सिर्फ आस्ट्रेलिया में पाए जाने वाले कोवाला (Koala Bear) नामक एक जानवर का एक वीडियो सामने आया है। जिसमें कोआला युकीलिप्टस की पत्तियाँ चबाने के बाद अपने स्वभाव के विपरीत पेड़ से नीचे उतरकर प्यास बुझाने के लिए पानी के स्रोत की तरफ़ जाता है। इसे शोधकर्ताओं ने आस्ट्रेलिया में हो रहे व्यापक पर्यावरणीय बदलाव के बतौर रेखांकित किया है। कोआला की ख़ासियत है कि वह अपनी प्यास अपने खाने से ही बुझा लेता है, वह सीधे तौर पर पानी नहीं पीता। युकीलिप्टस की पत्तियों में नमी की मात्रा कम होती है इसलिए उन्हें अलग से पानी पीने की ज़रूरत पड़ रही है। कोआला के माध्यम से आस्ट्रेलिया में हो रहे पर्यावरणीय बदलाव और वहाँ प्रकृति में हो रहे पानी की कमी को समझा जा सकता है। वैसे पानी की कमी से आज पूरी दुनिया जूझ रही है। तमाम शोध यह लगातार बताते रहे हैं कि पानी की समस्या त्रासद स्थिति से भी गंभीर है। इस पर लगातार जागरूक करने की वैश्विक कोशिश भी हो रही है।

                इसलिए पेड़ तो लगाना ही होगा, पानी के स्त्रोतों को रक्षित और पुनर्जीवित भी करना होगा और साथ ही हमारी भाषा में समाए हुए प्रकृति के प्रति हिंसा को गंभीरता से समझना होगा। मेलबर्न में संभावित बारिश महज इसलिए विलेन नहीं हो जाती कि उसकी वजह से एक क्रिकेट मैच नहीं हो पायेगा। खेल ज़रूर ख़ुशी देता है पर किस कीमत पर और कौन हैं जिन्हें ये मैच अपार पैसे भी देता है? और क्रिकेट कब बारिश से ज़्यादा ज़रूरी हो गया? भारत में सूखे की मार झेल रहे विदर्भ में किसानों की आत्महत्या ने हमें पूरी दुनिया में शर्मसार किया है और उसी इलाके में आईपीएल के मैच लगातार होते रहे। तब किसी ने विलेन की पहचान करने की कोशिश नहीं की, यह कैसी संवेदनशीलता है? बारिश की ज़रूरत हमें किसी भी खेल से ज़्यादा है, पूरी पृथ्वी को बारिश की ज़रूरत है। हमारी संवेदनशीलता का आलम यह है कि हम थोड़ी सी गर्मी से परेशान होने पर बारिश के लिए प्रार्थना में नत हो जाते हैं और उसी हालात में कपड़े धोने पर हम चाहते हैं कि धूप निकली रहे।

                प्रकृति को उसके स्वभाव में बदलाव के लिए हमने मजबूर किया और आज हम उसे विलेन बना रहे हैं। यह समझने के लिए भी बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ेगी कि बारिश नहीं हो तो हमारी हालत क्या होगी? खेल तो बाद में देखेंगे, खेल हमारे साथ पहले हो जाएगा और देखने के लिए कम से कम हम नहीं बचेंगे। जिस बारिश की वजह से हमारी जीवन-धारा है उसे विलेन बताया जा रहा है, है न कमाल की बात।  यह किसी एक अख़बार की हेडिंग नहीं है। प्रभात खबर, हिंदुस्तान, एबीपी, नवभारत टाइम्स,न्यूज़ 18,सबने बारिश को विलेन ही लिखा है, और पहली बार नहीं लिखा है, स्पोर्ट्सनामा नाम का एक वेबसाईट चैनल तो एक कदम आगे है, उसने लिखा है, ‘भारत-पकिस्तान के मैच पर छाया काला साया, बारिश बन सकती है हाईवोल्टेज मुकाबले में विलेन’। एक तो काला शब्द को हम ठीक से बरतना नहीं सीख पाए हैं, काले-कानून और कालाबाजारी जैसे शब्द सभी जिम्मेदार लोग शान से इस्तेमाल करते दिख जाते हैं। दूसरे कुछेक को छोड़कर सारे अख़बार-चैनल चिल्ला-चिल्ला कर बारिश को विलेन बता रहे हैं। अपने जीवन-व्यवहार में शामिल प्रकृति के ख़िलाफ़ किए जा रहे हिंसा के प्रति हमें सजग होना पड़ेगा, सच्चे तौर पर संवेदनशील होना पड़ेगा। एक तरफ़ हम ज़िम्मेदार पारिवारिक व्यक्ति और नागरिक बनने की कोशिश करेंगे और दूसरी तरफ़ प्रकृति के ख़िलाफ़, धरती के ही ख़िलाफ़ अपनी भाषा को असंवेदनशील ढंग से बरतेंगे तो कुछ हासिल नहीं होने वाला है। सवाल है कि क्या हम हमारी भाषा में शामिल प्रकृति के असम्मान और हिंसा को समझने की कोशिश करेंगे या नहीं?

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राही डूमरचीर

लेखक आर. डी. एण्ड डी.जे. कॉलेज, मुंगेर में हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क 7093196127, rajeevrjnu@gmail.com
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